(१८६९-१९४१ई.) भारत सरकार के वित्त विभाग में एक छोटे अफसर के रूप में नियुक्त और बाद में भारत का सर्वप्रथम कन्ट्रोलर आफ ट्रेजरी। १९३७ में वह निज़ाम का प्रधान सचिव बनाया गया, जहाँ कुछ शासन सुधार किये गये। बाद में वह वाइसराय की एक्जीक्वीटिव कौंसिल का सदस्य बनाया गया।
अकमल खां
अफरीदी कबाइली सरदार जिसने १६७२ ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया और अपने को सुल्तान घोषित किया। उसने अली मस्जिद की लड़ाई में मुगल सेना को हरा दिया और कुछ समय तक पठानों के पूरे क्षेत्र पर अटक से कंधार-तक अपना राज्य स्थापित कर लिया था। १६७४ ई. में औरंगजेब खुद पेशावर गया तथा कूटनीति और शस्त्र-बल से उसने अकमल खाँ तथा पठानों को हरा दिया।
अकाल
भारत के आर्थिक जीवन की एक दुःखद विशेषता। मेगस्थजीज (दे.) ने लिखा है कि भारत में अकाल नहीं पड़ता, लेकिन यह कथन बाद के इतिहास में सही नहीं सिद्ध होता। सच तो यह है कि भारत जैसे देश में मुख्यतः खेती ही जीवन-यापन का साधन है और वह मुख्यतः अनिश्चित मानसूनी वर्षा पर निर्भर रहती है। अतः यहाँ अकाल प्रायः पड़ता रहता है। ब्रिटिश राज्यकाल के पहले के अकालों का विश्वस्त विवरण नहीं प्राप्त होता। लेकिन १७५७ ई. की पलासी की लड़ाई और १९४७ ई. में भारत की स्वाधीनता मिलने के समय के बीच, अर्थात् १९० वर्ष की छोटी अवधिके दौरान देश में बड़े-बड़े नौ अकाल पड़े। यथा,
(१) १७६९-७० ई. जिसमें बंगाल, बिहार और उड़ीसा की एक तिहाई आबादी नष्ट हो गयी। (२) १८३७-३८ ई. में समस्त उत्तरी भारत अकालग्रस्त हुआ, जिसमें ८ लाख व्यक्ति मौत के शिकार हुए। (३) १८६१ ई. में पुनः भारी अकाल पड़ा, जिसमें उत्तर भारत में असंख्य व्यक्ति मरे। (४) १८६६ ई. में उड़ीसा में अकाल पड़ा, जिसमें १० लाख लोगों की जानें गयीं। (५) १८६८-६९ई. में राजपूताना और बुंदेलखंड अकाल के शिकार हुए। इसमें कम आदमी मरे, फिर भी यह संख्या एक लाख से कम नहीं थी। (६) १८७३-७४ ई. में बंगाल और बिहार में पुनः अकाल पड़ा, जिसमें लोग भारी संख्या में मरे। (७) १८७६-७८ ई. का अकाल तो समस्त भारत में पड़ा, जिसके फलस्वरूप अकेले ब्रिटिश भारत में ५० लाख व्यक्ति मरे। (८) १८९६-१९०० ई. में दक्षिणी, मध्य और उत्तरी भारत में अकाल पड़ा जिसमें साढ़े सात लाख व्यक्ति मरे। (९) १९४२ ई. में ब्रिटिश सरकारकी 'सर्वक्षार' नीति, व्यापारियों की धनलिप्सात्मक जमाखोरी तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार के कारण बंगाल में अकाल पड़ा, जिसमें लगभग १५ लाख व्यक्ति मरे।
अकाल आयोग
१८८० ई. में वाइसराय लार्ड लिटन द्वारा सर रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में स्थापित। इसी आयोग की सिफारिश पर 'अकाल संहिता' की रचना की गयी थी। १८९७ ई. में वाइसराय लार्ड एलगिन ने सर जेम्स लायल की अध्यक्षता में पुनः एक अकाल आयोग की स्थापना की। द्वितीय आयोग ने प्रथम आयोग द्वारा निर्धारित सिद्धान्तों का समर्थन किया और अकाल सहायता योजना के विस्तृत कार्यान्वयन में परिवर्तन कर दिया। १९०० ई में वाइसराय लार्ड कर्जन ने सर ऐण्टोनी मैकडानल की अध्यक्षता में तृतीय अकाल आयोग की स्थापना की। इसने भी प्रथम आयोग के सिद्धान्तों का समर्थन किया और यह सिफारिश की कि सहायता कार्यवाले क्षेत्र के लिए सहायता-आयुक्त नियुक्त किया जाय तथा दूरस्थ क्षेत्रो में केन्द्र की ओर से काम की व्यवस्था करने की अपेक्षा सार्वजनिक हित के स्थानीय कार्यों में अकाल पीड़ितों को लगाकर वस्तु-वितरण किया जाय। यह भी सिफारिश की गयी कि अकाल सहायता कार्य में गैर-सरकारी संस्थाओं का अधिकाधिक सहयोग लिया जाय, कृषि बैंक खोले जायें, खेती के विकसित तरीके अपनाये जायें और सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जाय। इन सिफारिशों को स्वीकार किया गया और सरकार ने उनपर अमल किया।
अकाल प्रतिवेदन (१८८० ई.)
सर रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में नियुक्त अकाल आयोग द्रारा प्रस्तुत। प्रतिवेदन में सर्वप्रथम यह मौलिक सिद्धान्त निर्धारित किया गया कि अकाल के समय पीड़ितों को सहायता देना सरकार का कर्तव्य है। इस सिद्धान्त के अनुसार काम करने योग्य व्यक्तियों को काम देकर सहायता पहुँचाना तथा कमजोर और बूढ़े लोगों को अन्न एवं धन से सहायता देना उचित बताया गया। यह भी कहा गया कि सहायता के रूप में जो काम कराया जाय, वह स्थायी हो और इतना बड़ा हो कि उक्त क्षेत्र के सभी जरूरतमंद लोगों की आवश्यकता की पूर्ति हो सके। बड़ी योजनाओं पर काम करने हेतु दूर भेजने के लिए जो लोग योग्य न हों, उन्हें तालाबों की खुदाई अथवा पुलिया आदि बनाने के स्थानीय काम में लगाया जाय। सहायता के रूपमें दिया जानेवाला काम तत्काल आयोजित किया जाय और भूखमरी से शक्ति घटने के पहले ही अकालपीड़ितों को काम और अन्न प्राप्त हो जाय। लगान स्थगित अथवा साफ करके बीज एवं कृषि यन्त्र खरीदने के लिए अग्रिम धन देकर अकालपीड़ितों की अतिरिक्त एवं सामान्य सहायता की जाय। सहायता वस्तु की छीजन तथा फिजूल-खर्ची रोकने के लिए सहायता व्यय का मुख्य भार अकाल पीड़ित क्षेत्र की स्थानीय सरकार को उठाना चाहिए और केन्द्रीय सरकार केवल स्थानीय स्रोतों में योगदान देने का काम करे। सहायता का वितरण गैर-सरकारी प्रतिनिधि संस्थाओं के माध्यम से हो। प्रतिवेदन में यह भी सिफारिश की गयी कि अकाल सहायता एवं बीमाकोष की स्थापना के लिए प्रतिवर्ष डेढ़ करोड़ रुपया अलग कर दिया जाया करे जिससे अकाल के समय आवश्यकता पड़ने पर धन लिया जा सके।
अकाल संहिता
अकाल आयोग (१८८० ई.) की सिफारिशों के आधार पर १८८३ ई. में तैयार की गयी। इस संहिता में खाद्याभाव का पता लगाने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गयी थी, जिसके द्वारा पहले अभाव की स्थिति और बाद में अकाल की स्थिति घोषित की जा सके। सिद्धान्त यह माना गया कि जैसे ही अभाव की स्थिति घोषित हो, वैसे ही रेलवे और जहाजों द्वारा तत्काल अधिक अन्नवाले क्षेत्रों से अकालग्रस्त क्षेत्रों को अनाज भेजा जाय, जिससे अकालपीड़ित लोगों को अविराम खाद्यन्न मिलता रहे। साथ ही काम करने लायक लोगों को काम दिया जाय। ऐसा कहा गया है कि अकाल संहिता भी अकाल को रोकने में विफल सिद्ध हुई। किन्तु इसमें संदेह नहीं कि विज्ञान के नये स्रोतों और आयोजनाओं से अकाल की विभीषिका को कम करने में सहायता मिली।
अकाल सहायता और बीमा कोष
१८८० ई. के अकाल आयोग की सिफारिशों के अनुसार स्थापित।
अकविवा, फादर रिदांल्फो
गोआ में धर्मप्रचार करनेवाला जेसुइट सम्प्रदाय का पादरी। सितम्बर १५७९ ई. में बादशाह अकबर की प्रार्थना पर उसको और पादरी मोंसेरेत को गोआ की पुर्तगाली सरकार ने अकबर के दरबार में फतेहपुर सीकरी भेजा था। ये दोनों पादरी फरवरी १५८० ई. में फतेहपुर सीकरी पहुँचे जहाँ बादशाह ने उनका सम्मानपूर्वक स्वागत किया। अकविवा बड़ा विद्वान् था और बादशाह अकबर उसका बड़ा सम्मान करता था। वह अकबर के दरबार में काफी समय तक रहा।
अगलस्सोई
सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्ध नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहनेवाला एक गण। सिकंदर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था तो इस गण के लोगों से उसका मुकाबला हुआ। अगलस्सोई गण की सेना में ४० हजार पैदल और तीन हजार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकंदर के छक्के छुड़ा दिये लेकिन अन्त में वे पराजित हो गये। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के २० हजार आबादीवाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गये, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। (अगलस्सोई की पहचान पाणिनि के व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणयःसे की जाती है।-सं.)
अगाथोक्लिस
भारत का एक यवन राजा जो तक्षशिला के क्षेत्र में (१९०-१८० ई. पू. ) राज्य करता था। उस क्षेत्र में उसके कुछ सिक्के भी पाये हैं जिनमें उसका नाम यूनानी और प्राकृत दोनों भाषाओं में अंकित है।