हरिहर और कुक्क (राय) का पिता। इन दोनों भाइयों ने ही १३३६ ई. में विजयनगर राज्य की स्थापना की थी। (दे. विजयनगर)
संग्राम सिंह (राणा साँगा)
वायमल्ल का पुत्र और उत्तराधिकारी। इतिहास में वह मेवाड़ का राजा साँगा के नाम से प्रसिद्ध था, जिसने १५०८ से १५२९ ई. तक शासन किया। संग्राम सिंह महान् योद्धा था और तत्कालीन भारत के समस्त राज्यों में ऐसा कोई भी उल्लेखनीय शासक न था जो उससे लोहा ले सके। बाबर के भारत आक्रमण के समय राणा साँगा को आशा भी कि वह भी तैमूर की भाँति दिल्ली के लूट-पाट करने के उपरान्त स्वदेश लौट जायेगा। किन्तु जब उसने देखा कि १५२६ ई. में इब्राहीम लोदी को पानीपत के युद्ध में परास्त कर बाबर दिल्ली में शासन करने लगा है तो वह अपने १२० सहायक सामन्तों, ८० हजार अश्वरोहियों और ५०० हाथियों की विशाल सेना लेकर युद्ध के लिए चल पड़ा। १६ मार्च १५२७ ई. को खनुआ नामक स्थान पर बाबर से उसका घमासान युद्ध हुआ। यद्यपि इस युद्ध में राजपूतों ने अत्यधिक वीरता दिखायी, तथापि वे बाबर द्वारा पराजित हुए। इस युद्ध में राणा साँगा जीवित तो बच गये, किन्तु पराजय के आघात से दो वर्ष उपरांत ही उनकी मृत्यु हो गयी और भारतवर्ष में हिन्दू राज्य स्थापित करने का उसका स्वप्न भंग हो गया।
संघ
इस शब्द का प्रयोग बहुधा बौद्ध भिक्षु संघ के लिए होता है। भिक्षु संघ की गणना बौद्धधर्म के त्रिरत्नों (यथा बुद्ध, धर्म तथा संघ) में होती है। गौतम बुद्ध ने भिक्षु संघ का संगठन प्रजातान्त्रिक आदर्शों पर किया था।
संघमित्रा
राजकुमार महेन्द्र (दे.) की भगिनी। उत्तर भारत की बुद्ध अनुश्रुतियों के आधार पर महेन्द्र को मौर्य सम्राट् अशोक का भाई माना गया है, यद्यपि सिंहली ग्रंथों और अनुश्रुतियों में संघमित्रा और महेन्द्र भाई-बहिन तथा अशोक की शाक्य रानी विदिशा देवी से उत्पन्न कहे गये हैं। सिंहली ग्रंथों के अनुसार महेन्द्र बौद्ध भिक्षुओं के एक दल का नेतृत्व करता हुआ श्रीलंका गया और वहाँ के सभी निवासियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। संघमित्रा भी महेन्द्र के साथ बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में सहयोग देने के लिए श्रीलंका गयी थी। उसने भी वहाँ के राजा तिष्य से समस्त परिवार के साथ ही अन्य स्त्रियों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। आज भी लंका में उसका नाम आदर के साथ लिया जाता है।
संप्रति
कुणाल का पुत्र और सम्राट् अशोक का पौत्र। यद्यपि अभिलेखों में उसका कहीं उल्लेख नहीं है परन्तु प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार अपने पितामह अशोक के उपरान्त कुणाल के अंधे होने के कारण वही सिंहासनासीन हुआ। वह जैनमतानुयायी था। कदाचित उसने सम्राट् अशोक के साम्राज्य के पश्चिमी भू-भागों पर ही राज्य किया। इस प्रदेश में उसे अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराने का श्रेय दिया जाता है।
संवत्, प्राचीन भारतीय
अनेक हैं, जिनमें से कोई भी किसी भी काल में सम्पूर्ण भारत में प्रचलित नहीं रहा। बहुत से राजाओं ने अपने राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में अपने नाम से नये संवत् प्रचलित किये। फलस्वरूप यह समझना कठिन है कि कौन संवत् ठीक-ठीक किस समय चला और किसने चलाया। फलतः किसी भी भारतीय संवत् की वास्तविक गणना तब हो पाती है जब उसमें उल्लिखित किसी घटना के सम्बन्ध में ईसवी सन् का भी कहीं उल्लेख मिल जाता है। प्राचीन मुख्य संवत् ये थे :
(१) कलियुग अथवा युधिष्ठिर संवत्, जो ईसा पूर्व ३१०२ से प्रारम्भ माना जाता है। यह संवत् प्रागैतिहासिक है और इसका प्रयोग केवल प्राचीन साहित्य में मिलता है। (२) विक्रम संवत्, जिसे सानन्द विक्रम संवत् अथवा संवत् विक्रम अथवा श्रीनृप विक्रम संवत् अथवा मालव संवत् भी कहा गया है और इसका प्रारंभ ५० ईसा पूर्व से माना जाता है। इसका कौन प्रवर्तक था और किस घटना की स्मृति में चलाया गया, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। (३) आनन्द विक्रम संवत् ३३ ई. में किसी अज्ञात शासक द्वारा चलाया गया। (४) शक संवत् अथवा शकाब्द संभवतः कुषाण वंश के राजा कनिष्क प्रथम द्वारा ७८ ई. में चलाया गया। (५) लिच्छवि संवत् १११ ई. में आरंभ किया गया। इसके प्रवर्तक का नाम भी अज्ञात है। (६) चेदि अथवा त्रकूटक कलचुरि संवत् २४८ ई. में शुरू किया गया। (७) गुप्त संवत् को गुप्त वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में ३१९-२० ई. में प्रचारित किया। (८) हूण संवत् तोरमाण ने सन् ४४८ ई. में प्रारम्भ किया और अपने सिक्कों में प्रयुक्त किया। (९) हर्ष संवत् को महाराज हर्षवर्धन ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में ६०६ ई. में प्रचारित किया। (१०) कालम् अथवा मलाबार संवत् का आरम्भ ८२४ ई. से माना जाना है, जिसका प्रयोग चेर अथवा केरल के राजा करते थे। (११) नेपाली संवत् का आरम्भ ८७९ ई. से माना जाता है। (१२) विक्रमांक चालुक्य संवत् को चालुक्य नरेश विक्रमांक (दे.) ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में सन् १०७६ ई. में चलाया था। (१३) लक्ष्मण संवत् को बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन ने ११९० ई. में प्रचलित किया था। (कनिंघम रचित वुक आफ इण्डियन एराज; ज. रा. ए. सो. १९१३, पृष्ठ ६२७; कीलहार्न का लेख, ई. ए., खंड २०, (१८९१) तथा बनर्जी. पृष्ठ ४६५-७२)।
संविधान सभा
दे., 'भारतीय संविधान सभा'।
संसदीय घोषणाएं
भारत के संवैधानिक विकास के विभिन्न चरणों की सूचक, जिनकी अन्तिम परिणति स्वाधीनता के रूप में हुई। प्रथम संसदीय घोषणा २० अगस्त १९१७ ई. को तत्कालीन भारतमंत्री एडविन माण्टेगू द्वारा हुई, जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार की नीति, जिससे भारत सरकार पूर्णतः सहमत है, यह है कि ब्रिटिशः साम्राज्य के अखंड भाग के रूप में भारत में उत्तरदायी शासन की क्रमिक स्थापना के उद्देश्य से प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिकाधिक स्थान दिया जाय और स्वशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास किया जाय। इस घोषणा के बाद १९१७-१८ ई. में माण्टेगू ने भारत का दौरा किया और १९१९ ई. में ब्रिटिश सरकार ने नया भारतीय शासन विधान पास कर दिया। इस संविधान के अन्तर्गत प्रान्तों में द्वैध शासन (आंशिक उत्तरदायी सरकार तथा निर्वाचित विधानसभाएँ) और केन्द्र में आंशिक निर्वाचित केन्द्रीय विधान सभा की स्थापना की गयी। इस प्रकार भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की शुरूआत हुई।
दूसरी महत्त्वपूर्ण घोषणा अक्तूबर १९२९ ई. में हुई, जिसमें कहा गया कि भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक लक्ष्य देश में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना है। इस घोषणा के परिणामस्वरूप भारतीय शासन विधान, १९३५ ई. स्वीकृत किया गया, जिसमें केन्द्र में संघीय उत्तरदायी शासन तथा प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना की व्यवस्था की गयी।
तृतीय एवं अंतिम घोषणा ३ जून १९८४ ई. को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने हाउस आफ कामन्स में की, जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता को यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र सत्ता सौंप देने का निश्चय किया है। इस घोषणा के फलस्वरूप भारतीय स्वाधीनता अधिनियम (१९४७ ई.) बना जो १५ अगस्त १९४७ ई. से लागू हुआ और भारतीय स्वाधीनता का कानूनी आधार बना।
संस्कृत
हिन्दुओं की प्राचीन भाषा। इसका अपना विशाल साहित्य-भंडार है, जिसमें ज्ञान की समस्त शाखाओं पर रचना हुई है। इसका व्याकरण वैज्ञानिक आधार पर निर्मित है। संस्कृत प्राचीन भारतकी राजभाषा भी थी। यद्यपि अशोक ने अपने अभिलेखों में इसका प्रयोग नहीं किया, किन्तु बाद के युगों में संस्कृत की प्रधानता पुनः स्थापित हो गयी और भारत के कई विदेशी शासकों ने भी अपनी उपलब्धियों को उत्कीर्ण कराने में इसी भाषा का प्रयोग किया। प्राचीन काल में देश की एकता बनाये रखने की इस भाषा में महान् शक्ति थी। आज दिन भी सम्पूर्ण देश के हिन्दुओं में पूजा, उपासना और कर्मकांडों के मंत्रों में इसी देवभाषा का प्रयोग होता है। साधारणतया इसे देवनागरी लिपि में लिखा जाता है, किन्तु इसे भारत की अन्य क्षेत्रीय लिपियों में भी लिखा और पढ़ा जाता है। भारत से बाहर मलयद्वीप समूह, कम्बोडिया तथा अनाम आदि देशों में उपनिवेश स्थापित करनेवाले भारतीयों ने इसे समुद्र के पार भी प्रतिष्ठित किया, जहाँ स्थानीय शासकों की यशोगाथाओं को अंकित करने के हेतु अभिलेखों में इसका प्रयोग हुआ है।
संस्कृत कालेज
ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा सर्वप्रथम १७९४ ई. में वाराणसी में संस्कृत कालेज की स्थापना हुई। इसके बाद १८२० ई. में दूसरा संस्कृत कालेज कलकत्ता में स्थापित हुआ।