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Bharatiya Itihas Kosh

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टाटा परिवार
जीजीभाई जमशेदजी टाटा (१७८३-१८५९ ई.) से यह वंश प्रचलित हुआ। जीजीभाई का जन्म बड़ौदा राज्य के नौसारी गाँव में बहुत ही गरीब पारसी परिवार में हुआ था। अपने परिश्रम, उत्साह तथा व्यावसायिक कुशाग्रता के कारण वे बहुत बड़े व्यवसायी बन गये। इसी सिलसिले में वे चीन गये। उन्होंने २८ वर्ष के अन्दर व्यावसायिक पेशे में दो करोड़ रूपये एकत्र किये। वे बड़े उदार तथा परोपकारी थे, दातव्य संस्थाओं के संस्थापन हेतु ५० लाख रुपयों का वृत्तिदान (स्थिरदान) उन्होंने बम्बई नगर में किया था। उनके पुत्र जमशेदजी ने १८५८ ई. से व्यवसाय का प्रबन्धाधिकरण (व्यवस्थापन) किया और धन सम्पन्नता तथा गतिविधियों की अभिवृद्धि में सफल योगदान किया। अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान उन्होंने भारत से अमरीका, कच्चे सूत का निर्यात करके लाखों रूपये पैदा किये। वे इंग्लैण्ड गये। मैनचेस्टर में वस्त्र विनिर्माण उद्योग का अध्ययन किया और १८८७ ई. में इम्प्रेस कॉटन मिल तथा टाटा स्वदेशी मिल की नींव डाली। लोनावाला में उन्होंने जलविद्युत परियोजना का श्रीगणेश किया। उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी--संकची (वर्तमान जमशेदपुर) में टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी का संस्थापन, जिसने १९०७ ई. से उत्पादन कार्य प्रारम्भ कर दिया। आज वह संसार के सबसे बड़े इस्पात कारखानों में से एक है। अपने पिता की भाँति जनकल्याण के लिए उन्होंने बहुत धन दिया किन्तु इनके वृत्तिदान बड़े उद्देश्यपूर्ण थे। इन्होंने दो ऐसी छात्रवृत्तियाँ प्रदान कीं जिनसे दो भारतीय विद्यार्थी यूरोप में पौद्योगिकी (टेकनॉलोजी) का अध्ययन कर सकें। अपने पीछे बंगलोर टाटा साइंटिफिक रिसर्च इंस्टीट्यूट के निमित्त स्थिरदान के लिए उन्होंने अपार धन छोड़ा, जो उनकी मृत्यु के उपरान्त स्थापित हुआ।
टाटाओं ने उद्योगों का पुनरुत्थान करके भारत के औदयोगिक विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया। नवीन उद्योगों एवं कारखानों को स्थापित करके उन्होंने अनुसंधान के लिए मार्गदर्शन किया।

टाल्मी फिलेडेल्फस
मिस्र का यवन (यूनानी) राजा (२८५ ई. पू.- २४७ ई.पू.)। उसने डायोनीसियस को अपना दूत बनाकर मौर्य सम्राट् बिन्दुसार (दे.) की राज सभा में भेजा था। उसका उल्लेख अशोक (दे.) के शिलालेख संख्या १३ में हुआ है। अशोक ने धर्मविजय के लिए बौद्ध भिक्षुओं को उसके राज्य में भी भेजा था।

टीपू सुलतान
मैसूर के हैदरअली का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। अप्रैल १७८३ ई. में अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने मैसूर का सिंहासन ग्रहण किया। उस समय भारत में स्थित अंग्रेजों के साथ मैसूर का युद्ध चल रहा था। अपने पिता की भाँति टीपू वीर तथा युद्धप्रिय था। उसने युद्ध जारी रखा और ब्रिगेडियर मैथ्यूज की सेना को परास्त किया और उसे बंदी बनाया। उसने मार्च १८८४ ई. में अंग्रेजों को मंगलोर की संधि करने के लिए विवश किया। इस संधि के द्वारा दोनों ने एक दूसरे के जीते इलाके लौटा दिये। किन्तु यह संधि अस्थायी सिद्ध हुई, फिर पांच वर्ष बाद अंग्रेजों और मैसूर के बीच तीसरा युद्ध प्रारंभ हो गया। यद्यपि इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ निजाम तथा मराठा दे रहे थे, तथापि टीपू ने पर्याप्त रणकौशल एवं शौर्य प्रदर्शित किया, परन्तु अन्त में १७९२ ई. में उसे श्रीरंगपट्टम् की संधि करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस संधि के द्वारा टीपू को विजेता मित्रों के लिए अपना आधा राज्य, तीन करोड़ रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में और अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेजों के हाथों सौंपना पड़ा। टीपू सुलतान इस अपमान पूर्ण पराजय से उद्विग्न और क्षुब्ध बना रहा। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध शक्ति-संचय जारी रखा, क्योंकि वह समझता था कि अंग्रेजों से अन्तत: युद्ध होना अनिवार्य है। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता-प्राप्ति की आशा से अपने दूतों को अरब, काबुल, कुस्तुनतुनियाँ, फ्रांस तथा मारिशस के फ्रांसीसी उपनिवेश में भेजा, परन्तु मारिशस के अतिरिक्त किसी भी देश ने उसका उत्साहवर्धन नहीं किया। उधर अप्रैल १७९८ ई. में लार्ड वैलेजली गवर्नर-जनरल के रूप में भारत आया। वह टीपू के शत्रुतापूर्ण मंतव्य से परिचित होने के कारण उसके विरुद्ध युद्ध करने के लिए उद्यत हो गया। उसने टीपू को अंग्रेजों का आश्रित होने के लिए आमंत्रित किया और उसके द्वारा यह प्रस्ताव ठुकरा दिये जाने पर उसने निजाम और मराठों के साथ त्रिपक्षीय संधि करके मार्च १७९९ में टीपू के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी। टीपू ने बड़ी वीरता से युद्ध किया. परन्तु भाग्य उसके विरुद्ध था। तीनों मित्र सेनाओं ने तीन विभिन्न दिशाओं से श्रीरंगपट्टम् की ओर प्रस्थान किया और राजधानी पर घेरा डाल दिया, टीपू ने अभूतपूर्व साहस के साथ राजधानी की रक्षा की। वह श्रीरंगपट्टम् के प्राचीरों के सामने लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। वस्तु, अंग्रेजों ने मई १७९९ ई. में राजधानी पर अधिकार कर लिया। भारतीय इतिहास में उसका एक विलक्षण व्यक्तित्व था। विद्वेष से कुछ तात्कालिक अंग्रेज इतिहासकारों की दृष्टि उसके प्रति इतनी कलुषित हो गयी थी कि उन्होंने टीपू को एक धर्मान्ध क्रूरशासक वर्णित किया है। किन्तु ये सभी आरोप निराधार हैं। वह इतना सुयोग्य शासक था कि युद्धों से ग्रस्त रहने पर भी उसने मैसूर को एक श्रीसम्पन्न राज्य बना दिया। वह धर्मान्ध नहीं था और साधारणतः उसने अपनी हिन्दू प्रजा के साथ सद्भावना एवं सहिष्णुता का व्यवहार किया। वह एक दूरदर्शी राजनेता था और यदि उसे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने में सफलता नहीं मिली तो इसमें उसका दोष नहीं था। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वही एकमात्र ऐसा भारतीय शासक था जिसने किसी भारतीय शासक के विरुद्ध चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अंग्रेजों के साथ गठबन्धन नहीं किया, यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय शासकों का व्यवहार उसके प्रति आक्रोशपूर्ण रहा। (विल्कीज तथा एम. एच. खान कृत 'हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान')

टुकरोई का युद्ध
यह युद्ध १५७५ ई. में उड़ीसा के बालासोर जिले में हुआ था, जिसमें मुनिम खां के नेतृत्व में अकबर की मुगल सेना ने बंगाल के अफगान शासक दाऊद को परास्त किया और उसे फिर शर्त के साथ छोड़ दिया गया। किन्तु १५७६ ई. के दूसरे युद्ध में वह परास्त हुआ और मार डाला गया।

टेरी एडवर्ड
एक पादरी, जो सर थामस रो (दे.) के साथ मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में आया था। उसने अपनी भारतयात्रा का विवरण लिखा है। उसका ग्रन्थ 'वायज टू ईस्ट इण्डिया' तत्कालीन भारत की घटनाओं तथा लोगों के विषय में जानकारी हासिल करने का प्रमुख साधन है।

टैरिफ बोर्ड
१९२३ ई. में भारतीय उद्योगों की सुरक्षा तथा नये उद्योगों के पोषण के लिए गठित। लोहा, कपड़ा, शक्कर और सीमेण्ट उद्योगों को संरक्षण देकर इस बोर्ड ने अच्छा कार्य किया, जिसके परिणामस्वरूप ये उद्योग फूले-फले।

टोडरमल, राजा
अकबर बादशाह का वित्तमन्त्री, जो राजा की उपाधि से सम्मानित किया गया था। वह पंजाब के लाहौर नगर (अब पाकिस्तान) में एक साधारण परिवार में उत्पन्न हुआ और १५७३ ई. में अकबर के दरबार में आया। १५७३ ई. में जब अकबर ने गुजरात पर विजय प्राप्त की, तब टोडरमल को मालगुजारी का बन्दोबस्त करने के लिए वहां नियुक्त किया गया। उसने जमीन नापने की समरूप प्रणाली सर्वप्रथम प्रचलित की, उर्वरता के आधार पर जमीन का वर्गीकरण किया तथा लगान की दर फसल की एक तिहाई निर्धारित की, जो किसान से सीधे वसूल की जाती थी। बाद में यह व्यवस्था कुछ स्थानीय परिवर्तनों के साथ पूरे मुगल साम्राज्य में लागू कर दी गयी। टोडरमल अच्छा सेनानायक भी था, १५७६ ई. में उसने बंगाल विजय किया, १५८० ई. में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा का सूबेदार बनाया गया। वह ईमानदार, निर्लोभी और सुयोग्य राजसेवक था।

टोपरा
पंजाब में अम्बाला के निकट स्थित। यहाँ अशोक का एक स्तम्भ था, जिसपर उसके सप्त शिलालेखों की एक प्रति उत्कीर्ण थी। इस स्तम्भ को सुलतान फीरोजशाह तुगलक (दे.) दिल्ली उठवा कर ले आया, जहाँ यह अब भी विद्यमान है और फीरोजशाह की लाट के नाम से प्रसिद्ध है। (अफीफ-ए-सिराज, 'तारीख-ए-फिरोजशाही')

टोल
देशी संस्कृत विद्यालय, जो अध्यापकों के घरों में स्थित थे। प्राचीन हिन्दू शिक्षा-व्यवस्था के अनुसार अध्यापकगण इन संस्कृत पाठशालाओं को अपने खर्च से चलाते थे। इनमें प्रवेश पानेवाले विद्यार्थियों को वे स्‍थान, भोजन, वस्त्र उपलब्ध कराते थे। अध्ययन और अध्यापन का समय विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के सुविधानुकूल रखा जाता था। इस शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत अध्यापक और विद्यार्थी का घनिष्ठ सम्पर्क रहता था और विद्यार्थी को विद्या-प्राप्ति के लिए कोई धन नहीं देना पड़ता था। चूंकि विद्यार्थी के भरण-पोषण का भार अध्यापक पर रहता था, इसलिए उनका चुनाव भी उसकी इच्छा पर निर्भर करता था। इन पाठशालाओं में विद्याध्ययन के लिए अधिकांशतया ब्राह्मणों के बालक प्रवेश करते थे। अन्य वर्णों के मेधावी विद्यार्थियों को भी इनमें प्रवेश मिलता था, किन्तु अपने भोजन का प्रबंध उन्हें स्वयं करना पड़ता था। इन पाठशालाओं का खर्च निकालने में अध्यापकों को काफी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय जमींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर करना पड़ता था। फिर भी शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद प्रत्‍येक ब्राह्मण विद्यादान करना अपना पवित्र कर्तव्य मानता था, इसलिए वह अपने घर पर एक टोल की स्थापना अवश्य करता था। इन टोलों में व्याकरण, साहित्य, स्मृति, न्याय और वेदांत अथवा दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। कुछ टोलें अब भी विद्यमान हैं और कुछ को सरकार से अब मासिक अनुदान प्राप्त होता है।

टाकुर सत्येन्द्रनाथ (१८४२-१९२३)
इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा में उत्तीर्ण होनेवाले प्रथम भारतीय। इनका जन्म कलकत्ता में हुआ था। ये देवेन्द्रनाथ टैगोर (दे.) के द्वितीय पुत्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर के अग्रज थे। १८६४ ई. में उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया और बम्बई प्रांत में नियुक्त किये गये। उन दिनों सरकारी नौकरी में भारतीयों को ऊंचे उठने का बहुत कम अवसर दिया जाता था। इस कारण अवकाश-प्राप्ति के समय तक वे केवल जिला तथा सेशन जज के पद तक ही उन्नति कर सके। वे कवि और साहित्यकार भी थे। बंगला भाषा में उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं।


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