देवगिरि के यादव शासक रामचन्द्र देव का उत्तराधिकारी। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को नियमित रूप से कर न दे सकने के कारण सुल्तान की सेनाओं ने १३१२ ई. में उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। शंकरदेव पराजित हुआ और मारा गया। तदुपरान्त उसका राज्य दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया गया।
शंकरदेव
आसाम के विख्यात वैष्णव धर्म-सुधारक। जन्म लगभग १४४९ ई. में और मृत्यु १५७९ ई. में हुई। उन्होंने जन-साधारण में वैष्णव धर्म के उदात्त रूप का प्रचार किया तथा तत्कालीन आसाम में अत्यधिक प्रचलित हिंसात्मक यज्ञों एवं बलि प्रथा के स्थान पर भक्ति की धारा बहायी। उन्हें कूच बिहार के शासक नर-नारायण (दे.) का संरक्षण प्राप्त था। फलतः उन्होंने बड़पेटा को ही अपना केन्द्र बनाया। आसाम प्रदेश में उनके द्वारा प्रचारित भक्ति मार्ग ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की। शंकरदेव उच्च कोटि के कवि और नाटककार भी थे। उनके गीत और नाटक आज भी आसाम में अत्यधिक लोकप्रिय हैं।
शंकराचार्य
उत्तर गुप्त काल के सबसे महान् दार्शनिक हैं। जन्म दक्षिण भारत के कालटी नामक ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में आठवीं शताब्दी में। वे उपनिषदों, भगवद्गीता तथा बादरायण के ब्रह्म-सूत्रों पर रचे गये अपने भाष्य के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने बादरायण के ब्रह्मसूत्र के ही आधार पर अपन अद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। अपने सिद्धान्तों के प्रतिपादनार्थ उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। वे महान् संगठनकर्ता भी थे। उन्होंने मैसूर में शृंगगिरि, काठियावाड़ में द्वारका, उड़ीसा में जगन्नाथपुरी और हिमालय में बद्रीनाथ के प्रसिद्ध पीठों की स्थापना की। ये चारों पीठ अब भी विद्यमान हैं तथा लाखों हिन्दुओं को धार्मिक प्रेरणा देते हैं। अल्पायु में ही उनका देहान्त हो गया, परन्तु आज भी हिन्दू समाज उनका स्मरण बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ करता है।
शम्भुजी, राजा
शिवाजी प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी, जिसने १६८० से १६८९ ई. तक राज्य किया। उसमें अपने पिता की कर्मठता और दृढ़ संकल्प का अभाव था। वह विलासप्रिय था किन्तु उसमें शौर्य की कमी न थी। लगभग ९ वर्षों तक वह निरन्तर औरंगजेब की विशाल सेनाओं का सफलतापूर्वक सामना करता रहा। अपनी गलती से रत्नगिरि के निकट संगमेश्वर नामक स्थल पर वह अपने मंत्री कुलश सहित ११ फरवरी १६८९ ई. को मुगलों द्वारा बन्दी बना लिया गया। लगभग एक मास उपरान्त औरंगजेब ने निर्दयतापूर्वक उसका वध करवा डाला।
शम्भुजी काबजी
शिवाजी प्रथम का विश्वासपात्र अनुचर। जब शिवाजी अफजल खाँ से भेंट करने गये थे तब वह उनके साथ था। भेंट के समय जब शिवाजी ने अफ़जल को बघनखा से सांघातिक रूप से घायल कर दिया, तभी शम्भुजी काबजी ने उसका सिर काट लिया।
शक
मध्य एशिया के निवासी यायावर जाति के लोग। दूसरी शताब्दी ई. पू. में युइशि कबीले के लोगों द्वारा मध्य एशिया से निष्कासित होने पर दक्षिण की ओर भागने के लिए विवश हुए। उहोंने कई झुण्डों में भारत में प्रवेश किया और प्रथम शताब्दी ई. पू. के अंत तक वे गंधार, पंजाब, मथुरा, कठियावाड़ और दक्षिण में महाराष्ट्र तक के भू-भागों में फैल गये। शक शासकों ने 'क्षत्रप' और 'महाक्षत्रप' (दे.) की उपाधियाँ धारण कीं और प्रारंभ में वे पार्थियन शासकों तथा उपरांत कुषाणों (दे.) की सार्वभौम सत्ता स्वीकार करते रहे। भारतीय ग्रंथकारों ने प्रारंभ में उनकी गणना विदेशियों तथा यवनों में की, किन्तु उपरांत शक लोग स्थानीय हिन्दू समाज में पूर्णतया घुलमिल कर भारतीय हो गये। पश्चिमी भारत में शकों ने शताब्दियों तक राज्य किया। काठियावाड़ तथा उज्जैन के आसपास के क्षेत्र उनके अधिकार में रहे। अंतिम शक क्षत्रप रुद्रसिंह तृतीय को गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने लगभग ३८८ ई. में परास्त कर शक सत्ता का अन्त कर दिया।
शक संवत्
इसका प्रारंभ ७८ ई. माना जाता है। साधारणतया कुषाण शासक कनिष्ठ प्रथम को ही इस संवत् को चलाने का श्रेय प्राप्त है, पर कुछ विद्वानों ने इस मत की आलोचना की है और उसे किसी अन्य शासक द्वारा चलाया गया माना है। फिर भी समस्त व्यवहृत भारतीय संवतों (दे.) में शक संवत् अत्यधिक प्रचलित रहा है और भारतीय गणतंत्र ने इसे ही राष्ट्रीय संवत् के रूप में स्वीकार किया है।
शकुंतला नाटक (मूल नाम-अभिज्ञान शाकुन्तल)
महाकवि कालिदास (दे.) द्वारा रचित ख्यातिलब्ध नाटक। महाकवि गेटे तथा अन्य पाश्चात्य विद्वानों ने इस नाटक की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और इसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक माना है।
शत्रुंजय
गुजरात का एक प्रसिद्ध नगर। यहाँ दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में चालुक्य वंश के शासकों द्वारा निर्मित अनेक भव्य जैन मंदिर हैं।
शम्सुद्दीन (कश्मीर का सुल्तान)
सूरत का निवासी एक साहसी व्यक्ति। उसका प्रारंभिक नाम शाह मिर्जा या शाहमीर था। उसने कश्मीर जाकर वहाँ के हिन्दू शासक के यहाँ नौकरी कर ली। बाद में वह पदोन्नति करके मंत्री बन गया और लगभग १३४६ ई. में वहाँ के हिन्दू शासक को सिंहासन से उतारकर कश्मीर का शासक बन बैठा। उसने १३४९ ई. में अपनी मृत्युपर्यन्त बड़ी कुशलता से शासन किया और उसी से कश्मीर में मुसलमान सुल्तानों के उस वंश की शुरुआत हुई, जिसने १५८६ ई. में अकबर द्वारा कश्मीर जीत लेने तक वहाँ राज्य किया।