बंगाल प्रांत पर सोलहवीं शताब्दी में शासन करनेवाले बारह भूमियाँ लोगों में से एक। उसका इलाका चंद्रद्वीप कहलाता था जो आधुनिक वाकरगंज जिले के समतुल्य था। वाकरगंज अब बंगला देश में है। दीर्घकालीन प्रतिरोध के बाद उसे बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेनी पड़ी।
कंदहार (अथवा कंधार)
अफगानिस्तान का दूसरा बड़ा नगर। सामरिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत से अफगानिस्तान जानेवाली रेलवे लाइन यहीं पर समाप्त होती है। यह नगर महत्त्वपूर्ण मंडी भी है। पूर्व से पश्चिम को स्थलमार्ग से होनेवाला अधिकांश व्यापार यहीं से होता है। कंदहार में सोतों के पानी से सिंचाई की अनोखी व्यवस्था है। जगह-जगह कुएं खोदकर उनको सुरंग से मिला दिया गया है।
कंदहार का इतिहास उथल-पुथल से भरा हुआ है। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में यह फारस के साम्राज्य का भाग था। लगभग ३२६ ई. पू. में मकदूनिया के राजा सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करते समय इसे जीता और उसके मरने पर यह उसके सेनापति सेल्यूकस के अधिकार में आया। कुछ वर्ष बाद सेल्यूकस ने इसे चंद्रगुप्त मौर्य (दे.) को सौंप दिया। यह अशोक के साम्राज्य का एक भाग था। उसका एक शिलालेख हाल में इस नगर के निकट मिला है। मौर्यवंश के पतन पर यह बैक्ट्रिया, पार्थिया, कुषाण तथा शक राजाओं के अंतर्गत रहा।
दसवीं शताब्दी में यह अफगानों के कब्जे में आ गया और मुसलिम राज्य बन गया। ग्यारहवीं शताब्दी में सुल्तान महमूद, तेरहवीं शताब्दी में चंगेज खां तथा चौदहवीं शताब्दी में तैमूर ने इस पर अधिकार कर लिया। १५०७ ई. में इसे बाबर ने जीत लिया और १६२५ ई. तक दिल्ली के मुगल बादशाहों के कब्जे में रहा। १६२५ ई. में फारस के शाह अब्बास ने इस पर दखल कर लिया। शाहजहाँ और औरंगजेब द्वारा इस पर दुबारा अधिकार करने के सारे प्रयत्न विफल हुए। कंदहार थोड़े समय (१७०८-३७ ई.) को छोड़कर १७४७ ई. में नादिरशाह की मृत्यु के समय तक फारस के कब्जे में रहा। १७४७ ई. में अहमदशाह अब्दाली (दे.) ने अफगानिस्तान के साथ साथ इस पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु, उसके पौत्र जमानशाह (दे.) की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए कंदहार काबुल से अलग हो गया। 1839 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने शाहशुजा (दे.) की ओर से युद्ध करते हुए इस पर दखल कर लिया और 1842 ई. तक अपने कब्जे में रखा। ब्रिटिश सेना ने १८७९ ई. में इस पर फिर दखल कर लिया, किन्तु १८८१ ई. में खाली कर देना पड़ा। तबसे यह अफगानिस्तान के राज्य का एक भाग है।
कम्पनी-राज की सिविल सर्विस (बाद को 'इंडियन सिविल सर्विस' )
वह प्रशासकीय सेवा, जिसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में अपना प्रशासन चलाने के लिए चालू किया था। इसका आरम्भ अत्यन्त छोटे रूप में हुआ। व्यापारियों की संस्था के रूप में कम्पनी ने अपनी सेवा में अंग्रेज युवकों को लिपिक के पद पर नियुक्त किया। ये ब्रिटिश युवक आम तौर से डायरेक्टरों द्वारा मनोनीत होते और कम्पनी के शेयरहोल्डरों से रिश्तेदारी के आधार पर चुने जाते थे। उनकी उम्र २० वर्ष से कम होती। उन्हें स्कूली शिक्षा या तो बिल्कुल मिली ही न होती या बहुत कम मिली होती। उनका वेतन भी बहुत कम होता था। १७५७ ई. में पलासी युद्ध के बाद जब कम्पनी के आधिपत्य में भारत का काफी बड़ा क्षेत्र आ गया तो उसने नवविजित क्षेत्रों का प्रशासन अपने इन लिपिकों के सुपुर्द कर दिया। इन नवनियुक्त अफसरों ने जबरदस्त भ्रष्टाचार और बेईमानी शुरू कर दी, अतः कमपनी ने उनसे एक करार (कावेनेंट) पर हस्ताक्षर करने को कहा, जिसमें कम्पनी की सेवा ईमानदारी और सच्चाई के साथ करने का वचन मांगा गया था। इसी आधार पर अंग्रेजी में इस करारशुदा सेवा को 'कावेनेंटेड सिविल सर्विस' कहा जाने लगा। बंगाल में लार्ड क्लाइव के दूसरी बार के प्रशासनकाल में कम्पनी ने पहली बार अपने अफसरों को उक्त करार करने को बाध्य किया। अफसरों ने शुरू में तो इस नयी व्यवस्था का विरोध किया किन्तु अंततः उन्हें झुकना पड़ा। लार्ड कार्नवालिस के प्रशासनकाल में यह कावेनेंटेड सिविल सर्विस (करारवाली सिविल सेवा ) भारत में कम्पनी के प्रशासनतंत्र का एक नियमित अंग बन गयी।
लार्ड कार्नवालिस ने इस सेवा में सिर्फ अंग्रेजों को ही भर्ती किया और उनके वेतन भी काफी बढ़ा दिये। कम्पनी के अंतर्गत सभी महत्त्वपूर्ण सिविल पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति होती और जिला कलेक्टरों, मजिस्ट्रेटों, जजों के पदों पर तो जैसे उनका एकाधिकार हो गया। बाद को जब विभागीय सचिवों और राजनयिक एजेंटों के पद चालू किये गये तो उन पर भी अंग्रेजों की ही नियुक्ति की गयी। लार्ड वेलेस्ली ने कावेनेंटेड सिविल सर्विस के सदस्यों का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए एक निश्चित अवधि तक उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की। इसके लिए उसने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। किन्तु १८०५ ई. में यह कालेज बंद करना पड़ा, क्योंकि इसपर होनेवाले खर्च पर कम्पनी ने ऐतराज किया। इसके बाद के पचास वर्षों में कावेनेंटेड सिविल सर्विस के रंगरूटों को लंदन के हेलेबरी कालेज में प्रशिक्षण दिया जाता रहा। इनमें से कुछ रंगरूट तो वास्तव में अत्यन्त योग्य और सफल प्रशासक सिद्ध हुए, किन्तु सामान्य तौर से औसत सदस्यों में बहुत कमियाँ पायी जाती थीं, क्योंकि कावेनेंटेड सिविल सर्विस में कम्पनी के डायरेक्टरों द्वारा नामजद लोगों की भर्ती होती थी, जिन्हें योग्य प्रशासक बनने के लिए अपेक्षित शिक्षा बिल्कुल नहीं प्राप्त थी। फलतः स्वयं इंग्लैण्ड में ही यह मांग उठी कि सर्वोत्तम और सर्वाधिक मेधावी ब्रिटिश युवकों को ही प्रशासक बनाकर भारत भेजा जाना चाहिए।
अतः १८५३ ई. में कावेनेंटेड सिविल सर्विस में, जो अब 'इंडियन सिविल सर्विस' के नाम से पुकारी जाने लगी, प्रवेश सार्वजनिक प्रतियोगिता के माध्यम से सबके लिए खोल दिया गया। १८५५ ई. में लंदन में बोर्ड आफ कंट्रोल की देखरेख में पहली सार्वजनिक प्रतियोगिता हुई। सन् १८५८ से यह प्रतियोगिता सिविल सर्विस कमिश्नरों की देखरेख में होने लगी। इस प्रकार इंडियन सिविल सर्विस में सभी मेधावी ब्रिटिश युवकों के लिए प्रवेश का द्वार खुल गया, लेकिन चार्टर एक्ट, १८३२ ई. (दे.) और १८५८ ई. में महारानी के घोषणापत्र (दे.) के बावजूद भारतीय अब भी प्रवेश से वंचित रहे। १८६४ ई. में पहली बार एक भारतीय (महाकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के बड़े भाई सत्येन्द्र नाथ ठाकुर ) लंदन में हुई इण्डियन सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में सफल हुआ और उसने इंडियन सिविल सर्विस में स्थान प्राप्त किया। किन्तु इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों का प्रवेश अत्यल्प रहा और १८७६ में अधिकतम उम्र २३ वर्ष से घटा कर १९ वर्ष कर देने से यह प्रवेश असंभव नहीं तो और अधिक कठिन अवश्य बना दिया गया।
बहरहाल, इस समय तक भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार हो गया था, इसलिए भारतीय विश्वविद्यालयों के नये स्नातकों द्वारा इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश की अधिक सुविधाएं माँगना स्वाभाविक था। भारतीयों ने यह माँग करना शुरू किया कि इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए लंदन के साथ ही साथ भारत में भी एक प्रतियोगिता परीक्षा होनी चाहिए और प्रवेश की अधिकतम उम्र पहले की तरह २३ वर्ष कर दी जाये। बाद में इस मांग पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी जोर दिया और शुरू के प्रायः सभी अधिवेशनों में इस माँग को दोहराया। लेकिन इसे बराबर नजरंदाज किया जाता रहा।
१८७८ ई. में भारतीय मांग को टालने के लिए एक नयी सेवा आरम्भ की गयी जिसे 'स्टेट्यूटरी सिविल सर्विस' का नाम दिया गया और इसमें भारतीयों की भर्ती की गयी। इस सेवा के लोग कम महत्त्ववाले कुछ ऊंचे पदों पर विशेषरूप से न्यायिक पदों पर, नियुक्त किये गये और उन्हें एक से पदों पर कार्य करने के बावजूद इंडियन सिविल सर्विस के सदस्यों के मुकाबले दो-तिहाई वेतन दिया जाता रहा। इसलिए इस सेवा से भी भारतीय माँग संतुष्ट नहीं हुई और १८८५ ई. में इस सेवा को समाप्त कर दिया गया। उम्र की १८८९ ई. में बढ़ाकर २३ वर्ष कर दी गयी किन्तु इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए भारत में भी प्रतियोगिता परीक्षा कराने की माँग १९२२ ई. तक नहीं मानी गयी। ब्रिटेन और भारत दोनों ही सरकारों का भरसक प्रयास अब भी यही रहा कि इंडियन सिविल सर्विस सेवा में बाहुल्य अंग्रेजों का ही बना रहे।
प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने अगस्त १९२२ में कामन सभा (हाउस आफ कामन्स) में किये गये एक भाषण में इंडियन सिविल सर्विस के अंग्रेज नौकरशाहों को भारतीय संवैधानिक ढांचे 'इस्पाती चौखटा' कहा और भविष्यवाणी की कि "अगर आप इस इस्पाती चौखटे को हटा लें तो पूरा ढांचा ही ढह जायेगा।" किन्तु पचीस वर्षों बाद इस इस्पाती चौखटे के बने रहने पर भी ढांचा ढह पड़ा।
असलियत यह थी कि इंडियन सिविल सर्विस के ब्रिटिश सदस्यों ने भारत के विकास और यहाँ तक कि उसके राजनीतिक भविष्य के विकास में भी निस्संदेह महत्त्वपूर्ण योग दिया, किन्तु वे अपने को भारत का अंग कभी न बना पाये। वे भारत के लिए बहुत मंहगे थे। उन्होंने आमतौर से भारतीयों को अपने से नीचा समझा। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनका अंतिम प्रयास अत्यन्त घृणित था। उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक तनाव इस हद तक बढ़ा दिया कि अगस्त १९४७ में आखिरकार जब उन्हें परिस्थितियों ने भारत छोड़ने को विवश कर दिया तो वे उसे दो टुकड़ों में बँटा हुआ और लहुलुहान छोड़कर गये। (एन. सी. राय कृत दि सिविल सर्विस इन इंडिया)
असलियत यह थी कि इंडियन सिविल सर्विस के ब्रिटिश सदस्यों ने भारत के विकास और यहाँ तक कि उसके राजनीतिक भविष्य के विकास में भी निस्संदेह महत्त्वपूर्ण योग दिया, किन्तु वे अपने को भारत का अंग कभी न बना पाये। वे भारत के लिए बहुत मंहगे थे। उन्होंने आमतौर से भारतीयों को अपने से नीचा समझा। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनका अंतिम प्रयास अत्यन्त घृणित था। उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक तनाव इस हद तक बढ़ा दिया कि अगस्त १९४७ में आखिरकार जब उन्हें परिस्थितियों ने भारत छोड़ने को विवश कर दिया तो वे उसे दो टुकड़ों में बँटा हुआ और लहुलुहान छोड़कर गये। (एन. सी. राय कृत दि सिविल सर्विस इन इंडिया)
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कठिओई
(कठ) एक गण जो पंजाब में चिनाव और रावी नदियों के बीच में रहता था। उसकी राजधानी सांगल थी, जो सम्भवतः आधुनिक गुरुदासपुर जिले में स्थित थी। मकदूनिया के राजा सिकंदर ने ३२६ ई. पू. में अपने आक्रमण के समय इस गणराज्य को भी हराया था।
कड़ा
इलाहाबाद जिले का एक नगर। यहाँ सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी (दे.) १२९६ ई. में अपने भतीजे ने एवं दामाद अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के हाथों मारा गया।
कण्व (अथवा काण्वायन ) वंश
लगभग ७३ ई. पू. शुंगवंश के बाद मगध का शासनकर्ता। इसका संस्थापक वासुदेव शुंगवंश के अंतिम राजा देवभूति का ब्राह्मण अमात्य था। कण्ववंश में उसके संस्थापक सहित चार राजा हुए जिन्होंने पैतालीस वर्ष तक राज्य किया। उसके अंतिम राजा सुशर्मा को लगभग २८ ई. पू. में आंध्र वंश के संस्थापक सिभुक ने मार डाला।
कथावत्थु
पालि भाषा का एक प्रसिद्ध बौद्ध टीका ग्रन्थ। प्रो. र्हाइस डेविस ने इसका रचनाकाल अशोक का राज्यकाल (लगभग २७३-२३२ ई. पू.) माना है।
कथासरित्सागर
सोमदेव कवि की १०६३ और १०८१ ई. के बीच की रचना। इसमें भारतीय वणिकपुत्रों द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया के समुद्रो में साहसिक यात्राएँ करने के अनेक वर्णन मिलते हैं।
कदफिसस प्रथम
पूरा नाम कुजल-कर-कदफिसस, कुषाण वंश का पहला राजा। वह सम्भवतः ४० ई. में गद्दीपर बैठा तथा लगभग ३७ वर्ष तक राज्य किया। उसने अपने राज्य का विस्तार बैक्ट्रिया से आगे अफगानिस्तान में तथा भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्र में सिंधु नदी के उस पार तक किया।
कदफिसस द्वितीय
कदफिसस प्रथम (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने कुषाण साम्राज्य का विस्तार सारे उत्तरी भारत में किया। बहुत से लोगों का विचार है कि उसी ने ७८ ई. में अपने राज्यारोहण के उपलक्ष्य में शक संवत् (दे.) प्रचलित किया। उसका साम्राज्य पूर्व में बनारस तथा दक्षिण में नर्मदा तक फैला हुआ था। उसमें मालवा तथा पश्चिमी भारत भी सम्मिलित था, जहाँ के शक क्षत्रप (दे.) उसे अपना स्वामी मानते थे। ८७ ई. में उसने चीनी सम्राट् से बराबरी का दावा किया और अपने साथ एक चीनी राजकुमारी का विवाह-सम्बन्ध कर देने की माँग की। जब उसकी यह माँग स्वीकार नहीं की गयी तो उसने पामीर के मार्ग से चीन पर हमला करने के लिए एक बड़ी सेना भेजी। परन्तु उसकी सेना हार गयी और कदफिसस द्वितीय को चीन से संधि कर लेनी पड़ी। इस संधि के द्वारा उसने चीन को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया। कदफिसस द्वितीय के विभिन्न प्रकार के सिक्के बहुत अधिक संख्या में मिलते हैं। इससे सूचित होता है कि उसने दीर्घकाल तक राज्य किया। उसका राज्यकाल सम्भवतः ११७ ई. के आसपास समाप्त हुआ।