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Bharatiya Itihas Kosh

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रंग प्रथम
विजयनगर (दे.) के चतुर्थ आरबिंदु वंश के शासक तिरुमल का पुत्र और उत्तराधिकारी। तिरुमल रामराज का भ्राता था, जो १५६५ ई. के तालीकोट (दे.) के युद्ध में मारा गया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप विजयनगर राज्य की सीमाएँ अत्यधिक संकुचित हो गयीं और इसी बचे-खुचे भाग पर रंग प्रथम ने प्रायः १५७३ ई. से १५८५ ई. तक राज्य किया।

रंग द्वितीय
विजयनगर (दे.) के चतुर्थ राजवंश का अन्तिम शासक। उसने १६४२ से १६४६ ई. तक शासन किया, पर उन दिनों विजयनगर के शासकों की स्थिति सामंतों के समान हो गयी थी। यद्यपि उसके १६८४ ई. तक के अभिलेख प्राप्त हैं तथापि इनसे उसके शासनकाल की राजनीतिक घटनाओं की कोई जानकारी नहीं मिलती।

रघुजी भोंसला
नागपुर के भोंसला शासकों में प्रथम। जन्म एक मराठा ब्राह्मण परिवार में। वैवाहिक सम्बन्ध से वह राजा शाहू का सम्बन्धी भी था। वह पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) के प्रतिद्वन्द्वी दल का नेता था। पेशवा ने उसे बरार प्रान्त में मराठा शक्ति संघटित करने का पूर्ण अधिकार दे रखा था।
रघुजी महान् योद्धा और बाजीराव प्रथम द्वारा संगठित मराठा संघ का महत्त्वपूर्ण सदस्य था। उसने भारत के पूर्वीय क्षेत्रवर्ती उड़ीसा और बंगाल तक के भूभागों को अपने आक्रमणों से आतंकित कर दिया और बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ (दे.) से उड़ीसा पर मराठों का अधिकार संधि द्वारा मनवा लिया। उसके वंशजों ने नागपुर को राजधानी बनाकर बरार प्रान्त पर १८५३ ई. तक राज्य किया और उसी वर्ष लार्ड डलहौजी (दे.) ने पुत्रहीन रघुजी तृतीय की मृत्यु के उपरान्त बरार को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया।

रघुजी द्वितीय
रघुजी भोंसला (प्रथम) का पौत्र, जिसने १७८८ ई. से १८१६ ई. तक राज्य किया। वह द्वितीय मराठा-युद्ध (दे.) में भी सम्मिलित था, किन्तु असई (अगस्त १८०३) और आरगाँव (नवम्बर १८०३) के युद्धों में पराजित होने के कारण दिसम्बर १८०३ ई. में उसे अंग्रेजों से अलग संधि करनी पड़ी, जो देवगाँव की संधि के नाम से विख्यात है। संधि की शर्तों के अनुसार उसे भारत के पूर्वी समुद्रतट के कटक और बालासोर जिले तथा मध्य भारत में वारधा नदी के पश्चिम का अपने राज्य का समस्त भू-भाग अंग्रेजों को दे देना पड़ा। यद्यपि उन्होंने अंग्रेजों के साथ विधिवत् सहायक संधि नहीं की, तथापि अपने तथा निजाम और पेशवा के बीच होनेवाले विवादों में अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार कर ली। साथ ही अंग्रेजों की पूर्व अनुमति के बिना किसी यूरोपीय को अपने यहाँ नौकर न रखने और नागपुर में अंग्रेज रेजीडेण्ट रखने की शर्तों को भी स्वीकार कर लिया। आगे चलर पेंढारियों ने उसके राज्य में काफी लूटमार की और तबाही फैलायी। १८१६ ई. में तृतीय मराठा-युद्ध (दे.) प्रारंभ होने के पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात् उसका अयोग्य पुत्र परसोजी भोंसला (दे.) नागपुर का शासक बना।

रघुजी भोंसला, तृतीय (१८१८-५३
एक दुर्बल शासक, जिसे अंग्रेजों ने नागपुर के सिंहासन पर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आसीन किया। उसकी कमजोरी का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने, भोंसला राज्य के नर्मदा नदी के उत्तरस्थित समस्त भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया। १८५३ ई. में उसकी निस्संतान मृत्यु हुई और गोद प्रथा के अन्त की नीति के अनुसार लार्ड डलहौजी ने उसके शेष राज्य को भी ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया।

रघुनन्दन (स्मार्त भट्टाचार्य)
प्रख्यात धर्मशास्त्रकार। जन्म सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के नवद्वीप (नदिया) नामक स्थान पर। वे चैतन्यदेव (दे.) के समकालीन थे। पिता का नाम हरिहर भट्टाचार्य था। उन्होंने नव्य समृति की, जिनका बंगाल के हिन्दुओं के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ा। अपने स्मृति-सम्बन्धी प्रगाढ़ ज्ञान के कारण वे स्मार्त भट्टाचार्य के नाम से भी विख्यात हैं।

रघुनाथराव (उपनाम राघोबा)
द्वितीय पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) का द्वितीय पुत्र, जो कुशल सेनानायक था। अपने बड़े भाई बालाजी बाजीराव (दे.) के पेशवाकाल में उसने होल्कर के सहयोग से उत्तरी भारत में बृहत् सैनिक अभियान चलाया। १७५८ ई. में उसने अहमदशाह अब्दाली (दे.) के पुत्र तैमूरशाह (दे.) को पराजित कर सरहिन्द पर अधि‍कार कर लिया तथा पंजाब पर अधिकार करके मराठों (हिन्दुओं) की सत्ता अटक तक संस्थापित कर दी, किन्तु राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टियों से उक्त उपलब्धियाँ लाभकर सिद्ध न हुईं। तैमूरशाह को पंजाब से खदेड़ने के कारण उसके पिता अहमदशाह अब्दाली ने १७५९ ई. में भारत पर आक्रमण करके पंजाब में मराठा शक्ति का उन्मूलन कर दिया। उपरांत १७६१ ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध (दे.) में मराठों को गहरी पराजय दी। इस युद्ध में भीषण नरसंहार हुआ, पर रघुनाथराव किसी प्रकार बच निकला।
रघुनाथराव अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी था। बड़े भाई बालाजी बाजीराव की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र (और अपने भतीजे) माधवराव (दे.) के पेशवा बनने पर वह क्षुब्ध हो गया, किन्तु नवयुवक पेशवा (माधवराव) योग्य एवं चतुर निकला। उसने रघुनाथराव की समस्त चालों को विफल कर दिया। किन्तु १७७२ ई. में माधवराव की सहसा मृत्यु हो जाने के उपरान्त जब उसका छोटा भाई नारायणराव (दे.) पेशवा हुआ तो रघुनाथराव अपनी महत्त्वकांक्षा को अंकुश में न रख सका। उसने १७७३ ई. में षड्यंत्र करके नवयुवक पेशवा को अपनी आंखों के सामने ही मरवा डाला। मृत्यु के समय नारायणराव का कोई पुत्र न था। अतएव रघुनाथराव पेशवा पद का अकेला दावेदार रह गया और १७७३ ई. में उसे पेशवा घोषित भी कर दिया गया।
किन्तु नाना फड़नवीस के नेतृत्व में मराठों के एक शक्तिशाली दल ने पूना में उसके पदासीन होने का सबल विरोध किया। इस दल को नारायणराव के मरणोपरान्त १७७४ ई.में एक पुत्र उत्पन्न होने से और भी अधिक सहारा मिला। रघुनाथराव के विरोधियों ने अविलम्ब नवजात शिशु माधवराव नारायण को पेशवा घोषित कर दिया। उन्होंने एक संरक्षक समि‍ति बना ली तथा बालक पेशवा के नाम पर समस्त मराठा राज्य का शासन सँभाल लिया। इस प्रकार रघुनाथराव अब अकेला पड़ गया और उसे महाराष्ट्र से निकाल दिया गया। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं पर पानी फिर जाने से रघुनाथराव की समस्त देशभक्ति कुण्ठि‍त हो गयी और उसने बम्बई जाकर अंग्रेजों से सहायता की याचना की तथा १७७५ ई. में उनसे संधि भी कर ली, जो सूरत की संधि के नाम से विख्यात है। संधि के अन्तर्गत अंग्रेजों ने रघुनाथराव की सहायता के लिए २५०० सैनिक देने का वचन दिया, परन्तु इनका समस्त व्ययभार रघुनाथ राव को ही वहन करना था। इसके बदले में रघुनाथराव ने साष्टी और बसई तथा भड़ौच और सूरत जिलों की आय का कुछ भाग अंग्रेजों को देना स्वीकार किया। साथ ही उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी के शत्रुओं से किसी प्रकार की संधि न करने तथा पूना सरकार से संधि या समझौता करते समय अंग्रेजों को भी भागी बनाने का वचन दिया।
सन्धि के फलस्वरूप बम्बई के अंग्रेजों ने रघुनाथराव का पक्ष लिया और प्रथम मराठा-युद्ध प्रारंभ हो गया। यह युद्ध १७७५ ई. से १७८३ ई. तक चलता रहा और इसकी समाप्ति साल्बाई की संधि से हुई। अपनी देशद्रोहिता एवं घृणित स्वार्थपरता के परिणामस्वरूप रघुनाथराव को केवल पेंशन ही प्राप्त हुई, जिसका उपभोग वह अपने एकांकी जीवन में मृत्युपर्यन्त करता रहा।

रज़ि‍या, सुल्ताना
भारतीय इतिहास में एकमात्र महिला है, जिसे दिल्ली के सिंहासन पर बैठने का अवसर मिला। वह दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री थी। अपनी मृत्यु के पूर्व ही इल्तुतमिश ने रजिया को उत्तराधिकारी चुना था। किन्तु दिल्ली दरबार के सरदार और उमरा अपने ऊपर किसी स्त्री का शासन करना उचित नहीं समझते थे, अतएव उन्होंने मई १२३६ ई. में सुल्तान की मृत्यु होते ही रजिया के बड़े भाई रुकनुद्दीन को शासक नियुक्त किया। किन्तु रुकनुद्दीन अयोग्य सिद्ध हुआ। फलतः सिंहासनासीन होने के कुछ ही महीने उपरान्त उसे गद्दी से उतारकर मार डाला गया और रजिया को सिंहासनासीन किया गया। उसने चार वर्षों तक (१२३६-४० ई.) राज्य किया। रजिया राज्य के सम्मुख हाथी पर सवार होकर निकलती थी। उसने हिन्दू और मुसलमान विद्रोहियों के विरुद्ध स्वयं सैन्य संचालन किया और अपनी योग्यता एवं चतुरता से सिन्ध से बंगाल तक विस्तृत दिल्ली सल्तनत को अक्षुण्ण रखा।
किन्तु उसके सरदारों को स्त्री के शासन में रहना रुचिकर न लगा। उधर रजिया ने याकूत नामक एक हब्शी गुलाम को अपना अत्यधिक विश्वासपात्र बना लिया था। इसी बहाने सरदारों ने सिंध के सूबेदार अल्तूनिया के नेतृत्व में रजिया के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोहियों ने उसे गद्दी से उतार दिया, किन्तु रजिया ने चतुराई की चाल चलकर अल्तूनिया से विवाह करके अपनी स्थिति सुधारने का प्रयास किया। विद्रोही सरदार इससे भी संतुष्ट न हुए। उन्होंने १२४० ई. में रजिया और उसके पति अल्तूनिया को युद्ध में परास्त कर मार डाला।

रणजीत सिंह, महाराज (१७८०-१८३१)
पंजाब के सिख राज्य का संस्‍थापक। उसका पिता महासिंह सुकर चकिया मिसल का मुखिया था। रणजीतसिंह की केवल १२ वर्ष की उम्र में ही उसके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिख मिसलों के एक छोटे से समूह का सरदार बनाया गया। आरम्भ में उसका शासन केवल एक छोटे से भू-खंड पर था और सैन्यबल भी सीमित था। १७९३ ई. से १७९८ ई.के बीच अफगान शासक जमानशाह के निरंतर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गयी कि उन्नीस वर्षीय रणजीतसिंह ने १७९९ ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उसको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की। इसके उपरांत रणजीतसिंह को बराबर सैनिक एवं सामरिक सफलताएँ मिलती गयीं और उसने अफगानों की नाममात्र की अधीनता भी अस्वीकार कर दी तथा सतलज पार की सभी सिख मिसलों को अपने अधीन कर लिया। उसने अमृतसर पर अधिकार करके वहाँ की जमजमाँ नामक प्रसिद्ध तोप पर भी अधिकार कर लिया और जम्मू के शासक को अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश किया।
१८०५ ई. में जब लार्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहे थे, होल्कर भागकर पंजाब में घुम आया। किन्तु रणजीतसिंह ने इस खतरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उसने अँग्रेजों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव-क्षेत्र से मुक्त माना गया और अँग्रेजों ने सतलज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीतसिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली। उन दिनों सतलज के इस पार की छोटी-छोटी सिख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीतसिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीतसिंह भी इन समस्त सिख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहता था। इस कारण उसने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और १८०७ ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उसका इस रीति से सतलज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी सिख रियासतों पर सत्ता विस्तार अंग्रेजों को रुचिकर न हुआ। उस समय तक अंग्रेजों का राज्य-विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने सर चार्ल्स मेटकाफ के नेतृत्व में एक दूतमंडल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना रणजीतसिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीतसिंह ने राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया और अंग्रेजों से १८०९ ई. में चिरस्थायी मैत्री संधि कर ली, जो अमृतसर की संधि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उसने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उसने सतलज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेजों के संरक्षण में आ गयीं।
रणजीतसिंह ने अब दूसरी दिशा में विजय यात्राएँ आरम्भ करते हुए १८११ ई. में कांगड़ा तथा १८१३ ई. में अटक पर अधिकार कर लिया और अफगानिस्तान के भगोड़े शासक शाहशुजा को शरण दी। शाहशुजा से हो १८१४ ई. में उसने प्रसिद्ध कोहेनूर हीरा प्राप्त किया था। उपरान्त १८१८ ई. में उसने सुल्तान और १८१९ ई. में काश्मीर को जीतकर १८२३ ई. में पेशावर को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया और १८३४ ई. में पेशावर के किले पर भी अधिकार कर लिया। उसकी दृष्टि सिन्ध पर भी लगी थी परन्तु इस दिशा में अंग्रेज पहले से घात लगाये हुए थे, क्योंकि वे रणजीतसिंह की विस्तारवादी नीति से सशंकित थे।
रणजीतसिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ था, जिसे संभव और असंभव को भली परख थी। इसी कारण उसने १८३१ ई. में अंग्रेजों से पुनः संधि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्रीसंधि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीतसिंह ने न तो अंग्रेजों से कभी कोई युद्ध किया और न उनकी सेनाओं को किसी भी बहाने से अपने राज्य के अन्दर घुसने दिया। ५९ वर्ष की उम्र में १८३९ ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उसने एक ऐसे सुगठित सिख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलज तक और काश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्य में वह कोई मजबूत शासन-व्यवस्था प्रचलित न कर सका और न सिखों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सका, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलतः उसकी मृत्यु के केवल १० वर्ष उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफगानों, अंग्रेजों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीतसिंह ने जो महान सफताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उसकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में की जानी चाहिए।

रफ़ी उद्दाराजात
सातवें मुगल सम्राट् बहादुरशाह (दे.) (शाह आलम प्रथम) का पौत्र तथा शाहजादा रफीउश्‍शान का पुत्र, जो मुगल वंश का दसवाँ बादशाह था। १७१९ ई. में सैयद बन्धुओँ ने (दे.) ने फर्रुखशियर (दे.) की हत्या करके रफी उद्दाराजात को बादशाह बनाया किन्तु कुछ हो महीनों के उपरान्त सैयद बन्धुओं ने उसे भी गद्दी से उतारकर उसकी हत्या कर दी।


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