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Bharatiya Itihas Kosh

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चंगेज खां
जन्म ११६२ ई. में। उसका मूल नाम तामूचिन था। वह मंगोलों का सरदार था जो बाद को चिंगीज़ कागन (चंगेज खाँ) के चीनी नाम से विख्यात हुआ। वह महान् सेनानयक और विजेता था, जिसने चंद वर्षों के अंदर चीन के विशाल भूभाग और मध्य एशिया के सभी प्रसिद्ध राज्यों पर विजय प्राप्त कर ली थी। इन राज्यों में बलख, बुखारा और समरकंद तथा हेरात और गजनी शामिल थे। चंगेज खाँ ने खीवा के बादशाह जलालुद्दीन को हराया जो भागकर पंजाब पहुँचा और उसने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश (१२११-३६) से शरण माँगी, मगर इलतुतमिश ने इनकार कर दिया। सुलतान इलतुतमिश के इस बुद्धिमत्तापूर्ण कदम का परिणाम यह हुआ कि चंगेज खाँ, जो वस्तुतः सिन्ध नदी तक चढ़ आया था, भारत की ओर न बढ़कर दक्षिण-पूर्वी यूरोप की तरफ मुड़ गया। मृत्यु से पहले (१२२७ ई.) तक चंगेज खाँ ने दक्षिण-पूर्वी यूरोप के अनेक भागों को रौंदा और कृष्ण सागर में गिरनेवाली नीपर नदी तक अपनी विजय-वैजयंती फहरायी। चंगेज खाँ सेनानायक और विजेता मात्र ही नहीं, सुयोग्य संगठनकर्ता और शासक भी था। उसने अपने विशाल साम्राज्य के लिये कानून बनाये और व्यवस्था की स्थापना की। उसके वंशजों ने बाद को इस्लाम धर्म अपना लिया। भारतीय मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर भी मातृकुल से अपने को चंगेज खाँ की संतान मानता था।

चण्ड प्रद्योत महासेन
देखिये, अवंती का प्रद्योत।

चण्डीदास, अनन्तब्दु
प्रख्यात वैष्णव कवि। इनका जन्म पश्चिमी बंगाल के वीरभूमि जिले के नन्नूर गाँव में सम्भवतः चौदहवीं शताब्दी के अन्त में हुआ था। इन्होंने राधाकृष्ण प्रेम पर बंगला भाषा में बहुत ही सुंदर भजनों की रचना की है। ये गीत आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। 'श्रीकृष्ण कीर्तन' भी इन्हीं की रचना है।

चंद बरदाई
दिल्ली और अजमेर के शासक (११७०-९०) पृथ्वीराज चौहान (दे.) का दरबारी कवि। उसने 'पृथ्वीराज रासो' या 'चंद रायसा' नामक महाकाव्य की रचना की थी। इस ग्रंथ में मुख्यरूप से पृथ्वीराज चौहान की गौरवगाथा, उसके विवाहों और मुसलमानों से युद्धों का वर्णन है।

चंद रायसा
हिन्दी का एक प्रसिद्ध महाकाव्य, जिसे दिल्ली और अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंद्र बरदाई ने लिखा है। बाद में चारणों ने इसमें कुछ अंश और जोड़कर इसकी आकार-वृद्धि कर दी। अब इस ग्रंथ में लगभग सवा लाख छंद मिलते हैं। पृथ्वीराज के जीवन, कन्नौज के राठौर राजा जयचंद से उसकी शत्रुता, उसके विवाह, मुसलमानों के साथ हुए उसके युद्धों और उसकी वीरगति के बारे में सूचना देनेवाला एकमात्र यही ग्रंथ है।

चन्दा साहब
कर्नाटक के नवाब दोस्त अली का दामाद। १७४१ ई. में मराठों ने कर्नाटक पर हमला कर दिया और नवाब दोस्त अली की हत्या कर उसके दामाद चन्दा साहब को बंदी बनाकर ले गये। सात वर्ष बाद १७४८ ई. में मराठों ने चन्दा साहब को मुक्त कर दिया। इसी बीच पहला कर्नाटक या इंग्लैण्ड-फ्रांस युद्ध छिड़ गया था। इस युद्ध में डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों के श्रेष्ठ रणकौशल की सब ओर प्रशंसा होने लगी। इसलिए चन्दा साहब ने अनवरुद्दीन को गद्दी से उतारने के लिए, जिसे १७४३ ई. में निजाम ने कर्नाटक का नवाब नियुक्त किया था, डूप्ले के साथ सैनिक संधि कर ली। दोनों की संयुक्त फौजों ने अगस्त १७४९ ई. में आम्बूर के युद्ध में अनवरुद्दीन को हराया और मार डाला तथा उसके पुत्र और भावी उत्तराधिकारी मुहम्मद अली को खदेड़ दिया। मुहम्मद अली ने तिरुचिरापल्ली के किले में शरण ली। चन्दा साहब कर्नाटक का नवाब घोषित किया गया तथा आर्काट राजधानी बनी। इसके बाद चन्दा और डूप्ले ने तिरुचिरापल्ली में महम्मद अली को घेर लिया। किन्तु यह घेरा कुशलता के साथ नहीं संचालित किया गया, जिससे मुहम्मद अली को मैसूर और तंजोर के शासकों से सहायता प्राप्त करने का समय मिल गया। उधर मद्रास स्थित अंग्रेजों को भी मुहम्मद अली की तरफ से हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया। युवक राबर्ट क्लाइव (दे.) ने दो सौ अंग्रेज तथा तीन सौ भारतीय सैनिकों को लेकर आर्काट के किले पर अचानक आक्रमण करके अधिकार कर लिया। चन्दा साहब ने आर्काट को पुनः हस्तगत करने के लिए तुरंत भारी फौज भेजी, लेकिन वह न केवल अपने इस प्रयास में विफल हुआ वरन् घमासान युद्ध में पराजित भी हुआ। उसने मजबूर होकर आत्मसमर्पण कर दिया। लेकिन तंजौर के राजा (१७५२) के आदेश पर उसका सर उड़ा दिया गया।

चंदावर का युद्ध
११९४ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी और बनारस तथा कन्नौज के राजा जयचंद के बीच हुआ। जयचंद इस युद्ध में पराजित होकर मारा गया तथा कन्नौज और बनारस पर मुस्लिम शासन स्थापित हो गया।

चंदेल
राजपूतों की एक जाति, इस वर्ग के लोग अपने को क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत मानते हैं। किन्तु कुछ आधुनिक विद्वानों द्वारा उनकी उत्पत्ति गोंडों तथा भरों से बतलायी जाती है। बाद में इनके सरदारों के हाथ में शासन सत्ता आ जाने पर इन्हें क्षत्रिय कहा जाने लगा। चंदेलों की राजनीतिक शक्ति का उदय और विकास आधुनिक विध्यप्रदेश के दक्षिण में विद्याचल और उत्तर में यमुना के बीच स्थित बुंदेलखण्ड में हुआ। उस समय इस प्रदेश का नाम जेजाकभुक्ति या जझौती था। खजुराहों के भव्य मंदिर, कालिंजर का मजबूत किला, अजयगढ़ का महल और महोबा का प्राकृतिक सौंदर्य चंदेलों की संस्कृति और उपलब्धियों के केन्द्र थे। चंदेल शिव तथा कृष्ण के उपासक थे, परन्तु कुछ चंदेल बौद्ध और जैन धर्मों के भी अनुयायी थे। चंदेलों ने स्थापत्य कला की एक भव्य शैली का विकास किया, जिसके उदाहरण खजूराहो में अब भी विद्यमान हैं। यहाँ का महादेव नामक मुख्य शिव मन्दिर १०९ फुट लम्बा,, ६० फूट चौड़ा और ११६.५ फुट ऊँचा है। चंदेलों की शासन प्रणाली राजतंत्रीय परम्परा पर आधारित थी और उसमें न केवल राजसिंहासन के लिए उत्तराधिकार की व्यवस्था थी, वरन् मंत्रियों के पद भी वंशानुगत हुआ करते थे। दसवीं शताब्दीके अन्त में प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो जाने के बाद चंदेलों को संपूर्ण उत्तरी भारत पर शासन करने का अवसर मिला, लेकिन वे इसके योग्य सिद्ध नहीं हुए। (एन. एस. बोस कृत 'हिस्ट्री आफ चंदेलाज़', एस. के. मित्र कृत 'खजुराहो के प्रारम्भिक शासक')

चंदेल वंश
नवीं शताब्दी के आरंभ में नानुक चंदेल द्वारा इस वंश की स्थापना हुई, जो प्रतिहारों के मुखिया को विनष्ट कर जेजाकभुक्ति (आधुनिक बुंदेलखण्ड) के दक्षिणी भाग का स्वामी बन गया था। नानुक से बीस राजाओं की वंश परम्परा चली। इससे पहले के चंदेल राजा गुर्जर प्रतिहारों के करद सामंत थे। सातवाँ राजा यशोवर्मा ही व्यावहारिक दृष्टि से इस वंश का पहला स्वतंत्र शासक हुआ। उसने कालिंजर का प्रसिद्ध दुर्ग अपने अधिकार में कर लिया और खजुराहो मंदिर में स्थापनार्थ विष्णु की बहुमूल्य प्रतिमा उपहारस्वरूप देने के लिए प्रतिहार राजा देवपाल को मजबूर कर दिया। उसका पुत्र धंग (लगभग ९५०-१००८ ई.) चंदेलवंश का सबसे अधिक प्रतापी शासक हुआ। उसने पूरे जेजाकभुक्ति पर अपने राज्य का विस्तार करते हुए तत्कालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय भाग लिया। वह ९८९ या ९९० ई. में अफगानिस्तान से होनेवाले सुबुक्तगीन के आक्रमण को रोकने के लिए पंजाब नरेश जयपाल द्वारा बनाये गये संघ में शामिल था। लेकिन सुबुक्तगीन के हाथों इस संघ को हार खानी पड़ी। अन्त में सौ वर्ष की लम्बी आयु प्राप्त कर धंग ने प्रयाग में शिव का नाम लेते हुए गंगा-यमुना संगम में जल-समाधि ले ली। धंग के बाद उसके पुत्र गंड ने पंजाब नरेश आनंदपाल (जयपाल का पुत्र) के साथ संघ बनाकर महमूद गजनवी से मोर्चा लिया, किन्तु दुर्भाग्य से यह दूसरा संघ भी पराजित हुआ। इस वंश के दसवें शासक विजयपाल (१०३०-५० ई.) ने कन्नौज नरेश राज्यपाल पर आक्रमण कर इसलिए मार डाला कि उसने सुल्तान महमूद गजनवी के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था। किन्तु शीघ्र ही वह स्वयं महमूद गजनवी से पराजित हो गया। यद्यपि महमूद गजनवी का आधिपत्य अधिक समय तक नहीं रहा, तथापि श्री विजय पाल की पराजय से इस वंश की शक्ति क्षीण हो गयी और बाद के बारहों राजाओं में कोई भी तत्कालीन राजनीति में महत्त्वपूर्ण भाग नहीं ले सका और धीरे-धीरे चंदेल शक्ति का पतन हो गया। बारहवें राजा कीर्तिवर्मा ने (१०६०-११०० ई.) प्रसिद्ध आध्यात्मिक नाटक 'प्रबोधचंद्रोदय' के रचयिता को अपने यहाँ प्रश्रय दिया था। सत्रहवां शासक परमार्दि या परमल (लगभग ११६५-१२०२ ई.) इस वंश का अन्तिम उल्लेखनीय राजा था, जिसने इतिहास के मंच पर कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। परमार्दि ने अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज के आक्रमण का बहादुरी से सामना किया किन्तु हार का मूंह देखना पड़ा।इसके बाद कुतुबुद्दीन ऐबक आ धमका और उसने काजिंलर के दुर्ग पर कब्जा कर लिया। चंदेलवंश ने बुंदेलखंड की मात्र स्थानीय शक्ति के रूप में १४वीं शताब्दी तक किसी न किसी तरह अपना अस्तित्व बनाये रखा। अंतिम शासक हमीरवर्मा के निधन के साथ इस वंश का अन्त हो गया (एन. एस. बोस कृत 'हिस्ट्री आफ दि चंदेलाज़')।

चन्द्र
पूर्वी बंगाल का स्थानीय सामन्त, जिसने ग्यारहवीं शताब्दी में पालवंश की अवनति शुरू होने के बाद कुछ समय के लिए बंगाल के कुछ भाग पर शासन किया।


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