भारत का एक यवन राजा था जो तक्षशिला में राज्य करता था। आधुनिक भिलसी के निकट वेसनगर (विदिशा) में प्राप्त स्तम्भ-लेख से पता चलता है कि एंटिआल्किडस ने विदिशा के राजा के दरबार में हेलियोडोरस को अपना राजदूत बना कर भेजा था। स्तम्भलेख ई. पू. १४० और ई. पू. १३० के बीच का माना जाता है।
एंटिगोनस गोंटस
का उल्लेख अशोक के शिलालेख (संख्या तेरह) में अन्तिकिनि के रूप में किया गया है। उसके साथ अशोक के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। वह मैसिडोनिया का राजा (ई. पू. २७७ से ई. पू. २३९ तक) था।
एंटियोकस प्रथम सोटर
सेल्यूकस निकेटर का पुत्र और सीरिया का राजा। भारत में जब द्वितीय मौर्य सम्राट् बिंदुसार राज्य करता था, उसके समय में एंटियोकस सीरिया में राज्य करता था। स्ट्राटो नामक इतिहासकार के अनुसार एंटियोकस प्रथम ने डायमेचस नामक एक यवन को राजा बिन्दूसार के दरबार में अपना राजदूत बनाकर भेजा था। एंटियोकस और बिन्दुसार के बीच में मैत्री सम्बन्ध थे। बिन्दुसार ने एंटियोकस प्रथम को अपने लिये मीठी शराब (मधु) , सूखे अंजीर और एक यवन दार्शनिक खरीद कर भेजने के लिए लिखा। एंटियोकस ने जवाब में लिखा कि मीठी शराब और सूखे अंजीर तो भेज दूँगा, लेकिन यवन दार्शनिक नहीं भेज सकता क्योंकि यूनान के कानून के अनुसार दार्शनिक को बेचा नहीं जा सकता।
एंटियोकस द्वितीय थिओस
सीरिया और पश्चिमी एशिया का राजा (२६१-२४६ ई. पू.) था। उसका उल्लेख अशोक के शिलालेख संख्या तेरह में अंतियोक नामक यौन (यवन) राजा के रूप में हुआ है जिसका राज्य अशोक के साम्राज्य की पश्चिमी सीमापर बताया गया है। अशोक ने उसके साथ मित्रता के सम्बन्ध बना रखे थे और उसके राज्य में धर्म का प्रचार किया था : मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाये थे और औषधवनस्पति के पौधे लगवाये थे। (द्वितीय शिलालेख)
एंटियोकस तृतीय महान्
यवन राजा जो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के अंत में सीरिया और पश्चिमी एशिया में राज्य करता था। उसके समय में युथिडिमास के नेतृत्व में बैक्ट्रिया स्वाधीन हो गया। इसके बाद ही एंटियोकस तृतीय ने हिन्दू-कुश पार करके सुभागसेन नामक भारतीय राजा पर आक्रमण किया जिसका राज्य काबुल की घाटी में था। एंटियोकस तृतीय ने सुभागसेन को पराजित कर उससे क्षतिपूर्ति के रूप में बहुत-सा धन और हाथी लिये और अपने देश को वापस चला गया। इस आक्रमण का कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा।
एंडरसन
बम्बई की यूरोपीय रेजीमेण्ट का लेफ्टिनेण्ट था जिसको मार्च १८४८ ई. में लाहौर दरबार में एक अन्य अधिकारी वान्स एग्न्यू और सरदार खानसिंह के साथ भेजा गया था। सरदार खानसिंह को दीवान मूलराज के स्थान पर मुल्तान का सूबेदार बनाया गया था। मुल्तान पहुँचने के बाद लेफ्टिनेण्ट एंडरसन और उसके साथी वान्स एग्न्यू की २० अप्रैल १८४८ ई. को हत्या कर दी गयी। अनुमान है कि दीवान मूलराज जिसे सूबेदारी से हटाया गया था उसने ही इन दोनों की हत्या करवा दी थी। इस घटना के बाद मुल्तान में भीषण उपद्रव हुए, जिनके परिणामस्वरूप द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (१८४८-४९ ई.) हुआ।
एकनाथ
१६ वीं शताब्दी ई. के उत्तरार्द्ध में उत्पन्न महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध सन्त और धर्मसुधारक। वे पैठन में पैदा हुए और ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने जातिभेद की तीव्र निंदा की तथा भगवद्भक्ति के प्रचार में वे लगे रहे। उन्होंने 'महार' नामक निम्न जाति के एक व्यक्ति के साथ भोजन करने में भी संकोच नहीं किया। वे १६०८ ई. में स्वर्गवासी हुए। उन्होंने अपनी कविताओं तथा अपने उपदेशों द्वारा शिवाजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति के अभ्युदय में भारी योगदान दिया।
एक्स ला चैपेल की सन्धि
१७४८ ई. में सम्पन्न। इस संधि के द्वारा आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया और तदनुसार भारत में भी प्रथम आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध समाप्त कर दिया गया और विजित क्षेत्र एक दूसरे को लौटा दिये गये। मद्रास, जिस पर इस युद्ध के दौरान फ्रांसीसियों ने कब्जा कर लिया था, फिर अंग्रेजों को वापस कर दिया गया।
एजस प्रथम
भारत का एक पार्थियन राजा था जो पंजाब में राज्य करता था। पहले वह आर्कोशिया (कन्धार) और सीस्तान का उपराजा था। बाद में ई. पू. ५८ में मौअस के स्थान पर उसका स्थानान्तरण तक्षशिला कर दिया गया। उसने पहले पार्थियन राजा मिथ्रिदातस के अधीन रहकर उस प्रदेश में राज्य किया। वह एक शक्तिशाली राजा था जिसने करीब ४० वर्ष राज्य किया। इस बात की सम्भावना है कि अपने लम्बे राज्यकाल के अन्त में उसने अपने को पार्थिया से स्वतंत्र कर लिया था। उसके नाम के सिक्के पंजाब में मिले हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि विक्रम संवत् जो ईसवी पूर्व ५८-५७ में प्रचलित हुआ, उसने शुरू किया था।
एजस द्वितीय
एजस प्रथम का पौत्र था जो अपने पितामह की गद्दी पर अपने पिता एजीलिसेस (दे.) के बाद गद्दी पर बैठा और २० ई. तक राज्य किया। एजेस द्वितीय के नाम का पता भी उसके सिक्कों से चला है। सिक्कों में उसका नाम अश्पवर्मन् के नाम के साथ आया है जिससे प्रकट होता है कि भारतीयों और पार्थियन राजाओं में निकट सहयोग था।