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Bharatiya Itihas Kosh

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ईशान वर्मा
कन्नौज के मौखरि राजवंश का चौथा राजा। वह ५५४ ई. के आसपास राज्य करता था। उसने आंध्र और गौड़ राजाओं पर विजय प्राप्त की। महाराजाधिराज की पदवी धारण करनेवाला वह पहला मौखरि राजा था।

ईश्वर
प्रारम्भिक मागध काल के हिन्दुओं में इस सृष्टि के रचयिता और पालनकर्ता के रूप में परम तत्त्व के जो अनेक नाम प्रचलित थे, उनमें से एक। यह विश्वास किया जाता है कि भक्ति करने से उसका अनुग्रह प्राप्त होता है जिससे करमों के बन्धन से छुटकारा मिल जाता है।

ईश्वरदेव
ह्युएनत्सांग द्वारा शिव की मूर्ति के लिए प्रयुक्त नाम, जिसकी स्थापना महाराजाधिराज हर्ष द्वारा प्रयाग में हर पाँचवें वर्ष आयोजित किये जानेवाले महोत्सव में की जाती थी। इस महोत्सव में बुद्ध और आदित्यदेव की मूर्तियाँ भी स्थापित की जाती थीं और हर्ष बारी-बारी से उनकी अर्चना करता था। हयुएनत्सांग ने ६४३ ई. में होनेवाले महोत्सव में भाग लिया था।

ईश्वर वर्मा
कन्नौज के मौखरि वंश का तीसरा राजा, जो छठी शताब्दी ई. के द्वितीय चतुर्थांश में राज्य करता था। उसे महाराज की पदवी प्राप्त थी। उसने संभवतः गुप्त राजकुमारी उपगुप्ता से विवाह किया था। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी प्रसिद्ध ईशानवर्मा (दे.) था।

ईश्वरसेन
एक अमीर राजा, जिसने दूसरी शताब्दी ई. के अंत में उत्तर-पश्चिमी महाराष्ट्र में सातवाहन वंश का शासन समाप्त कर दिया। कहा जाता है कि २४८ ई. में प्रचलित त्रैकूटक संवत्सर उसी के द्वारा स्थापित राजवंश ने चलाया था।

ईसाई मिशनरी (धर्म प्रचारक)
आधुनिक भारत पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा है। भारत के सुदूर दक्षिणी भागों में बहुत पहले से सीरियाई ईसाइयों की भारी संख्या में उपस्थिति इस बात की द्योतिका है कि इस देश में सबसे पहले आनेवाले ईसाई मिशनरी यूरोप के नहीं, सीरिया के थे। जो भी हो, राजा गोंडोफारस (दे.) (लगभग २८ से ४८ ई.) से संत टामस का सम्बन्ध यह संकेत करता है कि ईसाई धर्मप्रचारकों का एक मिशन सम्भवतः प्रथम ईसवी के दौरान भारत आया था। इतना तो निश्चित रूप से ज्ञात है कि ईसाई मिशनरियों ने धर्मप्रचार का अपना काम भारत में सोलहवीं शताब्दी के दौरान संत फ्रांसिस जैवियर के जमाने से शुरू किया। संत जैवियर का नाम आज भी भारत के अनेक स्कूल-कालेजों से सम्बद्ध है। पुर्तगालियों के भारत आने और गोआ में जम जाने के बाद ईसाई पादरियों ने भारतीयों का बलात् धर्म-परिवर्तन शुरू किया। आरम्भिक ईसाई मिशन रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा प्रवर्तित थे और वे छिटपुट रूप से भारत आये। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में एंग्लिकन प्रोटेस्टेंट चर्च के द्वारा ईसाई धर्मप्रचार का कार्य सुव्यवस्थित ढंग से आरम्भ हुआ। इस काल में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ईसाई मिशनरियों को अपने राज्य के भीतर रहने की इजाजत नहीं दी, क्योंकि उसे भय था कि कहीं भारतीयों में उनके विरुद्ध उत्तेजना न उत्पन्न हो जाय। फलस्वरूप विलियम कैरी सरीखे प्रथम ब्रिटिश प्रोटेस्टेंट मिशनरियों को कम्पनी के क्षेत्राधिकार के बाहर श्रीरामपुर में रहना पड़ा, अथवा कुछ मिशनरियों को कम्पनी से सम्बद्ध पादरियों के रूप में सेवा करनी पड़ी, जैसा कि डेविड ब्राउन और हेनरी मार्टिन ने किया। सन् १८१३ ई. में ईसाई पादरियों पर से रोक हटा ली गयी और कुछ ही वर्षों के अन्दर इंग्लैण्ड, जर्मनी और अमेरिका से आनेवाले विभिन्न ईसाई मिशन भारत में स्थापित हो गये और उन्होंने भारतीयों में ईसाई धर्म का प्रचार शुरू कर दिया। ये ईसाई मिशन अपने को बहुत अरसे तक विशुद्ध धर्मप्रचार तक ही सीमित न रख सके। उन्होंने शैक्षणिक और लोकोपकारी कार्यो में भी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी और भारत के बड़े-बड़े नगरों में कालेजों की स्थापना की और उनका संचालन किया। इस मामले में एक स्काटिश प्रेसबिटेरियन मिशनरी अलेक्जेंडर डफ अग्रणी था। उसने १८३० ई. में कलकत्ता में जनरल असेम्बलीज इंस्टीट्यूशन की स्थापना की और उसके बाद कलकत्ता से लेकर बंगाल के बाहर तक कई और मिशनरी स्कूल कालेज खोले। अंग्रेजी सीखने के उद्देश्य से भारतीय युवक इन कालेजों की ओर भारी संख्या में आकर्षित हुए। ऐसे युवक बाद में पश्चिमी ज्ञान और मान्यताओं को कट्टर हिन्दू और मूस्लिम समाज तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण माध्यम बने। ईसाई मिशन और मिशनरियों ने बौद्धिक स्तर पर तो भारतीयों के मस्तिष्क को प्रभावित किया ही, साथ ही अपने लोकोपकारी कार्यों (विशेषतया चिकित्सा सम्बन्धी) से भी यूरोपीय व ईसाई सिद्धान्तों और आदर्शों का प्रचार-प्रसार किया। इस प्रकार ईसाई मिशनरियों ने आधुनिक भारत के विकास पर गहरा प्रभाव डाला। मिशनरियों ने प्रायः बिना पर्याप्त जानकारी के भारतीय धर्म की अनुचित आलोचना की, जिससे कुछ कटुता उत्पन्न हो गयी, लेकिन उन्होंने भारत के सामाजिक उत्थान में भी निःसंदिग्ध रूप से महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने भारतीय नारी की दयनीय, असम्मानजनक स्थिति, सती-प्रथा, बाल-हत्या, बाल-विवाह, बहुविवाह और जातिवाद जैसी कुरीतियों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इन सामाजिक व्याधियों को समाप्त करने में ईसाई मिशनरियों का बहुत बड़ा योगदान है।

ईसा खाँ
उन बारह भूमिपतियों (जमींदारों) में से एक, जो सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चौथाई भाग में पूर्वी बंगाल का नियंत्रण करते थे। पूर्वी तथा मध्यवर्ती ढाका जिला तथा मैमनसिंह जिले का अधिकांश भाग ईसा खाँ के कब्जे में था। उसने अपने पड़ोसी हिन्दू भूमिपति, विक्रमपुर के केदार राय के सहयोग से कुछ समयतक बादशाह अकबर की फौजों को रोक रखा। अंत में दोनों में मनमुटाव हो गया और ईसा खाँ को मुगल बादशाह ने अपदस्थ कर दिया।

ईस्ट इंडिया कम्पनी
स्थापना, १६०० ई. के अन्तिम दिन महारानी एलिजाबेथ प्रथम के एक घोषणापत्र द्वारा। यह लंदन के व्यापारियों की कम्पनी थी जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कम्पनी ने सबसे पहले व्यापार की शुरुआत मसालेवाले द्वीपों में की। १६०८ ई. में उसका पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, परन्तु पुर्तगालियों के प्रतिरोध और शत्रुतापूर्ण रवैये ने कम्पनी को भारत के साथ सहज ही व्यापार शुरू करने नहीं दिया। पुर्तगालियों से निपटने के लिए अंग्रेजों को डच ईस्ट इंडिया कम्पनी से सहायता और समर्थन मिला और दोनों कम्पनियों ने एक साथ पुर्तगालियों से अरसेतक जमकर तगड़ा मोर्चा लिया। १६१२ ई.में कैण्टन बेस्ट के नेतृत्व में अंग्रेजों के एक जहाजी बेड़े ने पुर्तगाली हमले को कुचल दिया और अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सूरत में व्यापार शुरू कर किया। १६१३ ई. में कम्पनी को एक शाही फरमान मिला और सूरत में व्यापार करने का उसका अधिकार सुरक्षित हो गया। १६२२ ई. में अंग्रेजों ने ओर्मुज पर अधिकार कर लिया जिसके फलस्वरूप वे पुर्तगालियों के प्रतिशोध या आक्रमण से पूर्णतया सुरक्षित हो गये। १६१५-१८ ई. में सम्राट् जहाँगीर के समय ब्रिटिशनरेश जेम्स प्रथम के राजदूत सर टामस रो ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये। इसके शीघ्र बाद कम्पनी ने मसुलीपट्टम और बंगाल की खाड़ी पर स्थित अरमा गाँव नामक स्थानों पर कारखाने स्थापित किये, किंतु कम्पनी को पहली महत्त्वपूर्ण सफलता मार्च १६४० ई. में मिली जब उसने विजयनगर शासकों के प्रतिनिधि चंद्रगिरि के राजा से आधुनिक मद्रास नगर का स्थान प्राप्त कर लिया। यहाँ पर उन्होंने शीघ्र ही सेंट जार्ज किले का निर्माण किया। १६६१ ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के दहेज में बम्बई टापू मिल गया। चार्ल्स ने १६६८ ई. में इसको केवल १० पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के सुपुर्द कर दिया। इसके बाद १६६९ और १६७७ ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली। १६८७ ई. में ईस्ट कम्पनी का पश्चिमी भारत स्थित मुख्यालय सूरत से बम्बई लाया गया। अंत में १६९० ई. में कंपनी के 'एक वफादार सेवक' जाब चारनाक ने बंगाल के नवाब इब्राहीम खाँ के निमंत्रण पर भागीरथी की दलदली भूमि पर स्थित सूतानटी गाँव में कलकत्ता नगरी की स्थापना की। बाद को १६९८ ई. में सूतानटी से लगे हुए दो गाँवों कालिकाता और गोविन्दपुर को उसमें और जोड़ दिया गया। इस प्रकार पुर्तगालियों के जबर्दस्त प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ९० वर्षों के अंदर तीन अति उत्तम बंदरगाहों-बम्बई, मद्रास और कलकत्ता पर अपना अधिकार कर लिया। इन तीनों बंदरगाहों पर किले भी थे। ये तीनों बंदरगाह प्रेसीडेंसी कहलाये और इनमें से प्रत्येक का प्रशासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट आफ डायरेक्टर्स (दे.) और कोर्ट आफ प्रोपराइटर्स द्वारा नियुक्त एक गवर्नर के सुपुर्द किया गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी का संचालन लंदन में लीडन हाल स्ट्रीट स्थित कार्यालय से होता था।

ईस्ट इंडिया कालेज, हैलीबरी
१८०५ ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा स्थापित। कम्पनी की भारतीय सिविल सर्विस में नौकरी के लिए मनोनीत युवकों को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था इस कालेज में की गयी थी। प्रत्येक प्रशिक्षार्थी को इसमें दो वर्ष व्यतीत करने पड़ते थे जहाँ उसे सामान्य शिक्षा, भारतीय भाषाओं, कानून तथा इतिहास का ज्ञान कराया जाता था। शिक्षा की समाप्ति के पश्चात् उसे भारतीय सिविल सर्विस में नौकरी पर भेज दिया जाता था। इस कालेज में केवल मनोनीत युवक ही भर्ती किये जाते थे, अतएव उसमें उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण होने का प्रश्न नहीं था, बल्कि इस कालेज का उद्देश्य यही था कि प्रशिक्षार्थियों का उतना ज्ञानवर्धन किया जाय जितनी उनमें क्षमता हो। इस कालेज में बौद्धिक विकास की ओर कम तथा सहयोग की भावना विकसित करने की ओर अधिक ध्‍यान दिया जाता था। यह कालेज ५० वर्ष तक चला। इसके पश्चात १८५५ ई. में भारतीय सिविल सर्विस में प्रतियोगिता परीक्षा आरम्भ हो जाने पर उक्त कालेज समाप्त कर दिया गया। (एन. सी. राय कृत सिविल सर्विस)


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