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Bharatiya Itihas Kosh

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औपनिवेशिक स्वराज्य (डोमिनियन स्टेटस)
की मांग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार १९०८ ई. में की थी। उस समय इसका अर्थ केवल इतना ही था कि आन्तरिक मामलों में भारतीयों को स्वशासन का अधिकार दिया जाय, जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत कनाडा को प्राप्त था किन्तु ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया। २१ वर्ष बाद ३१ अक्तूबर १९२९ ई. को वाइसराय लार्ड इर्विन ने घोषणा की कि भारत में संवैधानिक प्रगति का लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति है। किन्तु 'औपनिवेशिक स्वराज्य' के स्वरूप की स्पष्ट परिभाषा नहीं की गयी। फलतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस प्रकार की अस्पष्ट और विलम्बित घोषणा पर सन्तोष प्रकट करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस ने वर्ष के अन्त में अपने लाहौर अधिवेशन में भारत का लक्ष्य 'पूर्ण स्वाधीनता' घोषित किया। इस प्रकार भारत और ब्रिटेन के बीच की खाई बढ़ती ही रही। औपनिवेशिक स्वराज्य की घोषणा यदि २० वर्ष पहले की गयी होती, तो कदाचित् वह भारतीय आकांक्षाओं की पूर्ति कर देती। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व बदलती हुई अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के साथ बढ़ते हुए राष्ट्रवाद को औपनिवेशिक स्वराज्य की घोषणा सन्तुष्ट न कर सकी। इसके बाद भी ६ वर्ष तक ब्रिटिश सरकार ने उस घोषणा को लागू करने के लिए कुछ नहीं किया। अंत में जब १९३५ का 'गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट' सामने आया तो वह कई दृष्टियों से औपनिवेशिक स्वराज्य के वादे की पूर्ति नहीं करता था।
नये शासन-विधान के अनुसार केन्द्र में द्वैध शासन की व्यवस्था की गयी थी जिसके अन्तर्गत विदेश विभाग और प्रतिरक्षा विभाग आदि पर निर्वाचित विधान-मंडल का कोई नियंत्रण नहीं रखा गया। दूसरी बात, इस शासन विधान में वाइसराय को अनेक निरंकुश अधिकार प्रदान किये गये थे। तीसरी बात, भारतीय विधान-मंडल द्वारा पारित अधिनियमों पर ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति आवश्यक थी। ब्रिटिश सरकार उक्त अधिनियमों पर स्वीकृति देने से इनकार भी कर सकती थी। इस प्रकार के प्रतिबन्धों से स्पष्ट था कि भारतीय शासन-विधान (१९३५) में औपनिवेशिक स्वराज्य की जो कथित व्यवस्था थी, वह १९३१ ई. के स्टेट्यूट आफ वेस्टमिंस्टरके अन्तर्गत औपनिवेशिक स्वराज्य की परिभाषा से बहुत निचले दर्जे की थी। इस स्टेट्यूट के अन्तर्गत आन्तरिक मामलों में उपनिवेश की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया गया था और वैदेशिक मामलों में भी पूर्ण स्वशासन दिया गया था जिसके अनुसार उपनिवेश को विदेशों से संधि करने का अवाध अधिकार प्राप्त था। साथ ही युद्धादि में तटस्थ रहने और ब्रिटिश साम्राज्य से अलग होने का अधिकार भी उपनिवेशको दिया गया था। औपनवेशिक स्वराज्य में निहित उपर्युक्त समस्त अधिकार १९३५ के गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट में नहीं प्रदान किये गये थे, अतएव वह भारतीय जनमत को संतुष्ट करने में पूर्णतया विफल हो गया। इसके अलावा शासन विधान में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को इस प्रकार विकसित किया गया था कि उससे भारत के भावी विभाजन की स्पष्ट आधारशिला तैयार कर दी गयी ऐसी अवस्था में सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने जब ११ मार्च १९४२ ई. को औपनिवेशिक स्वराज्य के लक्ष्य की पुनः घोषणा की, तो भारतीय राष्ट्रवादियों में उससे कोई उत्साह नहीं उत्पन्न हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जब ब्रिटेन को धन-जन की घोर हानि पहुँची और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होता गया, तो उसे १९३१ ई. के स्टेट्यूट आफ वेस्टमिंस्टर के अंतर्गत भारत और पाकिस्तान को पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य देने की घोषणा करनी पड़ी। १५ अगस्त १९४७ ई. को भारत ने ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के अन्तर्गत पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त कर ली। यह स्थिति १९४९ ई. में और अधिक स्पष्ट हो गयी, जब भारत को सार्वभौम प्रभुसत्ता सम्पन्न स्वाधीन गणराज्य के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गयी। भारत ने स्वेच्छा से राष्ट्रमण्डल में बने रहने का निर्णय किया। उसने घोषणा की कि वह शांति, स्वतंत्रता तथा प्रगति की नीति से अपने को आबद्ध रखेगा और ब्रिटिश सम्राट् को राष्ट्रमण्डल का प्रतीक-अध्यक्ष स्वीकार करेगा और जब भी वह अपने हित में राष्ट्रमण्डल से अलग होना आवश्यक समझेगा, उसे अलग होने का पूरा अधिकार होगा। (जी. एन. जोशी लिखित 'भारतीय संविधान' - १९५६ ई.)

औरंगजेब
भारत का छठा मुगल बादशाह (१६५९-१७०७ ई.)। वह शाहजहाँ (दे.) (१६२७-१६५९ ई.) का तीसरा पुत्र था। जब वह शाहजादा था तभी से महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय और सैनिक पदों पर था। दक्षिण में दो बार और अफगानिस्तान में एक बार वह बादशाह का प्रतिनिधि रह चुका था। इन पदों पर काम करते हुए उसने बड़ी योग्यता साहस और परिश्रम का परिचय दिया। उसमें ये गुण बहुतायत से थे जिनका परिचय उसने बादशाह होने पर भी दिया। १६५७ ई. में जब उसका पिता शाहजहाँ बीमार पड़ा, उस समय वह दक्षिण में बादशाह का प्रतिनिधि था। उसके बड़े भाई दाराशिकोह को शाहजहाँ दिल्ली के तख्त पर बैठाना चाहता था, वह उसके पास था। शाहजहाँ का दूसरा पुत्र शुजा बंगाल में शासक था और चौथा तथा सबसे छोटा पुत्र मुराद गुजरात में बादशाह का प्रतिनिधि था। जैसे ही शाहजहाँ की बीमारी की खबर मिली, शुजा ने बंगाल में अपने को बादशाह घोषित कर दिया और गुजरात में मुराद ने भी वैसा ही किया। इन परिस्थितियों में औरंगजेब ने भी तख्त पाने की कोशिश करने का निश्चय किया। उसने मुराद से सुलह करके यह तय किया कि दोनों मिलकर कोशिश करें और विजयी होने पर सल्तनत को आपस में बाँट लें। इस तरह उत्तराधिकार के लिए शाहजहाँ के चारों पुत्रों में भ्रातृयुद्ध शुरू हो गया। औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेना ने उज्जैन के निकट अप्रैल १६५८ ई. में धर्मर और मई १६५८ ई. में सामूगढ़ की लड़ाइयों में शाही सेना को पराजित कर दिया। सामूगढ़ की लड़ाई में शाहजादा दारा खुद मौजूद था और हार के बाद वह भाग कर आगरा चला गया। विजयी भाइयों की संयुक्त सेना दाराशिकोह का पीछा करती हुई आगरा पहुँची और ८ जून १६५८ ई. को आगरा किले तथा उसके खजाने का समर्पण हो गया। बूढ़ा बादशाह शाहजहाँ जीवनपर्यंत बंदी बना रहा। औरंगजेब ने १६५७ ई. में गुजरात के दीवान की हत्या के अभियोग में मुराद को फांसी दिलवा दी। इसी बीच में शुजा को दारा के लड़के सुलेमान ने फरवरी १६५८ ई. में बनारस के पास बहादुरपुर की लड़ाई में पराजित कर दिया। बाद में उसने फिर से कुछ फौज इकट्ठी कर ली। औरंगजेब ने खुद सेना का संचालन कर विरुद्ध बंगाल पर चढ़ाई की और उसे खजवा की लड़ाई में पराजित किया। औरंगजेब के सेनापति मीर जुमला ने शुजा का पीछा किया और उसे पहले दक्षिण की ओर और बाद में अराकान की ओर (मई १६६० ई.) भागने पर मजबूर किया, जहाँ उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया। आगरा पर औरंगजेब का अधिकार हो जाने के बाद दाराशिकोह वहाँ से भागा। औरंगजेब की सेना ने उसे अप्रैल १६५९ ई. में दौराई की लड़ाई में पराजित किया और जून के महीने में दाराशिकोह धोखा देकर पकड़ लिया गया। औरंगजेब ने उसको जलील किया और उसके विरुद्ध धर्मद्रोही होने का अभियोग लगाकर ३० अगस्त १६५९ ई. को उसे भी फांसी पर चढ़ा दिया। इस प्रकार अपने सभी भाइयों में औरंगजेब अकेला बच गया। उसने अनौपचारिक रूप से २१ जुलाई १६५८ को बादशाह शाहजहाँ को आजीवन कैद में डाल कर गद्दी प्राप्त कर ली थी। जून १६५९ में वह औपचारिक रूप से तख्तनशीन हुआ और 'आलमगीर' (विश्व-विजेता ) का खिताब धारण किया।
औरंगजेब की बड़ी बेगम दिलरास बानो के पाँच लड़के थे। उनमें से मुहम्मद को १६७६ ई. में गुप्तरीति से फांसी पर चढ़ा दिया गया। मुअज्जम उसका उत्तराधिकारी बना। आजम औरंगजेब की मृत्यु के बाद होनेवाले उत्तराधिकार युद्ध में मारा गया। अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उसे देश छोड़कर फारस भागना पड़ा, जहाँ १७०४ ई. में वह मर गया और कामबख्श १७०९ ई. में उत्तराधिकार-युद्ध के दौरान मारा गया।
अपने पूर्वाधिकारियों की भाँति औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य को बढ़ाने के लिए अथक् प्रयास किया। १६६१ ई. में उसने पालामऊ को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया। अगले वर्ष सेनापति मीर जुमला के नेतृत्व में मुगल सेना ने आसाम में गढ़गाँव पर चढ़ाई बोल दी जो उस समय अहोम राजाओं की राजधानी थी। अहोम राजा को मुगलों से सन्धि करनी पड़ी और वर्तमान दरंग जिले का काफी बड़ा हिस्सा मुगलों को देना पड़ा। हर्जाने की बड़ी रकम के अलावा सालाना नजराना देने की शर्त भी उसे माननी पड़ी। १६६६ ई. में मुगलों ने बंगाल की खाड़ी के संद्वीप और चटगाँवको जीत लिया। १६६७ ई. में पश्चिमोत्तर सीमापर अफगानों ने विद्रोह कर दिया, उसे १६७५ ई. तक दबा दिया गया। औरंगजेब के दरबार में मक्का के शरीफ और फारस के शाह, बलख, बुखारा, कासगर, खीवा और अबीसीनिया जैसे दूरवर्ती मुस्लिम देशों के राजदूत उपस्थित रहते थे।
१६७९ ई. में मुगलों और राजपूतों में लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें मेवाड़ के राणा ने मारवाड़ के राजा का साथ दिया। इस लड़ाई का अन्त १६७८१ ई. में दिल्ली और मेवाड़ की सन्धि से हुआ। १६८६ ई. में बीजापुर और १६८९ ई. में गोलकुंडा जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। १६८९ ई. में शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी सम्भाजी को मुगलों ने पकड़ कर मार डाला और उसकी राजधानी राजगढ़ पर अधिकार कर लिया। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी युवक शाहू को मुगल दरबार में बंदी बनाकर रखा गया। १६९१ ई. में विजयी औरंगजेब ने तंजौर और त्रिचिनापल्ली के हिन्दू राजाओं को खिराज देने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार मुगल साम्राज्य दक्षिण तक फैल गया।
इन विजयों के बावजूद सम्राट् औरंगजेब मुगलों का अन्तिम बड़ा बादशाह हुआ और दक्षिण के बुरहानपुर में १७०७ ई. में अपनी मृत्यु के पहले औरंगजेब के सामने ही मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया। औरंगजेब ने बहुत से क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था जिससे वह इतना विशाल हो गया था कि उसको एक व्यक्ति द्वारा एक केन्द्र से शासित करना दुःसाध्य था। जैसा सर यदुनाथ सरकार ने लिखा है, "एक अजगर की भाँति मुगल साम्राज्य ने इतना अधिक क्षेत्र लील लिया कि उसको वह हजम नहीं कर सका।" औरंगजेब की मृत्यु के पहले १६६७-७५ ई. के बीच अफगानों से युद्ध के परिणामस्वरूप सल्तनत की आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गयी। राजनीतिक दृष्टि से भी अफगानों से युद्ध बड़ा मंहगा पड़ा। इसके बाद ही बादशाह को राजपूतों से युद्ध करना पड़ा और वह उनके विरुद्ध पठान सैनिकों का इस्तेमाल नहीं कर सका। इसके परिणामस्वरूप शिवाजी (१६२७-८० ई.) के विरुद्ध मुगल साम्राज्य के पूरे साधनों का इस्तेमाल नहीं हो सका जो दक्षिण में स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना कर रहा था। मथुरा और उसके पड़ोस के क्षेत्रों में १६६९ ई. में जाटों ने विद्रोह का झंडा फहरा दिया। इसके बाद १६७१ ई. में बुंदेलखंड और मालवा में विद्रोह हुए। पटियाला रियासत के नारनौल में सतनामियों ने और अलवर के क्षेत्रमें मेवातियों ने १६७२ ई. में विद्रोह कर दिया। इन सभी विद्रोहों का सख्ती से दमन किया गया, लेकिन इनसे यह तो प्रकट ही हो गया कि मुगल साम्राज्य के विरुद्ध जनता में व्यापक रूप से रोष फैल रहा था। पंजाब में सिख शक्तिशाली होते जा रहे थे। औरंगजब के आदेश से सिखों के गुरू तेगबहादुर को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर फाँसी दे दी गयी। इस नृशंस कार्य से सिखों में बदला लेने की भावना भड़क उठी और वे मुगल साम्राज्य के शत्रु बन गये। आसाम में अहोमों पर १६६३ ई. में जो सन्धि थोपी गयी थी, उसको तोड़कर उन्होंने १६७१ ई. में अपने उन सब इलाकों को वापस ले लिया जिन्हें उनसे छीन लिया गया था। सम्भाजी को फांसी देने और शाहू को बंदी बना लेने से मराठों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को नष्ट नहीं किया जा सका और उन्होंने पहले सम्भाजी के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा और अपनी खोयी हुई अधिकांश भूमि को औरंगजेब के जीवन काल में ही वापस ले लिया। उन्होंने यह दिखा दिया कि औरंगजेब मराठों का दमन नहीं कर सकता है। १६८१ से १७०७ ई. तक औरंगजेब ने दक्षिण में जो सैनिक अभियान चलाया उससे उसको उतनी ही आर्थिक क्षति उठी पड़ी, जितनी नैपोलियन को स्‍पेन के अभियान में उठानी पड़ी थी। इसी प्रकार १६७९-८० ई. के राजपूत-युद्ध में यद्यपि औरंगजेब की विजय हुई तथापि उससे यह तो प्रकट ही हो गया कि औरंगजेब ने राजपतों का वह समर्थन खो दिया है जिसे अकबर ने अपने विवेक से प्राप्त किया था और जिनकी शक्ति के आधार पर मुगल साम्राज्य की शक्ति बढ़ी थी। औरंगजेब ने अपने प्रपितामह की नीति पूरे तौर से त्याग दी। अकबर की नीति के प्रतिकूल उसने मजहब को सल्तनत के ऊपर कर दिया और अपनी शाही ताकत का प्रयोग न तो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए, न अपने खानदान के लाभ के लिए और न अपनी रियाया के लाभ के लिए वरन् इस्लाम के प्रसार के लिए किया। वह कट्टर सून्नी मुसलमान था और उसने कुरान की शिक्षाओं के अनुसार अपने जीवन को ढालने तथा हुकूमत चलाने का प्रयास किया। वह ईमान का इतना पक्का था कि उसने मजहब के मामले में अपने को, अथवा अपने खानदान को कभी नहीं बख्शा। उसने खान-पान और पोशाक के मामले में कुरान की शिक्षाओं का पालन किया और एक पक्के मुसलमान की तरह जीवन बिताया। उसने विरासत में मिली अपनी सल्तनत को 'दारुल इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनाने का प्रयास किया। इस नीति के परिणामस्वरूप ही उसने हिन्दुओं के प्रति असहिष्णुता की नीति अपनायी और उनका दमन किया। हिन्दुओं पर उसने १६७९ ई. में फिर से 'जजिया' लगा दिया, जिसे अकबर ने १५६४ ई. में उठा लिया था। उसने सल्तनत के ऊँचे पदों पर हिन्दुओं को नियुक्त करना बन्द कर दिया और उनके ऊपर करों का बोझ बढ़ा दिया। उसने हिन्दुओं को नये मंदिर बनाने से रोक दिया और बहुत से पुराने मंदिरों को तोड़ डाला, जिनमें मथुरा का केशवदेव का मंदिर और बनारस का विश्वनाथ का मंदिर भी था। उसने मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह के नाबालिग लड़के को जबरन अपने कब्जे में करके उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की। उसने हिन्दुओं के लिए अपमानजनक कानून कायदे बनाये और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को मसजिदों की सीढ़ियों के नीचे रखवाया ताकि उन पर मुसलमानों के पैर पड़ें।
औरंगजेब ने यद्यपि लगभग आधी शताब्दी (१६५८-१७०७ ई.) तक शासन किया, तथापि वह इस खतरे को नहीं देख सका कि फिरंगियों की ताकत बढ़ती जा रही है। फिरंगियों ने उसके शासनकाल में भारत के विभिन्न भागों में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। औरंगजेब इस बात को समझ नहीं सका कि इन फिरंगियों की ताकत बढ़ने से सल्तनत को खतरा पहुँचेगा। उसने समुद्री मार्गों से फिरंगियों को आने से रोकने के लिए एक शक्तिशाली जंगी बेड़ा बनाने की आवश्यकता नहीं महसूस की। अतएव इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसकी मृत्यु के आधी शताब्दी के बाद ही फिरंगियों की ही एक कौम ने बड़ी चालाकी और मक्कारी के साथ हिन्दुओं के असंतोष, मुगलों के अधीनस्थ मुसलमान सूबेदारों की स्वतंत्र शासक बन जाने की महत्त्वाकांक्षा तथा हिन्दुस्तानियों की आपसी फूट से लाभ उठाकर मुगलवंश को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना कर दी। मुगलों में जो बड़े-बड़े बादशाह हुए, उनमें औरंगजेब अंतिम था। (जे. एन. सरकार - हिस्ट्री आफ औरंगजेब, खंड १-४; एडवर्ड्स एण्ड गैरेट-मुगल रूल इन इंडिया; ईलियट एण्ड डासन, खंड ७, पृ. २११-५३३ पर काफी खां लिखित मुंतखाब-उल-लुवाब)

औरंगजेब ने यद्यपि लगभग आधी शताब्दी (१६५८-१७०७ ई.) तक शासन किया, तथापि वह इस खतरे को नहीं देख सका कि फिरंगियों की ताकत बढ़ती जा रही है। फिरंगियों ने उसके शासनकाल में भारत के विभिन्न भागों में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। औरंगजेब इस बात को समझ नहीं सका कि इन फिरंगियों की ताकत बढ़ने से सल्तनत को खतरा पहुँचेगा। उसने समुद्री मार्गों से फिरंगियों को आने से रोकने के लिए एक शक्तिशाली जंगी बेड़ा बनाने की आवश्यकता नहीं महसूस की। अतएव इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसकी मृत्यु के आधी शताब्दी के बाद ही फिरंगियों की ही एक कौम ने बड़ी चालाकी और मक्कारी के साथ हिन्दुओं के असंतोष, मुगलों के अधीनस्थ मुसलमान सूबेदारों की स्वतंत्र शासक बन जाने की महत्त्वाकांक्षा तथा हिन्दुस्तानियों की आपसी फूट से लाभ उठाकर मुगलवंश को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना कर दी। मुगलों में जो बड़े-बड़े बादशाह हुए, उनमें औरंगजेब अंतिम था। (जे. एन. सरकार - हिस्ट्री आफ औरंगजेब, खंड १-४; एडवर्ड्स एण्ड गैरेट-मुगल रूल इन इंडिया; ईलियट एण्ड डासन, खंड ७, पृ. २११-५३३ पर काफी खां लिखित मुंतखाब-उल-लुवाब)

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