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Bharatiya Itihas Kosh

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उज्जयिनी
(जिसको अवन्तिका भी कहते हैं) -मालवा में स्थित भारत के प्राचीन नगरों में से एक। इसकी गणना हिन्दुओं की सात पवित्र नगरियों में की जाती है। ईसा से पूर्व सातवीं शताब्दी में यह अवन्ति राज्य की राजधानी थी जो बाद में मालवा के नाम से प्रसिद्ध हुई। ईसवी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों में यह शक क्षत्रपों (दे.) के आधिकार में आ गयी परन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय ने, जो तीसरा गुप्त सम्राट् था, पाँचवीं शताब्दी में इसे पुनः प्राप्त कर अपनी राजधानी बनाया। इस नगर का वर्णन प्रमुख रूप से कालिदास के साहित्यिक ग्रन्थों में हुआ है, जिन्होंने अपने मेघदूत (दे.) में इस नगर का चित्ताकर्षक वर्णन किया है। यह सिप्रा नदी के तट पर स्थित है और विभिन्न मन्दिरों, विशेष रूप से महाकाल के शिव मन्दिर से शोभायमान है।

उड़ीसा
भारतीय गणतंत्र का एक राज्य। यह भारत के पूर्वी समुद्रतट पर उत्तर में बंगाल और दक्षिण में आंध्र तक फैला हुआ है। प्राचीन काल में इसका नाम कलिंग (दे.) था और यह नंदवंश के शासक महापद्मनंद (दे.) के साम्राज्य का एक भाग था। नंदवंश के पतन के उपरांत कलिंग, मगध साम्राज्य से अलग हो गया, परन्तु सम्राट् अशोक ने उसे पुनः जीतकर मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस युद्ध की भीषण नरहत्या और लोगों के कष्ट का सम्राट् अशोक के हृदय पर इतना गंभीर प्रभाव पड़ा कि उसने बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। मौर्यवंश के पतन के उपरांत कलिंग (उड़ीसा) चेरवंशीय (दे.) राजाओं के काल में पुनः स्वतंत्र हो गया और खारवेल (दे.) के शासनकाल में इसकी शक्ति में विशेष उत्कर्ष हुआ। चौथी शताब्दी में यह प्रदेश गुप्त साम्राज्य का एक भाग था और सातवीं शताब्दी में यह सम्राट् हर्षवर्द्धन के साम्राज्य के अन्तर्गत था। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि हर्ष का अंतिम सैनिक अभियान ६४२ ई. में गंजाम के विरुद्ध हुआ था, जो इसकी दक्षिणी सीमा पर स्थित है। उपरांत उड़ीसा के इतिहास में एक अंधकार युग आता है। किंतु नवीं शताब्दी में भंजवंश की स्थापना के उपरांत यह प्रदेश पुनः प्रकाश में आया। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक रणभंज था, जिसने लगभग ५० वर्षों तक राज्य किया। १२ वीं शताब्दी के मध्य में पूर्वी गंग राजवंश ने उड़ीसा पर अपना अधिकार जमाया और इस वंश के शासक १४३४ ई. तक शासन करते रहे। इसी समय कपिलेन्द्र ने इस वंश के शासक को हराकर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। पूर्वी गंग वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक अनन्त वर्मा चोल गंग था, जिसने १०७६ से ११४८ ई. तक राज्य किया और पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया। पूर्वी गंगवंश के शासकों ने उत्तरी भारत के मुसलमानों और दक्षिण के बहमनी सुलतानों के आक्रमणों से उड़ीसा की रक्षा करके उसकी स्वतंत्रता नष्ट न होने दी। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में कुछ समय के लिए उड़ीसा ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर ली थी। १३५९ ई. में सुल्तान फीरोज तुगलक ने भी उड़ीसा पर आक्रमण किया, पर एक बड़ी संख्या में हाथियों के उपहार से संतुष्ट होकर वह वापस लौट आया। मुसलमान इति‍हासकारों ने उड़ीसा का उल्लेख जाजनगर के नाम से किया है, किंन्तु १५६८ ई. में बंगाल के सुल्तान सुलेमान करारानी ने उड़ीसा पर अधिकार कर लिया था। १५७२ ई. में बादशाह अकबर ने इसे मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया और उड़ीसा बंगाल प्रान्त का एक भाग बन गया। १७५१ ई. में बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ ने इसका कुछ भाग रघुजी भोंसला के अधीन मराठों को दे दिया। १८०३ ई. तक यह मराठा राज्य का एक भाग बना रहा और उसी वर्ष नागपुर के भोंसला राजा ने देवगाँव की संधि के फलस्वरूप इसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। १७६५ ई. में ही उड़ीसा का वह भाग जो बंगाल के नवाब के अधीन शेष रह गया था, कम्पनी के अधिकार में चला गया था, क्योंकि उसी वर्ष नवाब ने दीवानी के अधिकार कम्पनी को दे दिये थे। इस प्रकार उड़ीसा बंगाल प्रान्त के साथ जुड़ गया और १८५४ ई. तक वह सीधे गवर्नर जनरल द्वारा शासित प्रान्त रहा। १८५४ ई. में बंगाल और बिहार के साथ इसका शासन भी एक लफ्टीनेंट गवर्नर के हाथों सौंप दिया गया। १८६६-६७ ई. में यहाँ भीषण दुर्भिक्ष पड़ा। १९१२ ई. में इसे बंगाल से अलग कर दिया गया, किन्तु बिहार के साथ अलग प्रान्त के रूप में यह जुड़ा रहा। अंततोगत्वा १९३५ ई. में उड़ीसा एक पृथक् प्रान्त बन गया और आज भी यह भारतीय गणतंत्र का पृथक् प्रदेश बना हुआ है।

उत्तरकुरु
भारतीय आर्यों का एक भाग, जिसका उल्लेख 'ऐतरेय ब्राह्मण' में मिलता है। वे हिमालय के उस पार रहते थे।

उत्तर पश्चिमी सीमा प्रदेश
का निर्माण १९०१ ई. में हुआ, जब लार्ड कर्जन भारत का वायसराय था। सर्व प्रथम लार्ड लिटन (१८७६ से १८८० ई.) ने सीमान्त प्रान्त की रचना का सुझाव दिया था और इस प्रान्त में सिन्ध तथा पंजाब के कुछ भागों को भी सम्मिलित करने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु उस समय उसका सुझाव न माना गया। लार्ड कर्जन ने सिंध और पंजाब के प्रान्तों को नवनिर्मित सीमान्त प्रदेश से अलग रखा और डूरण्ड रेखा के पूर्व के समस्त पख्तून भू-भागों तथा हजारा, पेशावर, कोहाट, बन्नू और डेरास्माइल खाँ के व्यवस्थित जिलों को मिला कर इस प्रान्त को एक अलग राजनीतिक इकाई का रूप दिया। इस प्रदेश का शासन चीफ़ कमिश्नर के हाथों सौंपा गया, जो सीधे वायसराय के नियंत्रणमें कार्य करता था। वायसराय की सहायता राजनीतिक विभाग के सदस्य अपने परामर्शों से करते थे। उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त की रचना के फलस्वरूप तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रांत का नाम बदलकर आगरा और अवध का संयुक्त प्रान्त रख दिया गया, जिसे साधारणतया यू. पी. (वर्तमान उत्तर प्रदेश) कहा जाने लगा। १९३२ ई. में उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेश गवर्नर द्वारा शासित होने लगा और वहाँ विधान सभा भी बन गयी। स्वतंत्रता के उपरांत भारत के विभाजन के फलस्वरूप यह पाकिस्तान का एक भाग बन गया।

उत्तर-मद्र
भारतीय आर्यों का एक गण, जो उत्तरकुरु की भाँति हिमालय के उस पार रहता था।

उत्पल वंश
कश्मीर में अवन्तिवर्मा (८५५-८३) द्वारा ८५५ ई. के लगभग प्रतिस्थापित। अवन्तिवर्मा के शासनकाल में कश्मीर में सिंचाई की व्यवस्था अच्छी थी। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी शंकरवर्मा (८८३-९०२ ई.) ने सर्वप्रथम अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया, परन्तु अन्ततः अपनी ही प्रजा के हाथों जिसको उसने अत्यधिक कर-भार और मंदिरों की लूट से पीड़ित कर रखा था, मार डाला गया। इसके बाद कुछ काल तक अराजकता का युग रहा जिससे कश्मीर को भारी क्षति उठानी पड़ी। तत्पश्चात् दो राजा- पार्थ और उसका पुत्र उन्मत्तावन्ती- रक्त-पिपासु क्रूर शासक हुए। यह वंश उन्मत्तावन्ती की मृत्यु के साथ ही ९३९ ई. में समाप्त हो गया।

उदगिरि का युद्ध
फरवरी 1760 ई. में निजाम और मराठों के बीच हुआ। तत्कालीन पेशवा बालाजी बाजीराव (दे.) के चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में मराठों और हैदराबाद के निजाम की मुठभेड़ हुई।निजाम निर्णयात्मक रूप से पराजित हुआ और मराठों की महत्त्वाकांक्षा बलवती हो उठी।

उदय (या उदायी)
ई. पू. ४४३ के लगभग मगध का एक शासक। यह अजातशत्रु (दे.) का पौत्र एवं दर्शक (दे.) का पुत्र था। इसने सोन नदी के तट पर स्थित पाटिलपुत्र से कुछ मील दूर गंगा के किनारे कुसुमपुर नगर की स्थापना की। बाद में कुसुमपुर बृहत्तर पाटिलपुत्र (दे.) का भाग बन गया।

उदयपुर की संधि
१८१८ ई. में उदयपुर के राणा और अंग्रेजी सरकार के बीच संपन्न। इसके अनुसार अंग्रेज प्रतिनिधि सर चार्ल्स मेटकाफ के प्रयास से मेवाड़ (उदयपुर) के राणा अंग्रेजों के आश्रित हो गये।

उदय सिंह
मेवाड़ का राणा। वह १५२७ ई. में बाबर के साथ युद्ध करनेवाले राणा संग्राम सिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उदय सिंह में न तो अपने पिता जैसा साहस था और न मातृभूमि-प्रेम। दुर्भाग्य से उसको मुगल सम्राट् अकबर का मुकाबला करना पड़ा, जिसने १५६७ ई. में मेवाड़ पर चढ़ाई करके चितौड़ को घेर लिया। उदय सिंह ने चित्तौड़ की सुरक्षा में व्यक्तिगत रूप से कोई भाग नहीं लिया। चार महीने के घेरे के बाद चितौड़ अकबर के अधिकार में आ गया। उदय सिंह ने चित्तौड़ की पुनःप्राप्ति के लिए कोई प्रयास नहीं किया वरन् अपनी नयी राजधानी में, जिसे उसने उदयपुर में स्थापित किया था, भोग-विलास में लीन हो गया। उसने १५७२ ई. में अपनी मृत्यु तक उदय पुर पर, अपयश का भागी बनकर, राज्य किया। उसका यशस्वी पुत्र राणा प्रताप सिंह (दे.) उत्तराधिकारी बना।


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