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Bharatiya Itihas Kosh

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डंकन, जोनाथन (१७५६-१८११ ई.)
ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में १७७२ ई. में भारत आया। उसे १७७८ ई. में बनारस स्थित रेजीडेण्ट एवं सुपरिण्टेण्डेण्ट बनाया गया, जहां उसने प्रशासन का सुधार और शिशुबलि की कुप्रथा का निवारण किया। बाद में १७९५ से १८११ ई. तक वह बम्बई का गवर्नर रहा और काठियावाड़ में भी प्रचलित शिशुबलि की कुप्रथा का निवारण किया। इस प्रकार उसने एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार का श्रीगणेश किया। बम्बई के गवर्नर की हैसियत से उसने चतुर्थ मैसूर युद्ध (दे.) (१७९९ ई) और दूसरे मराठा-युद्ध (दे.) (१८०३-०५ ई.) में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। मिस्र के विरुद्ध बैर्ड के अभियान (१८०१ ई.) को संगठित करने तथा गुजरात एवं काठियावाड़ में शान्ति स्थापित करने में भी उसने विशेष योगदान किया। उसकी कब्र पर लगे पत्थर में ठीक ही लिखा है कि वह 'सज्जन और न्यायप्रिय व्यक्ति' था।

डंडास, हेनरी
पिट के इण्डिया ऐक्ट (१७८४ ई.) के अन्तर्गत स्थापित बोर्ड आफ कण्ट्रोल का प्रथम अध्यक्ष। १७८६ ई. में उसने वारेन हैस्टिंग्स द्वारा संचालित रोहिल्ला युद्ध को पार्लमेण्ट में उचित ठहराया, लेकिन बाद में वारेन हैस्टिंग्स पर चलाये गये महाभियोग का समर्थन किया। विशेषताया बनारस के राजा चेतसिंह तथा अवध की बेगमों के मामलों में उसने वारेन हैस्टिंग्स की कटु आलोचना की। १८०२ ई. में डंडास लार्ड मेलविले बना दिया गया। १८०६ ई. में स्वयं उस पर सार्वजनिक धन के घोटाले और कर्तव्य-अवहेलना का आरोप लगाकर महाभियोग चलाया गया; लेकिन वह बरी कर दिया गया। बोर्ड आफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष की हैसियत से उसने बड़ी योग्यता तथा प्रशासनिक कुशलता का परिचय दिया। उसने बोर्ड आफ कंट्रोल को वस्तुतः एक सरकारी विभाग का रूप दे दिया और उसके अध्यक्ष के पद को भारतमंत्री के पद का समकक्ष बना दिया।

डच ईस्ट इंडिया कम्पनी
अथवा नीदरलैंड की यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कम्पनी, की स्थापना १६०२ ई. में हुई। इस कम्पनी के पास बहुत अधिक वित्तीय साधन थे और इसे डच सरकार का भी समर्थन प्राप्त था। शुरू में अंग्रेजों की तरह डच लोगों का भी पुर्तगालियों ने विरोध किया, क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी के सहयोग से पूर्व में पुर्तगालियों के व्यापार पर एकाधिकार को चुनौती देकर व्यापार में हिस्सा बंटा लिया। डच इंडिया कम्पनी ने अपना ध्यान मुख्यरूप से मसालेवाले द्वीपों से व्यापार पर केन्द्रित किया और १६२३ ई. के अम्बोला हत्याकांड के बाद वहां से अंग्रेजों को पूर्णरूप से निकाल बाहर करने में सफल हो गयी। किन्तु भारत में डच कम्पनी को उतनी सफलता नहीं मिली। पूलीकट और समुलीपट्टम में उसकी व्यापारिक कोठियां मद्रास स्थित अंग्रेजी कम्पनी की बराबरी कभी नहीं कर सकीं और बंगाल में चिनसुरा स्थित उसकी कोठी शीघ्र ही कलकत्ता स्थित अंग्रेजी कोठी के सामने फीकी पड़ गयी। १७५९ ई. के विदर्रा युद्ध (दे.) में अंग्रेजों ने चिनसुरा के डचों को परास्त कर दिया। इसके बाद डच लोगों ने बंगाल तथा सम्पूर्ण भारत में राजनीतिक शक्ति बनने का इरादा छोड़ दिया और अंग्रेजों के साथ शांति-संधि कर ली और भारत के साथ उनका व्यापार फलता-फूलता रहा। डच कम्पनी ने मलय द्वीपसमूह में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। इन द्वीपों पर उनका अधिपत्य सन् १९५२ तक रहा, जब उन्होंने इंडोनेशिया की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी।

डच ईस्ट इंडिया
मसालेवाले जावा तथा मोलुक्कास द्वीपों का सम्मिलित राज्य। १७वीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में डचों (हालैण्डवासियों) ने इन द्वीपों में अपनी व्यापारिक कोठियां स्थापित कीं और अंग्रेजों को वहां अपना पैर जमाने नहीं दिया, यहां तक कि १६२३ ई. में उन्होंने अम्बोयना में अंग्रेजों का कत्लेआम करके वहां से उनका सफाया कर दिया। उन्होंने बटाविया (जावा) को अपना सदर मुकाम बनाया, जहां से वे मलयद्वीप-समूह के अधिकांश भाग पर शासन करते थे। फलतः मलय-द्वीपसमूह डच ईस्ट इंडीज के नाम से जाना जाने लगा। १९वीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में जब फ्रांस के नैपोलियन ने हालैण्ड पर अधिकार जमाया, तो मलय द्वीप भी उसके नियन्त्रण में आ गया।
उस समय भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो (प्रथम) था। उसने मलय-द्वीपसमूह पर कब्जा करने का निश्चय किया। इसके लिए उसने विशेष तैयारी की। १८१० ई. में ब्रिटिश भारतीय फौज ने अम्बोयना और मसालेवाले द्वीपों पर अधिकार कर लिया। दूसरे वर्ष मिण्टो ने १२ हजार नौसैनिकों का बेड़ा सर सैमुअल अकमूटी के नेतृत्व में भेजा जिसने पहले मलक्का में लंगर डाला। लार्ड मिण्टो स्वयं इस बेड़े के साथ था। इन सैनिकों ने बटाबिया पर आसानी से अधिकार कर लिया। इसके बाद कोर्नेलिस के किले के लिए फ्रांसीसी जनरल जैन्सेन्स, जिसे नैपोलियन ने कमांडर नियुक्त किया था और अंग्रेजी फौज के बीच घोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में विजय के फलस्वरूप सम्पूर्ण मलय-द्वीपसमूह अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। लार्ड मिण्टो इस द्वीपसमूह का प्रशासन स्टैम्फोर्ड रैफिल्स के जिम्मे छोड़कर भारत वापस आ गया। लेकिन जब १८१५ ई. में वियना की संधि के फलस्वरूप यूरोप में शांति स्थापित हुई, तो १८१६ ई. में डच ईस्ट इंडीज (मलय-द्वीपसमूह) हालैण्ड को वापस कर दिया गया। अब यह इण्डोनेशिया के स्वाधीन गणतंत्र के अंतर्गत है।

डफरिन, फ्रेडरिक टेम्पिल हैमिल्टन-टेम्पल ब्लैकाउड, मार्क्विस आफ
१८८४ से १८८८ ई. तक भारत का वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। सामान्य तौर पर उसका शासनकाल शांतिपूर्ण था, वैसे तृतीय बर्मा-युद्ध (दे.) (१८८५-८६ ई.) उसी के कार्यकाल में हुआ जिसके फलस्वरूप उत्तरी बर्मा ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का अंग बन गया। रूसी अफगान सीमापर स्थित पंजदेह पर रूसियों का कब्जा हो जाने के फलस्वरूप रूस तथा ब्रिटेन के बीच युद्ध का खतरा पैदा हो गया था, लेकिन अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर्रमान (दे.) (१८८०-१९०१ ई.) के शांति-प्रयास तथा लार्ड डफरिन की विवेकशीलता से युद्ध नहीं छिड़ने पाया। लार्ड डफरिन के कार्यकाल में ही १८८५ ई. का बंगाल लगान कानून बना, जिसके अंतर्गत किसानों को भूमि की सुरक्षा की गारंटी दी गयी, न्याययुक्त लगान निर्धारित किया गया तथा जमींदारों द्वारा बेदखल किये जाने के अधिकार को सीमित कर दिया गया। किसानों के हित के लिए इसी प्रकार के कानून अवध और पंजाब में भी बनाये गये। लार्ड डफरिन के कार्यकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है १८८५ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन बम्बई में होना। उस समय इस घटना की महत्ता नहीं आंकी गयी, लेकिन बाद में इसी संगठन के माध्यम से भारत को १९४७ ई. में स्वाधीनता प्राप्त हुई और तभी से भारतीय गणराज्य का शासन इस पार्टी के हाथ में है। (सर अल्फ्रेड लायल कृत 'लाइफ आफ मार्क्विस आफ डफरिन ऐण्ड आवा')

डफरिन, लेडी हैरियट जार्जियाना
१८६२ ई. में लार्ड डफरिन के साथ विवाह हुआ। भारत में रहते हुए उसने 'नेशनल एसोसियेशन' नामक संस्था की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय महिलाओं के लिए पश्चिमी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करना था। एसोसियेशन ने काउण्टेस आफ डफरिन फण्ड की स्थापना की, जिससे कलकक्ता में लेडी डफरिन अस्पताल खोला गया।

डफ, रेवरेण्ड अलेक्जेण्डर
कलकत्ता में १८३० से १८६३ ई. तक स्काटिश प्रेसबिटेरियन पादरी। संभवतः १८२३ ई. में राजा राममोहन राय के अनुरोध पर चर्च आफ स्काटलैण्ड ने डफ को भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के लिए भेजा। राजा राममोहन राय ने उसका भारी स्वागत किया और उन्हीं की सहायता से डफने १८३० ई. में जनरल असेम्बलीज इनस्टीट्यूशन नामक अंग्रेजी स्कूल खोला। कालांतर में इस स्कूल ने कालेज का रूप धारण कर लिया। पहले इसका नाम डफ कालेज था, लेकिन बाद में स्काटिश चर्च कालेज हो गया।
डफ ने बंगाल में शिक्षा-प्रसार तथा समाज-सुधार के लिए बहुत कुछ किया। उसने भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। कलकत्ता विश्वविद्यालय खुलने पर वह उसकी प्रबन्ध समिति का आरम्भिक सदस्य रहा। १८५९ ई. से कई वर्षों तक वह बेथून सोसाइटी का अध्यक्ष रहा। वह पादरी था और भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के उद्देश्य से आया था। अपनी पुस्तक 'इण्डिया ऐण्ड इण्डियन मिशन्स' में उसने हिन्दू धर्म के बारे में यहां तक लिख डाला है कि "पतित व्यक्तियों के विकृत मस्तिष्क ने जिन झूठे धर्मों की सृष्टि की, उनमें हिन्दू धर्म सबसे आगे है।" स्वभावतः भारतीय विद्वानों और आमजनता में डफ के विरुद्ध भीषण आक्रोश उत्पन्न हुआ। केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने डफ का कड़ा विरोध किया। बंगाल के कुछ ही पढ़े-लिखे लोगों को वह ईसाई बनाने में सफल हो सका और निराश होकर १८६३ ई. में हुई। (स्मिथ लिखित 'लाइफ आफ अलेक्जैण्डर डफ')
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डफला
आसाम की पूर्वोत्तर सीमा (जो डफला पर्वतमाला से लेकर आधुनिक दारंग जिले के उत्तर तक फैली हुई है) में रहनेवाली एक जन-जाति।

डलहौज़ी, लार्ड
१८४८ से १८५६ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। उसके प्रशासनकाल में ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का विपुल विस्तार हुआ और शासन-सुधार के अनेक कदम उठाये गये। उसके कार्यकाल में दूसरा सिख युद्ध (१८४८-४९) हुआ और पंजाब को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया। १८५० ई. में दो अंग्रेजों के प्रति दुर्व्यवहार के दंडस्वरूप उसने सिक्किम के एक भाग पर अधिकार कर लिया और १८५३ ई. में उसने दूसरा बर्मी युद्ध छेड़कर प्रोम नगर तक सम्पूर्ण उत्तरी बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया। इस प्रकार ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य पेशावर से बर्मा तक फैल गया, जिसमें बंगाल की खाड़ी का पूरा तटवर्ती प्रदेश शामिल था। उसके मतानुसार भारतीयों के लिए देशी राजाओं के शासन की अपेक्षा ब्रिटिश शासन अधिक हितकर था। इसलिए उसने जब्ती का सिद्धांत (डाक्ट्रिन आफ लैप्स) (दे.) ईजाद किया, जिसके अनुसार यदि ब्रिटिश सरकार द्वारा संरक्षित कोई देशी राजा निस्संतान मर जाता है तो उसके दत्तक पुत्र को राज्य प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा और उसके राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जायगा। इस सिद्धान्त को लागू करके उसने सतारा (१८४८ ई.), जैतपुर तथा संभलपुर (१८४९ ई.), बाघाट (१८५० ई.), उदयपुर (१८५२ ई.), झांसी (१८५३ ई.), नागपुर (१८५४ ई.) और करौली (१८५५ ई.) को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। बाघाट, उदयपुर और करौली के राज्य बाद को उच्च अधिकारियों के आदेश पर दत्तक पुत्रों को लौटा दिये गये। डलहौज़ी ने कर्नाटक और तंजोर की नाममात्र की स्वाधीनता को भी यह कहकर समाप्त कर दिया कि अब उनके स्वतंत्र अस्तित्व की कोई आवश्यकता नहीं है। १८५३ ई. में भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु पर उसने उसके दत्तकपुत्र ढोण्ढू पंत (जो नाना साहब के नाम से अधिक विख्यात हैं) को दी जानेवाली ८० हजार पौण्ड सालाना की वह पेंशन बंद कर दी जो उसके धर्मपिता बाजीराव को मिलती थी। अंतमें निदेशकमंडल (कोर्ट आफ डायरेक्टर्स) के आदेशपर डलहौज़ीने १८५६ ई. में अवधको भी ब्रिटिश साम्राज्यमें मिला लिया। इस प्रकार आठ वर्षोंके अल्प शासनकालमें उसने भारतका राजनीतिक मानचित्र एकदम बदल दिया।
आंतरिक प्रशासन में भी डलहौज़ी ने अनेक सुधार किये। बंगाल का प्रशासन उसने लेफ्टिनेंट-गवर्नर (१८५४) के सुपुर्द कर दिया। सार्वजनिक निर्माण विभाग स्थापित करके उसे ग्राण्ड ट्रंक रोड आदि सड़कों के निर्माण और रख-रखाव का भार सौंप दिया। उसके प्रशासनकाल में सार्वजनिक निर्माण के कार्यों पर अधिक पैसा खर्च होने लगा। सिंचाई व्यवस्था पर पहले से कहीं अधिक ध्यान दिया गया और गंगा नहर का निर्माण उसीने शुरू कराया। रेलवे लाइन बिछाने की एक सुविचारित योजना तैयार की गयी और १८५३ ई. में बम्बई से थाना तक पहली रेल लाइन का उद्घाटन हुआ। १८५४ ई. में कलकत्ता और रानीगंज के बीच दूसरी रेलवे लाइन चालू हुई। तार-व्यवस्था का श्रीगणेश भी डलहौज़ी के ज़माने में ही हुआ और देशभर में दो पैसे (तीन नया पैसा) की सामान्य दर पर डाक प्रणाली आरंभ की गयी। भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए उसने १८५४ ई. की शिक्षा संबंधी घोषणा क्रियान्वित की और कलकत्ता बम्बई एवं मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए प्रारंभिक कदम उठाये।
लार्ड डलहौज़ी स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति का प्रशासक था और जो कुछ उचित और लाभदायक समझता था, वहीं करता था। वह दूसरों, विशेषरूप से भारतीयों की भावनाओं की कोई परवा नहीं करता था और उसने भारतीय राजाओं और साधारण जनता दोनों के ही मन में गहरा असंतोष उत्पन्न कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप १८५७ ई. में प्रथम स्वाधीनता-संग्राम (सिपाही-विद्रोह) छिड़ गया। (सर ली वार्नर कृत 'लाइफ आफ डलहौज़ी')

डायर, जनरल
ब्रिटिश भारतीय सरकार का एक सेनाधिकारी। अप्रैल १९१९ ई. में वह अमृतसर (पंजाब) में तैनात था। इस वर्ष के आरम्भ में रौलट ऐक्ट नामक अत्यंत दमनकारी कानून बनाया गया। केन्द्रीय विधान परिषद के गैर-सरकारी (निर्वाचित) सदस्यों के विरोध के बावजूद यह कानून पास किया गया था। भारतीय जनमत की इस प्रकार की घोर उपेक्षा किये जाने से समस्त भारत में रोष उत्पन्न हुआ और दिल्ली, गुजरात, पंजाब आदि प्रान्तों में जगह-जगह इस कानून के विरोध में प्रदर्शन हुए। १० अप्रैल को अमृतसर में जो प्रदर्शन हुआ, वह अधिक उग्र हो गया और उसमें चार यूरोपियन मारे गये, एक यूरोपीय ईसाई साध्वी को पीटा गया और कुछ बैकों और सरकारी भवनों को आग लगा दी गयी।
पंजाब सरकार ने तुरन्त बदले की कार्रवाई करने का निश्चय किया और एक घोषणा प्रकाशित कर अमृतसर में सभाओं आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा नगर का प्रशासन जनरल डायर के नेतृत्व में सेना के सुपुर्द कर दिया। उक्त प्रतिबन्ध को तोड़कर जलियांवाला बाग में सभा आयोजित की गयी। यह स्थान तीन तरफ से घिरा हुआ था। केवल एक ही तरफ से आने-जाने का रास्ता था। इस सभा का समाचार पाते ही जनरल डायर अपने ९० सशस्त्र सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग आया और बाग में प्रवेश एवं निकास के एकमात्र रास्ते को घेर लिया। उसने आते ही बाग में निश्शस्त्र पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को बिना किसी चेतावनी के गोली मारने का आदेश दिया। यह गोलीकाण्ड १० मिनट तक होता रहा। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ३७९ व्यक्ति मारे गये तथा १२०८ घायल हुए। हताहतों के उपचार की कोई व्यवस्था नहीं की गयी और जनरल डायर सैनिकों के साथ सदर मुकाम वापस आ गया, मानो उसने एक ऊँचे कर्तव्य का पालन किया हो।
डायर कदाचित् कुछ यूरोपियनों की हत्या के इस प्रति शोध को पर्याप्त नहीं समझता था। अतएव उसने नगर में मार्शल-ला लागू किया, जनता के विरुद्ध कठोर दण्डात्मक कार्रवाई तथा सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाये जाने की अपमानजनक आज्ञा दी। यह आदेश भी दिया कि जो भी भारतीय उस स्थान से गुजरे, जहां यूरोपीय ईसाई साध्वी को पीटा गया था वह सड़क पर पेट के बल रेंगता हुआ जाय। डायर की यह कार्रवाई भारतीयों का दमन करने के लिए नृशंस शक्ति-प्रयोग का नग्न प्रदर्शन थी। समस्त भारत में इसका तीव्र विरोध हुआ। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने घृणापूर्वक 'सर' की उपाधि सरकार को वापस कर दी। लेकिन ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस सार्वजनिक रोष प्रदर्शन की कोई परवाह नहीं की। इतना ही नहीं, पंजाब सरकार ने जनरल डायर की इस बेहुदी कार्रवाई पर अपनी स्वीकृति प्रदान की और उसे सेना में उच्च पद देकर अफगानिस्तान भेज दिया।
फिर भी इंग्लैण्ड में कुछ भले अंग्रेजों ने जनरल डायर की कार्रवाई की निंदा की। एस्किवथ ने जलियांवाला बाग काण्ड को "अपने इतिहास के सबसे जघन्य कृत्यों में से एक" बताया। ब्रिटिश जनमत के दबाव से तथा भारतीयों की व्यापक मांग को देखते हुए भारत सरकार ने अक्तूबर १९१९ में एक जांच कमेटी नियुक्त की, जिसका अध्यक्ष एक स्काटिश जज, लार्ड हण्टर बनाया गया। कमेटी ने जांच के पश्चात् अपनी रिपोर्ट में जनरल डायर की कार्रवाई को अनुचित बताया। भारत सरकार ने उक्त रिपोर्ट को मंजूर करते हुए जनरल डायर की निंदा की और उसे इस्तीफा देने के लिए विवश किया। लेकिन साम्राज्य-मद में चूर अंग्रेजों में जनरल डायर के बहुत से प्रशांसक भी थे, जिन्होंने चन्दा करके धन एकत्र किया और उससे जनरल डायर को पुरस्कृत किया। (देखिये 'हण्टर कमेटी की रिपोर्ट' तथा पट्टाभिसीतारामैया कृत 'कांग्रेस का इतिहास' प्रथम भाग, पृष्ठ १६५)
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