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Bharatiya Itihas Kosh

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जकात
मुसलमान बादशाहों के द्वारा लागू किया गया एक कर, जो उनकी मुसलमान प्रजा पर लगाया जाता था। यह व्यक्ति की उपार्जित आय का दो प्रतिशत होता था और इससे प्राप्त होनेवाली धनराशि खैरात के रूप में मुसलमानों में बांट दी जाती थी।

जगतसिंह
आमेर के मानसिंह का पुत्र। बादशाह अकबर के राज्यकाल में मानसिंह अनेक ऊँचे पदों पर रहा। मानसिंह जब बंगाल का सूबेदार था तब जगतसिंह उसका नायब था। अक्तूबर १५९९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

जगतसिंह, मेवाड़ का राणा
मेवाड़ के राणा प्रताप का पौत्र और राणा अमरसिंह का पुत्र। वह बादशाह जहाँगीर का समसामयिक था। उसके राज्यकाल में जगतसिंह ने चित्तौड़ का किला फिरसे बनवाया। उसने बादशाह शाहजहाँ (१६२८-५८ ई.) के हुक्म को मानने से इनकार कर दिया। इस पर उसका मानभंग करने के लिए १६५४ ई. में शाहजहाँ के हुक्म से चित्तौड़ का किला ढहा दिया गया।

जगत सेठ
यह उपाधि १७२३ ई. के आसपास दिल्ली के बादशाह ने बंगाल के एक बहुत अधिक धनी महाजन, मानिकचंद के भतीजे तथा गोद लिये हुए लड़के फतहचंद को प्रदान की थी। जगत सेठ की कोठियाँ ढाका और पटना में भी थीं। उसकी मुख्य कोठी मुर्शिदाबाद में थी। उसकी अतुल सम्पत्ति का उल्लेख उस काल के अनेक राजनीतिक लेखों, क्लाइव तथा बर्क जैसे अंग्रेज राजनेताओं के भाषणों में मिलता है। उसका कारोबार 'बैंक आफ इंग्लैंड से मिलता जुलता' था। उसकी कोठी केवल रुपये का लेन-देन ही नहीं करती थी, बंगाल की सरकार की ओर से ऐसे अनेक कार्य भी करती थी, जो अठारहवीं शताब्दी में 'बैंक आफ इंग्लैंड' ब्रिटिश सरकार की ओर से करता था। वह बंगाल में चाँदी की खरीद करती थी। उसने मुर्शिदाबाद में एक टकसाल खोलने में मदद की थी। वह प्रांतीय सरकार की ओर से जमींदारों की मालगुजारी वसूल करती थी, शाही खजाने को दिया जानेवाला आय का भाग दिल्ली भेजती थी और बंगाल में वाणिज्य-व्यवसाय के जरिये जितने सिक्के आते थे उनकी विनिमय-दर का नियंत्रण करती थी।
दूसरा जगत सेठ फतहचंद का पौत्र महताबचंद हुआ। वह १७४४ ई. में वारिस बना। उसका तथा उसके चचेरे भाई तथा साझेदार महाराज स्वरूपचंद का नवाब अलीवर्दी खां (दे.) के दरबार में बड़ा प्रभाव था। अलीवर्दी खां के उत्तराधिकारी, नवाब सिराजुद्दौला (दे.) ने उसे अपमानित किया तथा अपना विरोधी बना लिया। उसने उसके विरुद्ध अंग्रेजों से साजिश की और पलासी की लड़ाई (दे.) से पहले और बाद में अंग्रेजों की रुपये-पैसे से भारी मदद की। मीरजाफर (दे.) के नवाब होने पर उसे फिर पहले जैसा सम्मान और प्रभाव प्राप्त हो गया, परंतु नवाब मीरकासिम (दे.) उससे बहुत अधिक नाराज हो गया। उसे जगत सेठ की वफादारी पर संदेह था और १७६३ ई. में नवाब के आदेश से उसे मार डाला गया। इसके बाद ही बंगाल का प्रशासन नवाब के हाथों से अंग्रेजों के हाथ में आ गया। उन्होंने बेईमानी करके ईस्ट इंडिया कंपनी के ऊपर जगत सेठ का कोई कर्ज होने से इनकार कर दिया। इन सब घटनाओं के फलस्वरूप जगत सेठ के घराने का शीघ्रता से ह्रास हो गया और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उसका वैभव समाप्त हो गया, हालांकि जगत सेठ की उपाधि महताबचंद के उत्तराधिकारियों की छह पीढ़ियों को मिलती रही। बाद के जगत सेठ ब्रिटिश भारतीय सरकार के छोटे मोटे पेंशनरों से अधिक हैसियत नहीं रखते थे। अंतिम जगत सेठ फतहचंद हुआ, जिसे यह उपाधि १९१२ ई. में मिली। उसकी मृत्यु के बाद उसके वारिसों को फिर यह उपाधि नहीं दी गयी।

जगत सेठ फतहचंद
जगत सेठ घराने के संस्थापक मानिक चंद का भतीजा तथा गोद लिया हुआ लड़का। उसे जगत सेठ की उपाधि मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने १७२३-२४ ई. में प्रदान की। उसी के जीवनकाल में जगत सेठ का घराना प्रतिष्ठा और समृद्धि के चरम शिखर पर पहुंचा। फतहचंद जगत सेठ १७१२ से १७४४ ई. तक अपने परिवार का मुखिया रहा। नवाब मुर्शिदकुली खां और उसके देहांत के बाद नवाब अलीवर्दी खां (१७४०-५६ ई.) पर उसका भारी प्रभाव था।

जगदीशपुर
बिहार में है। गदर में वहां के जमींदार कुँवर सिंह (दे.) की शानदार सफलताओं से यह स्थान प्रसिद्ध हो गया है।

जगन्नाथ मंदिर
पुरी, उड़ीसा में है। इसका निर्माण उड़ीसा के राजा अनंत वर्मा चोड़-गंग (लगभग १०७६-११४८ ई.) ने कराया था। यह वास्तुकला का अद्भुत नमूना है और कई शताब्दियां बीत जाने पर भी काल का प्रभाव इस पर बहुत थोड़ा पड़ा है। सारे भारत से हजारों धर्मप्रेमी हिन्दू यात्री और विदेशी पर्यटक इसे अब भी देखने आते हैं।

जजिया
एक मुंड-कर, जो कानून के अनुसार यहूदियों ओर ईसाइयों से लिया जाता था, परन्तु मुसलमान विजेताओं ने इसे भारत में हिन्दुओं पर भी लगा दिया। मुहम्मद बिन कासिम ने ७१२ ई. में जब सिंध जीता तब जजिया पहली बार लगाया गया। विजित हिन्दुओं को यह कर देना पड़ता था और सम्पत्ति के अनुसार यह कर उनसे लिया जाता था। भारत में मुसलमानी शासन का विस्तार होने पर यह कर सारे भारत के हिन्दुओं पर लगा दिया गया। प्रारम्भ में ब्राह्मणों को इस कर से मुक्त रखा गया था, परन्तु फीरोज शाह तुगलक (१३५१-८८ ई.) (दे.) के राज्यकाल में ब्राह्मणों पर भी यह कर पहले-पहल लगाया गया। बादशाह अकबर ने जब १५६४ ई. में यह कर उठा लिया तो हिन्दुओं ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, परन्तु औरंगजेब ने १६७९ ई. में यह फिर लगा दिया। इस धार्मिक असहिष्णुता से हिन्दुओं में बड़ी नाराजी फैली और औरंगजेब एवं राजपूतों के बीच लम्बी लड़ाई चली। इसके फलस्वरूप औरंगजेब ने मेवाड़ को जजिया से बरी कर दिया। बादशाह फर्रुखसियर ने १७१३ ई. में गद्दी पर बैठने पर यह कर उठा लिया, परन्तु १७१७ ई. में फिर लागू कर दिया। इसके बाद, यह कर हालांकि किताबी ढंग से जायज बना रहा, परन्तु बादशाह मुहम्मदशाह (१७१९-४८ ई.) के समय से इसका वसूल किया जाना बंद कर दिया गया। जब दिल्ली की हुकूमत मजबूत थी तब इस कर से काफी आय होती थी, परन्तु बाद के मुगल शासकों के समय इसकी आय काफी कम हो गयी होगी। यह अन्यायपूर्ण कर था और इसीलिए इस कर के वसूल किये जाने से हिन्दुओं में नाराजी फैलती थी।

जझौती
जेजाकभुक्ति (दे.) का दूसरा नाम है।

जनगणना
का ज्ञान प्राचीन भारत में था। मेगस्थनीज ने लिखा है कि चन्द्रगुप्त मौर्य (३२५-२९८ ई. पू.) के शासनकाल में पाटलिपुत्र नगरपालिका का एक काम नागरिकों के जन्म और मृत्यु का लेखा-जोखा रखना था। अर्थशास्त्र (दे.) में भी जनगणना के स्थायी प्रबंध का उल्लेख है। लेकिन बाद में जनगणना की परम्परा लुप्त हो गयी। आधुनिक काल में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस परम्परा को पुनर्जीवित किया। अब तो यह देश के प्रशासन का नियमित अंग बन गयी है। हर दस साल पर एक बार जनगणना होती है।


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