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Bharatiya Itihas Kosh

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बंकिदेव, अलुपेन्द्र
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के सेनापति मालिक काफूर के आक्रमण के समय भारत के सुदूर दक्षिणी भाग में विद्यमान एक छोटा राजा। काफूर ने उसे हराकर उसका राज्य खत्म कर दिया।

बंग-भंग
पहली बार १९०५ ई. में वाइसराय लार्ड कर्जन द्वारा किया गया। उसका तर्क था कि तत्कालीन बंगाल प्रांत, जिसमें बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे, बहुत बड़ा है। एक लेफ्टिनेंट-गवर्नर उसका प्रशासन ठीक ढंग से नहीं चला पाता, फलस्वरूप पूर्वी बंगाल के जिलों की उपेक्षा होती है जहाँ मुसलमान अधिक संख्या में हैं। अतएव उत्तरी और पूर्वी बंगाल के राजशाही, ढाका तथा चटगाँव डिवीजनों में आनेवाले पन्द्रह जिले आसाम में मिला दिये गये और पूर्वी बंगाल तथा आसाम नाम से एक नया प्रांत बना दिया गया और उसे बंगाल से अलग कर दिया गया। बिहार तथा उड़ीसा को पुराने बंगाल में सम्मिलित रखा गया। बंगाल के लोगों, विशेष रूप से हिन्दुओं में बंग-भंग से भारी क्षोभ फैल गया, क्योंकि इसका उद्देश्य था एक राष्‍ट्र को विभाजित कर देना, बंगवासियों की एकता को भंग कर देने का प्रयास, जातीय परंपरा, इतिहास तथा भाषा पर घृणित प्रहार। इसको जनता की राजनीतिक आकांक्षाओं को कुचल देने का एक साधन माना गया। बंगवासियों ने अपने प्रांत का विच्छेद रोकने के लिए अंग्रेजी माल, विशेष रूप से इंग्लैंड के बने वस्त्रों का बहिष्कार प्रारंम्भ कर दिया और २७ अक्तूबर को, जिस दिन बंग-विच्छेद किया गया, राष्ट्रीय शोकदिवस मनाया गया।
सरकार को यह जन-आन्दोलन रुचिकर नहीं प्रतीत हुआ। उसने उसे विफल बनाने के लिए मुसलमानों को अपनी ओर मिलाने का चेष्टा की और वचन दिया कि नये प्रांत में उनको विशेष सुविधाएँ प्राप्त होंगी। इसके साथ ही उसने दमनकारी उपायों का सहारा लिया और सार्वजनिक स्थानों पर 'वंदेमातरम्' का घोष करना तक दंडनीय अपराध करार दिया गया। दमन के फलस्वरूप जन-असन्तोष और गहरा हो गया और आंतकवादी गतिविधियाँ आरम्भ हो गयीं। अंग्रेज अफसरों तथा उनके भारतीय गुर्गों की हत्या करने के प्रयत्न किये गये। सरकारने दमनचक्र और तेज कर दिया परन्तु, उसका कोई फल नहीं निकला। परिणामस्वरूप दिसम्बर १९११ ई. के दिल्ली दरबार में शाही घोषणा करके बंग-विच्छेद सम्बन्धी आदेश में संशोधन कर दिया गया। पूर्वी बंगालके १५ जिलों को आसाम से अलग करके पश्चिमी बंगाल में फिर संयुक्त कर दिया गा। इसके साथ ही बिहार तथा उड़ीसा को बंगाल प्रांत से अलग कर दिया गया। संयुक्त बंगाल का प्रशासन एक गवर्नर के अधीन हो गया। प्रशासन की कथित शिथिलता दूर करने के लिए यह सुझाव लार्ड कर्जन को भी दिया गया था, परन्तु उसने इसे नामंजूर कर दिया था।
बंगाल का दूसरी बार विभाजन १९४७ ई. में भारत विभाजन के फलस्वरूप हुआ। भारत को इसी शर्त पर स्वाधीनता प्रदान की गयी कि उसका विभाजन भारत तथा पाकिस्तान नाम के दो राज्यों में कर दिया जाय। फलस्वरूप बंगाल के ढाका तथा चटगाँव डिविजन के सभी जिलों तथा राजशाही एवं प्रेसीडेंसी डिवीजन के कुछ जिलों को अलग करके पूर्वी पाकिस्तान का निर्माण कर दिया गया। १६ दिसम्बर १९७१ ई.को पूर्वी पाकिस्तान शेष पाकिस्तान से अलग होकर एक स्वतंत्र सार्वभौम प्रभुसत्ता-सम्पन्न राष्ट्र बन गया, जो अब 'बांगलादेश' कहलाने लगा है।

बंगाल
वह क्षेत्र, जिसके पश्चिम में बिहार, पूर्व में आसाम, उत्तर में हिमालय की तराई तथा दक्षिण में उड़ीसा तथा बंगाल की खाड़ी स्थित है। यह नदियों का क्षेत्र है, जिसमें मुख्यतया गंगा और ब्रह्मपुत्र तथा उसकी अनेक सहायक नदियाँ बहती हैं। कछारी भूमि होने से कुषि-कार्य यहाँ अपेक्षाकृत सरल है। इसके समृद्ध एवं विविध साधनों से सम्पन्न होने के कारण पड़ोसी राज्यों के लोग सदा से इसकी ओर आकृष्ट होते रहे हैं। इस क्षेत्र का नाम 'बंगाल' अंग्रेजों ने प्रचलित किया। पहले इसे बंगला कहते थे, जो संस्कृत शब्द 'बंग' का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल में बंग से पूर्व और मध्य बंगाल निर्दिष्ट होते थे। इस शब्द का प्रयोग महाकाव्यों में भी मिलता है। पश्चिम तथा पश्चिमोत्तर बंगाल को तब गौड़ के नाम से जाना जाता था। बंग और गौड़ दोनों मौर्य और गुप्त साम्राज्यों में शामिल थे। गुप्त साम्राज्य का पतन हो जाने पर धर्मादित्य, गोपचन्द्र और समाचारदेव आदि स्थानीय राजाओं ने अपने को स्वाधीन कर लिया।
छठीं शताब्दी के मध्य में गौड़ शक्तिशाली राज्य हो गया। सातवीं शताब्दी के मध्य में गौड़ शक्तिशाली राज्य हो गया। सातवीं शताब्दी के आरम्भ में वहाँ शशांक नामक अत्यन्त पराक्रमी राजा हुआ, जो हर्षवर्धन का प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था। उसकी मृत्यु के पश्चात् बंगाल हर्ष के साम्राज्य का अंग बन गया। उसके बाद यह कामरूप के भास्कर वर्मा के शासनान्तर्गत आ गया। कैसे और कब बंगाल कामरूप के शासन से मुक्त हुआ, यह विदित नहीं है। फिर भी यह अधिक समय तक स्वतंत्र नहीं रह सका, क्योंकि आठवीं शताब्दी के आरम्भ में कन्नौज के यशोवर्मा ने इसे रौंद डाला। इस आक्रमण के फलस्वरूप पूरे प्रदेश में अराजकता व्याप्त हो गयी। जनश्रुतियों के आधार पर कहा जाता है, कि इसी काल में यहाँ आदि सूर नामक शासक हुआ। प्रसिद्धि है कि उसने मिथिला से पाँच ब्राह्मणों को पाँच ब्राह्मणेतर सेवकों के साथ बंगाल में ब्राह्मण धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए आमंत्रित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल में अराजकता की दशा का अन्त तभी हुआ, जब वहां की जनता ने गोपाल नामक व्यक्ति को राजा निर्वाचित करके सिंहासनासीन किया। गोपाल से ही प्रसिद्ध पाल राजवंश की परम्परा चली, जिसके शासनकाल में बंगाल महान् शक्तिशाली और समृद्धिशाली हुआ और बौद्ध संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बना, धर्मपाल तथा अतिशा (दे.), आदि आचार्यों को चीन, तिब्बत जैसे सुदूर देशों में बौद्धधर्म के प्रचार के लिए भेजा और अपनी निजी ललितकला और वास्तु शैली विकसित की जिसका प्रतिनिधित्व धीमान (दे.) और विटयाल (दे.) करते थे।
बारहवीं शताब्दी के मध्य तक पाल राजवंश की शक्ति का ह्रास हो गया और उसके स्थान पर सेन राजवंश प्रतिष्ठित हुआ, जो ११९८ और १२०१ ई. के बीच किसी समय मलिक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद खिलजी की पश्चिमी बंगाल विजय तक कायम रहा। पचास वर्ष बाद मुसलमानों ने पूर्वी बंगाल भी जीत लिया, इस प्रकार पूरा प्रदेश दिल्ली सल्तनत का भाग हो गया। किन्तु १३३६ ई. के लगभग फखरुद्दीन मुबारक शाह ने पूर्वी बंगाल में बगावत कर दी जो अन्त में सारे सूबे में फैल गयी। फलस्वरूप दिल्ली की सल्तनत से उसका पूरी तरह से सम्बन्ध टूट गया। १३४५ से १४९० ई. तक इलियास शाही राजवंश बंगाल पर राज्य करता रहा। बीच में केवल ४ वर्षों (लगभग १४१४-१८ ई.) में चार हिन्दू राजाओं गणेश, उसके पुत्र जदू, दनुज मर्दन तथा महेन्द्र ने अस्थायी रूप से शासन किया। १४९० ई. में अलाउद्दीन हुसेन शाह ने सैयद राजवंश का सूत्रपात किया। इस वंश के लोग १५३८ ई. तक जब हुमायूँ ने बंगाल को जीता, यहाँ राज्य करते रहे। इसके एक वर्ष बाद ही शेरशाह ने हूमायूँ को परास्त कर दिया और उसके वंशज १५६४ ई. तक शासन करते रहे, जब सुलेमान करनानी ने एक नया राजवंश चलाया। करनानी वंश का अन्तिम शासक दाऊद खाँ १५७६ ई. में बादशाह अकबर से हार गया और बंगाल पुनः दिल्ली के प्रभुत्व में आ गया।
इसके बाद शांति और सम्पन्नता का युग आरम्भ हुआ और बंगाल ने वाणिज्य-व्यवसाय में इतनी उन्नति की कि उसकी समृद्धि की विदेशी यात्रियों तक ने प्रशंसा की और यूरोपीय व्यावसायिक कम्पनियां अपनी व्यापारी कोठि‍याँ स्थापित करने के लिए प्रेरित हुईं।
सर्वप्रथम बंगाल में पुर्तगाली आये, लेकिन विधिवत् वाणिज्य की अपेक्षा समुद्री डकैती और गुलामों का सौदा करने की तरफ उन्होंने अधिक ध्यान दिया। परिणामस्वरूप बंगाल के कछारी भूभाग में उनका भारी आतंक छा गया, जिसका निवारण १६३२ ई. में मुगल सूबेदार कासिम अली ने उनका दमन करके किया। बाद ही क्रमशः डच (हालैण्डवासी), डेन (डेनमार्कवासी), फ्रांसीसी और अंग्रेज आ धमके और क्रमशः चिनसुरा, सिरामपुर, चन्द्रनगर और कलकत्ता में, जो सभी हुगली के तट पर हैं, जम गये। जबतक मुगल बादशाह सबल बने रहे, बंगाल में उनके सूबेदारों ने इन यूरोपीय व्यक्सायों को अपने नियंत्रण में रखा और शांति भंग करने का उनका साहस नहीं हुआ। बंगाल के सूबेदार मुर्शिद कुली खां के शासन काल में बिहार और उसके उत्तराधिकारी शुजाउद्दीन के शासन काल (१७२७-३८ ई.) में उड़ीसा भी बंगाल में सम्मिलित करलिया गया। लेकिन शुजा का पुत्र अयोग्य सिद्ध हुआ और १७४० ई. में अलीवर्दी खाँ द्वारा, जो बिहार में उसका नायब था, अपदस्थ कर दिया गया।
नवाब अलीवर्दी खाँ दिल्ली से लगभग स्वतंत्र होकर १७५६ ई. में अपनी मृत्यु तक बंगाल पर शासन करता रहा। उसका उत्तराधिकारी पौत्र सिराजुद्दौला अनुभवहीन और कमजोर शासक साबित हुआ। परिणामस्वरूप वह अंग्रेजों पर नियंत्रण न रख सका, जिन्होंने उसकी प्रभुसत्ता की अवहेलना कर फ्रांसीसियों से युद्ध छेड़ दिया। वह अन्त में उस षड्यंत्र का शिकार हो गया जो अंग्रेजों ने उसके असन्तुष्ट दरबारियों के साथ मिलकर रचा था। फलस्वरूप जून १७५७ ई. में पलासी की लड़ाई में सिराज हार गया। वह लड़ाई के मैदान से भाग कर मुर्शिदाबाद पहुँचा और विजेताओं का प्रतिरोध करने के लिए सैन्य संग्रह न कर पाने पर वहाँ से भी भाग निकला। विजयी अंग्रेजों ने २८ जून १७५७ ई. को मीर जाफर को, जो सिराज का निकट सम्बन्धी और षड्यंत्रकारियों में प्रमुख था, नवाब की गद्दी पर बैठाया। इसके चार दिन बाद ही भगोड़े सिराजुद्दौला का वध कर दिया गया। इस प्रकार बंगाल में मुस्लिम शासन का लज्जास्पद ढंग से पतन हुआ।
मीर जाफर को भी शीघ्र इस बात का अहसास हो गया कि वह अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली मात्र है। उसे भी उन्होंने शीघ्र ही अपदस्थ कर उसके दामाद मीर कासिम को गद्दी पर बैठाया। उसके साथ भी अंग्रेजों की पटरी नहीं बैठी और उन्होंने उससे युद्ध छेड़ दिया और १७६४ ई. में बक्सर में उसकी हार हुई। इसके बाद मीर कासिम विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गया और मीर जाफर, फिर से नवाब बनाया गया। १७६५ ई. में मीर जाफर मर गया।
इसी वर्ष अंग्रेजों को दिल्लीके बादशाह से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी मिल गयी। कम्पनी ने पलासी के विजेता राबर्ट क्लाइव को गवर्नर नियुक्त किया। दो वर्ष बाद वह इंग्लैंड चला गया और अगले पाँच वर्षों तक बंगाल में अत्यधिक कुशासन रहा। नवाब कम्पनी के स्थानीय अधिकारियों के हाथ का खिलौना मात्र रह गया, जिसे जनता की हितरक्षा का कोई ख्याल नहीं था। इसी बीच बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, जिसमें एक तिहाई आबादी विनष्ट हो गयी। १७७२ ई. में कम्पनी की ओर से वारेन हेस्टिंग्स बंगाल के गवर्नर के रूप में नियुक्त हुआ। अगले साल रेग्युलेटिंग कानून पास हो जाने पर वह गवर्नर-जनरल बना दिया गया और बम्बई तथा मद्रास की प्रेसीडेन्सियां उसके अधीन कर दी गयीं। इस प्रकार बंगाल भारत में बढ़ते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का न केवल अंग वरन् उसका केन्द्र-बिन्दु भी बन गया, क्योंकि कलकत्ता को शीघ्र ही भारतीय ब्रिटिश साम्राज्‍य की राजधानी बना दिया गया।
प्रशासकीय दृष्टि से बंगाल में अनेक परिवर्तन हुए। ब्रिटिश प्रशासन के आरम्भ में बिहार और उड़ीसा समेत पूरे प्रदेश में गवर्नर-जनरल द्वारा कौन्सिल की सहायता से शासन चलाया गया। १८५४ में इसको लेफ्टिनेण्‍ट गवर्नर के अधीन कर दिया गया। १९०५ ई. में लार्ड कर्जन ने प्रदेश दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया- पश्चिमी बंगाल, बिहार और उड़ीसा की एक इकाई लेफटिनेण्‍ट गवर्नर के अधीन बनायी गयी और पूर्वी बंगाल की दूसरी इकाई आसाम के साथ मिलाकर अन्य लेफ्टिनेण्‍ट-गवर्नर के अधीन बनायी गयी। इस विभाजन पर बंगाल के लोगों, विशेषकर हिन्दुओं ने जबर्दस्त विरोध प्रकट किया और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्‍व में बहुत ही प्रभावशाली आन्दोलन चलाया, जिसमें स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग और ब्रिटिश सामान का बहिष्कार प्रमुख था। ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलन को बल-प्रयोग-द्वारा दबाने के जो भी प्रयास किये उनसे जनरोष भूमिगत हो गया और अरविन्द घोष के नेतृत्व में बंगाल में आतंकवाद ने अपना सिर उठाया। फलस्वरूप प्रसिद्ध अलीपुर बमकाण्ड का मुकदमा चला। मुकदमे में अरविन्द घोष दोषमुक्त कर दिये गये, यद्यपि उनके अनेक साथियों को आजीवन कारावास की सजा मिली। अन्त में ब्रिटिश सरकार ने १९११ ई. में बंग-भंग रद्द कर पश्चिमी बंगाल को पूर्वी बंगाल के साथ फिर जोड़ दिया। बिहार, उड़ीसा और आसाम इससे पृथक कर दिये गये और बंगाल सपरिषद गवर्नर के शासन के अधीन कर दिया गया।
१९४७ ई. में देश को स्वाधीनता दिलाने के हेतु, बंगाल पुनः दो हिस्सों में बाँटा गया। पश्चिमी बंगाल के जिलों को उत्तरी बंगाल के कुछ जिलों से जोड़कर भारत में 'पश्चिमी बंगाल' राज्य बनाया गया और पूर्वी बंगाल के जिलों का भाग 'पूर्वी पाकिस्तान' के नाम से गठित हुआ। दिसम्बर १९७१ ई. में पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर 'बांगला देश' के नाम से स्वतन्त्र देश बन गया। प्रांत का यह अस्वाभाविक विभाजन यद्यपि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सहमति से हुआ था, फिर भी इसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों को, अधिकांशतः पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा, व्यापक हिंसा, लूटपाट, बलात्कार की तकलीफें उठानी पड़ीं और बचेखुचे लोग भी बार-बार उत्पीड़न के शिकार होते रहे। इधर कटा-छँटा पश्चिमी बंगाल का राज्य पुराने प्रदेश का केवल एक तिहाई भाग रह गया और विभाजन के बाद उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिसमें पूर्वी बंगाल के विस्थापित हिन्दुओं के पुनर्वास की समस्या सबसे जटिल थी।
बंगाल, पहला भारतीय प्रदेश था जिसने ब्रिटिश शासन का स्वागत किया। साथ ही संसदीय शासन और लोकतंत्र के ब्रिटिश राजनीतिक विचारों को आत्मसात् करने की दिशा में भी भारत का यह प्रदेश अग्रणी हुआ। भारतीय राष्ट्रीयता का शंखनाद यहीं फूंका गया और प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन भी यहीं आयोजित किया गया। इस प्रकार बंगाल ने ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शुभारम्भ का मार्ग प्रशस्त किया और उसे अपना पहला अध्यक्ष प्रदान किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही अन्त में भारत की स्वाधीनता प्राप्त करने में सफल रही। गोपालकृष्ण गोखले ने एक बार यह कह कर बंगाल की प्रशंसा ठीक ही की थी कि 'बंगाल जो आज सोचता है, उसे भारत कल सोचता है।'

बंगाल की दीवानी
१७६५ ई. में बादशाह शाह आलम ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को प्रदान की। १७६४ ई. में बक्सर के युद्ध में अवध के नवाब के पराजित हो जाने पर कम्पनी ने इलाहाबाद तथा आसपास के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। कम्पनी ने ये क्षेत्र सम्राट् को देकर बदले में बंगाल की दीवानी प्राप्त की। इसका अर्थ था कि कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में राजस्व वसूल करने का अधिकार प्राप्त हो गया। बदले में कम्पनी बादशाह को २६ लाख रुपया वार्षिक देती थी। साथ ही मुर्शिदाबाद के नवाब को भी कम्पनी सामान्य प्रशासन के लिए ५३ लाख रुपया देती थी। शेष बचे हुए धन को कम्पनी अपने पास रखती थी। नवाब को दी जानेवाली वार्षिक रकम बाद में घटाकर ३२ लाख रुपया कर दी गयी। कम्पनी को दीवानी मिलने से उसे प्रान्तीय प्रशासन में पहली बार कानूनी हैसियत प्राप्त हो गयी। वैसे १७५७ ई. में पलासी के युद्ध में षड्यन्त्रों के द्वारा विजय प्राप्त करने के पश्चात् कम्पनी को शासन का अधिकार प्राप्त हो गया था, किन्तु राजस्व की वसूली का अधिकार प्राप्त होने का अर्थ यह था कि कम्पनी को व्यावहारिक रूप से प्रान्तीय शासन करने का अधिकार है, क्योंकि राजस्व की वसूली को सामान्य प्रशासन से अलग करना कठिन था। प्रशासन हाथ में आ जाने के बावजूद कम्पनी की कानूनी हैसियत दीवान की ही रही, जो ब्रिटिश महारानी द्वारा भारतीय शासन अपने हाथ में लेने के समय तक कायम रही।

बकिंघम, जान सिल्क
कलकत्ता जर्नल' का सम्पादक, जो सरकारी अधिकारियों की मुक्त कण्ठ से आलोचना किया करता था। अत: कार्यवाहक गवर्नर-जनरल जान एडम्स ने उसे १८२३ ई. में भारत से निष्कासित कर दिया।

बक्‍सर की लड़ाई
२२ अक्तूबर १७६४ ई. को आरम्भ इस लड़ाई में मेजर जनरल हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में कम्पनी की सेना ने शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा बंगाल के भगोड़े नवाब मीर कासिम की मिलीजुली सेना को हरा दिया। इस विजय से भारत में कम्पनी की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी, जिसके फलस्वरूप होनेवाले समझौते के अन्तर्गत बादशाह ने कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी सौप दी। इसके बदले में कम्पनी ने उसे इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले, जो उसने अवध के नवाब से छीन लिये थे, लौटा दिये और बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के राजस्व से २६ लाख रुपया वार्षिक खिराज के रूप में देना स्वीकार किया। इस प्रकार बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थिति वैधानिक हो गयी।

बख्‍त खाँ
१८५७ ई. में दिल्ली के विद्रोही सिपाहियों का नेता, जिसने गदर के दिनों में दिल्ली की हलचलों में प्रमुख रूप से भाग लिया।

बख्तियारउद्दीन गाजी शाह
पूर्वी बंगाल के पहले स्वतंत्र शासक फखरुद्दीन मुबारक शाह का लड़का और उत्तराधिकारी। उसने १३२९ से १३५२ ई. तक राज्य किया। पश्चिमी बंगाल के सुल्तान शमसुद्दीन इलियास शाह (दे.) ने उसकी गद्दी छीन ली।

बख्तियार खिलजी
इख्तियारुद्दीन मुहम्मद का पिता, जिसने नवद्वीप या नदिया के राजा लक्ष्मणसेन को भगा दिया और इस प्रकार बंगाल में मुसलमानी राज्य की नींव डाली।

बघाट
सतलज पार स्थित एक पहाड़ी रियासत, जिसे लार्ड कैनिंग ने अपने पूर्वाधिकारी के निर्णय को बदल कर बघाट रियासत उसके पुराने राजा को लौटा दी।


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