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Bharatiya Itihas Kosh

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ठग
लुटेरों तथा हत्यारों का एक गिरोह। ये लोग यात्रीयों के वेश में छोटे-छोटे गिरोहों में घूमा करते थे और सीधे-सादे बटोहियों की गर्दन रूमाल से बाँधकर, सोते समय या असावधानी की अवस्था में मार डालते और फिर उन्हें लूट लेते थे। मध्यभारत में इनकी संख्या बहुत अधिक थी। १८३० ई. से कई वर्ष की तैयारी के बाद कर्नल स्लीमैन को इनका विनाश करने में सफलता पराप्त हुई।

ठट्ठा प्रान्त
बिचली सिंध घाटी में अवस्थित। अकबर के समय में इसे मुलतान (दे.) के सूबे में मिला दिया गया था, परन्तु औरंगजेब के समय इसे पृथक् सूबा बनाया गया। इस सूबेदार की राजधानी भी ठट्ठा कहलाती थी। इसी नगर के निकट १३५१ ई. में सुल्तान मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हुई थी।

ठाकुर अवनीन्द्रनाथ (१८७१-१९३१)
प्रख्यात कलाकार तथा साहित्यकार, 'इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरियण्टल आर्ट्स' की स्थापना की। कला और चित्रकला की भारतीय पद्धति पुनः प्रतिष्ठित करके संसार में उसे उचित सम्मान दिलाया। उनकी चित्रकारी के प्रमुख नमूने हैं-'प्रवासी यक्ष', 'शाहजहाँ की मृत्यु', 'बुद्ध और सुजाता', 'कच और देवयानी' तथा 'उमर खय्याम'।
१९०५ से १९१६ ई. तक वे कलकत्ता में 'गवर्नमेण्ट स्कूल ऑफ आर्ट' के उपप्राचार्य और कुछ समय के लिए प्राचार्य भी रहे। उन्होंने भारतीय चित्रकला के एक नये स्कूल को जन्म किया। उनके सर्वाधिक प्रख्यात शिष्य नंदलाल बोस थे।

ठाकुर देवेन्द्रनाथ (१८१७-१९०५)
कलकत्ता निवासी श्री द्वारकानाथ टैगोर (ठाकुर) के पुत्र, जो प्रख्यात विद्वान् और धार्मिक नेता थे। अपनी दानशीलता के कारण उन्होंने 'प्रिंस' की उपाधि प्राप्त की थी। पिता से उन्होंने ऊँची सामाजिक प्रतिष्ठा तथा ऋण उत्तराधिकार में प्राप्त किया। पिता के ऋण का भुगतान उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी के साथ किया (जो कि उस समय असाधारण बात थी ) और अपनी विद्वत्ता, शालीनता, श्रेष्ठ चरित्र तथा सांस्कृतिक क्रियाकलापों में योगदान के द्वारा उन्होंने टैगोर परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को और ऊँचा उठाया। वे ब्राह्म समाज (दे.) के प्रमुख सदस्य थे जिसका १८४३ ई. से उन्होंने बड़ी सफलता के साथ नेतृत्व किया। १८४३ ई. में उन्होंने 'तत्वबोधिनी पत्रिका' प्रकाशित की, जिसके माध्यम से उन्होंने देशवासियों को गम्भीर चिन्तन तथा हृद्गत भावों के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। इस पत्रिका ने मातृभाषा के विकास तथा विज्ञान एवं धर्मशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया और साथ ही तत्कालीन प्रचलित सामाजिक अंधविश्वासों व कुरीतियों का विरोध किया तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जानेवाले धर्मपरिवर्तन के विरुद्ध कठोर संघर्ष छोड़ दिया। राममोहन राय (दे.) की भाँति देवेन्द्रनाथ जी भी चाहते थे कि देशवासी, पाश्चात्य संस्कृति की अच्छाइयों को ग्रहण करके उन्हें भारतीय परंपरा, संस्कृति और धर्म में समाहित कर लें। वे हिन्दू धर्म को नष्ट करने के नहीं, उसमें सुधार करने के पक्षपाती थे। वे समाज-सुधार में 'धीरे चलो' की नीति पसन्द करते थे। इसी कारण उनका केशवचन्द्र सेन (दे.) तथा उग्र समाज-सुधार के पक्षपाती ब्राह्मसमाजियों, दोनों से मतभेद हो गया। केशवचन्द्र सेन ने अपनी नयी संस्था 'नवविधान' आरम्भ की। उधर उग्र समाज-सुधार के पक्षपाती ब्राह्मसमाजियों ने आगे चलकर अपनी अलग संस्था 'साधारण ब्राह्म समाज' की स्थापना की। देवेन्द्रनाथ जी के उच्च चरित्र तथा आध्यात्मिक ज्ञान के कारण सभी देशवासी उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते थे और उन्हें 'महर्षि' सम्बोधित करते थे।
देवेन्द्रनाथजी धर्म के बाद शिक्षाप्रसार में सबसे अधिक रुचि लेते थे। उन्होंने बंगाल के विविध भागों में शिक्षा संस्थाएँ खोलने में मदद की। उन्होंने १८६३ ई. में बोलपुर में एकांतवास के लिए २० बीघा जमीन खरीदी और वहाँ गहरी आत्मिक शांति अनुभव करने के कारण उसका नाम 'शांति निकेतन' रख दिया और १८८६ ई. में उसे एक ट्रस्ट के सुपुर्द कर दिया। यहीं बाद में उनके स्वनामधन्य पुत्र रवीन्द्रनाथ ने विश्वभारती की स्थापना की।
देवेन्द्रनाथजी मुख्य रूप से धर्म-सुधार तथा शिक्षा-प्रसार में रुचि तो लेते ही थे, देश-सुधार के अन्य कार्यों में भी पर्याप्त रुचि लेते थे। १८५१ ई. में स्थापित होनेवाले ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन का सबसे पहला सेक्रेटरी उन्हें ही नियुक्त किया गया। इस एसोसियेशन का उद्देश्य संवैधानिक आंदोलन के द्वारा देश के प्रशासन में देशवासियों को उचित हिस्सा दिलाना था। उन्नीसवीं शताब्दी में जिन मुट्ठी भर शिक्षित भारतीयों ने आधुनिक भारत की आधारशिला रखी, उनमें उनका नाम सबसे शीर्षपर लिया जायगा। (एस. चक्रवर्ती कृत 'देवेन्द्रनाथ ठाकुर आत्मजीवनी')

ठाकुर द्वारकानाथ - (१७९४-१८४६)
कलकत्ता में जोड़ा सांकू के प्रसिद्ध ठाकुर (टैगोर) परिवार के संस्थापक। उन्होंने अंग्रेजों के सहयोग से व्यापार करके आपार धन अर्जित किया। उन्होंने यूनियन बैंक की स्थापना की जो बंगालियों द्वारा खोला जानेवाला पहला बैंक था। उन्होंने तत्कालीन समाज तथा धर्म-सुधार के आन्दोलनों में हिस्सा लिया। वे राजा राममोहन राय (दे.) द्वारा स्थापित ब्राह्म समाज के सबसे प्रारम्भिक सदस्यो में से थे। उन्होंने १८४३ ई. तक उसका नेतृत्व किया। इसके बाद उनके पुत्र देवेन्द्रनाथ (दे.) ने उसका नेतृत्व संभाल लिया। उन्होंने १८४२ तथा १८४५ ई. में दो बार यूरोप-यात्रा की और महारानी विक्टोरिया से उनके महल में भेंट की। उन्होंने दोनों हाथों इस तरह पैसा लुटाया कि अंत में वे कर्ज में डूब गये। उनकी दानशीलता और उदारता के कारण उन्हें प्रिंस (राजा) पुकारा जाता था। १८४६ ई. में लन्दन में उनकी मृत्यु हो गयी।

ठाकुर रवीन्द्रनाथ (७ मई १८६१-७ अगस्त १९४१)
आधुनिक काल के सबसे महान भारतीय कवि। वे श्री देवेन्द्रनाथ (दे.) ठाकुर के पुत्र थे। उनका जन्म कलकत्ता में हुआ और विश्वख्याति तथा गुरुदेव की उपाधि प्राप्त करने के बाद मृत्यु भी वहीं हुई। उन्होंने बाल्यकाल में ही कविता लिखना आरम्भ कर दिया और १८८२ ई. में प्रकाशित उनके 'संध्या-संगीत' से प्रख्यात बंगला उपन्यासकार एवं साहित्यकार तथा हमारे राष्ट्रगान 'वंदेमातरम्' के रचयिता बंकिमचन्द्र चटर्जी (दे.) इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने गले की माला उन्हें पहनाकर उनका सत्कार किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। वे केवल कवि ही नहीं वरन् नाटककार, उपन्यासकार तथा निबंधकार भी थे। बाद के जीवन में वे चित्रकार भी बने। उन्होंने अपने काव्य में विभिन्न प्रकार के प्रयोग किये हैं। उनकी कविता सहज ही हृत्तंत्री को झंकृत कर देती है। उनकी विशेष ख्याति गीतिकाव्यकार के रूप में है। १९१३ ई. में 'गीतांजलि' का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होने पर उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उसी वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट्. की सम्मानित उपाधि से विभूषित करके अपने को गौरवान्वित किया। उन्हीं के सुझाव पर कलकत्ता विश्ववविद्यालय ने बंगला भाषा की वर्तनी शुद्ध की और उसे अपनी सबसे ऊँची डिग्री की परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया। १९१३ ई. में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की। संसार के सभी भागों से उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ और उन्होंने बौद्धिक जगत में पराधीनता के काल में भी भारत का मस्तक ऊंचा कर दिया। उन्होंने युरोप, अमेरिका और एशिया का विस्तृत भ्रमण किया और सभी देशों में भारत की कीर्तिपताका फहरायी।
रवीन्द्रनाथ ऊंचे कवि ही नहीं, वरन ऊंचे देशभक्त भी थे। उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन में प्रमुख भाग लिया। उनकी देशभक्ति संकीर्ण राष्ट्रवाद पर नहीं, वरन उदार अंतरराष्ट्रीयतावाद पर आधारित थी, इसीलिए उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के आंदोलन का समर्थन किया। वे स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने के पक्ष में थे। उन्होंने ग्राम-सुधार के कार्यों के लिए शांतिनिकेतन के निकट श्रीनिकेतन की स्थापना की। उन्होंने लोकशिक्षा, लोक गीत, लोकनृत्य, लोक-कला एवं शिल्प तथा सहकारिता आंदोलन को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। वे उग्र राजनीतिक आंदोलनों से अपने को प्रायः पृथक् रखते थे, फिर भी विदेशी सरकार जब देशवासियों पर अत्याचार करने लगती थी तो उसके विरुद्ध अपना स्वर ऊंचा करने में वे कभी भयभीत नहीं होते थे। अंग्रेजों द्वारा जालियांवाला बाग (दे.) में किये गये बर्बर हत्याकांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त 'सर' की पदवी लौटा दी। उनका यह कार्य भारत में ब्रिटिश शासन की सबसे कठोर भर्त्सना थी।
रवीन्द्रनाथ ने मानव-संस्कृति के विकास में सबसे बड़ा योगदान १९०१ ई. में शांतिनिकेतन में विश्वभारती की स्थापना करके किया। इसकी स्थापना के लिए उन्होंने तत्कालीन सरकार से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं ली और पचास वर्षों तक उसे अपनी पुस्तकों से होनेवाली आय तथा अपनी पैतृक सम्पत्ति की आय से चलाते रहे। उनके देहावसान के दस वर्ष बाद इस संस्था का भार भारतीय गणराज्य की सरकार ने अपने ऊपर ले लिया और अब उसने इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय का रूप दे दिया है। रवीन्द्रनाथ श्रेष्ठ कवि और विद्वान ही नहीं, दृष्टा भी थे। वे प्रथमतः भारतीय थे। उनका अंतरराष्ट्रीयतावाद उनके देशप्रेम का ही एक अंग था। महात्मा गांधी भी उन्हें अपना मार्गदर्शक मानते थे और उन्हें श्रद्धापूर्वक 'गुरुदेव' पुकारते थे। (रवीन्द्रनाथ की कृतियां; थाम्पसन कृत 'रवीन्द्रनाथ', एस. राधाकृष्णन् लिखित 'फिलासफी आफ रवीन्द्रनाथ' तथा एस. एन. दासगुप्त लिखित 'रवीन्द्र-दीपिका')


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