logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Bharatiya Itihas Kosh

Please click here to read PDF file Bharatiya Itihas Kosh

आंगियर, जेराल्ड
बम्बई का गवर्नर (१६६९-१७०७ ई.)। वह सही अर्थों में बम्बई नगर का संस्थापक था जिसने बम्बई के महानगरी बनने की कल्पना कर ली थी। उसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रारम्भिक संस्थापकों में गिना जा सकता है। उसकी गुमनाम कब्र सूरत में है। (मालबारी : बम्बे इन दि मेकिंग)

आंग्ल अफगान युद्ध
तीन हुए। पहला आँग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२ ई.) -ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में गवर्नर-जनरल लार्ड आक्लैण्ड के समय में शुरू हुआ और उसके उत्तराधिकारी लार्ड एलिनबरो के समय तक चलता रहा। १८३८ ई. में अफगानिस्तान का भूतपूर्व अमीर शाह शुजा अंग्रेजों का पेंशनयाफ्ता होकर पंजाब के लुधियाना नगर में रहता था। उस समय रूस के गुप्त समर्थन से फारस की सेना ने अफगानिस्तान के सीमावर्ती नगर हेरात को घेर लिया। हेरात बहुत सामरिक महत्त्व का नगर माना जाता था और उसे भारत का द्वार समझा जाता था। जब उस पर रूस की सहायता से फारस ने कब्जा कर लिया तो इंग्लैण्ड की सरकार ने उसे भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरा माना, हालाँकि उस समय फारस और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच में पंजाब में रणजीत सिंह और अफगानिस्तान में अमीर दोस्त मुहम्मद का स्वतंत्र राज्य था। अमीर दोस्त मुहम्मद भी हेरात पर फारस के हमले से रूसी आक्रमण का खतरा महसूस कर रहा था। वह अपनी सुरक्षा के लिए भारत की ब्रिटिश सरकार से समझौता करना चाहता था। किन्तु वह अपने पूरब के पड़ोसी महाराजा रणजीत सिंह से भी अपनी सुरक्षा की गारंटी चाहता था जिसने हाल में पेशावर पर कब्जा कर लिया था। अतएव उसने इस शर्त पर आंग्ल-अफगान गठबंधन का प्रस्ताव रखा कि अंग्रेज उसे रणजीत सिंह से पेशावर वापस दिलाने में मदद देंगे और इसके बदले में अमीर अपने दरबार तथा देश को रूसियों के प्रभाव से मुक्त रखेगा। लार्ड आक्लैण्ड की सरकार महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति से भय खाती थी और उसने उस पर किसी प्रकार का दबाव डालने से इन्कार कर दिया। बर्न्स, जिसे आक्लैण्ड ने अमीर से बातचीत के लिए काबुल भेजा था, अप्रैल १८३८ ई. में काबुल से खाली हाथ लौट आया। उसके लौटने के बाद अमीर ने एक रूसी एजेण्ट की आवभगत की, जो कुछ समय से उसके दरबार में रहता था और अबतक उपेक्षा का पात्र बना हुआ था। इस बात को आक्लैण्ड की सरकार ने अमीर का शत्रुतापूर्ण कार्य समझा और जुलाई १८३८ ई. में उसने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और निष्कासित अमीर शाह शुजा से जो लुधियाना में रहता था, एक त्रिपक्षीय सन्धि कर ली जिसका उद्देश्य शाह शुजा को फिर से अफगानिस्तान की गद्दी पर बिठाना था। यह अनुमान था कि शाह शुजा काबुल में अमीर बनने के बाद अपने विदेशी सम्बन्धों में, खासतौर से रूस के सम्बन्ध में भारत की ब्रिटिश सरकार से नियंत्रित होगा। इस आक्रामक और अन्यायपूर्ण त्रिपक्षीय सन्धि के बाद आंग्ल-अफगान युद्ध अनिवार्य हो गया। इस त्रिपक्षीय सन्धि का यदि जुलाई १८३८ में कुछ औचित्य भी था तो वह सितम्बर में फारस की सेना द्वारा हेरात का घेरा उठा लिये जाने और अफगान क्षेत्र से हट आने के बाद समाप्त हो गया। लेकिन लार्ड आक्लैण्ड को इससे सन्तोष नहीं हुआ और अक्तूबर में उसने अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर दी। इस आक्रमण का कोई औचित्य नहीं था और इसके द्वारा १८३२ ई. में सिन्ध के अमीरों से की गयी सन्धि का भी उल्लंघन होता था, क्योंकि अंग्रेजी सेना उनके क्षेत्र से होकर अफगानिस्तान गयी थी। इस युद्ध का संचालन भी बहुत गलत ढंग से किया गया। आरम्भ में अंग्रेजी सेना को कुछ सफलता मिली। अप्रैल १८३९ ई. में कंधार पर कब्जा कर लिया गया। जुलाई में अंग्रेजी सेना ने गजनी ले लिया और अगस्त में काबुल। दोस्त मोहम्मद ने काबुल खाली कर दिया और अंत में अंग्रेजी सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। उसको बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया और शाह शुजा को फिर से अफगानिस्तान का अमीर बना दिया गया। किन्तु इसके बाद ही स्थिति और विपम हो गयी। शाह शुजा को अमीर बनाने के बाद अंग्रेजी सेना बहाँ से वापस बुला लेनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। शाह शुजा केवल कठपुतली शासक था और देश का प्रशासन वास्तव में सर विलियम मैकनाटन के हाथ में था जिसको लार्ड आक्लैण्ड ने राजनीतिक अधिकारी के रूप में वहाँ भेजा था। अफगान लोग शाह शुजा को पहले भी पसंद नहीं करते थे और इस बात से बहुत नाराज थे कि अंग्रेजी सेना की बन्दूकों के जोर से उसे पुनः अमीर बना दिया गया है। इसीलिए काबुल में अंग्रेजी आधिपत्य सेना को रखना जरूरी हो गया था। युद्ध के कारण चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ गये थे जिससे जनता का हर वर्ग पीड़ित था। अंग्रेजी सेना की कुछ हरकतों से भी जनरोष प्रबल हो गया था। इस मौके का दोस्त मुहम्मद के लड़के अकबर खाँ ने चालाकी से फायदा उठाया और १८४१ ई. में पूरे देश में शाह शुजा और उसकी संरक्षक अंग्रेजी सेना के विरुद्ध बड़े पैमाने पर बलवे शुरू हो गये। सर विलियम मैकनाटन के खास सलाहकार एलेक्ज़ेण्डर बर्न्स की अनीति से अफगान लोग चिढ़े हुए थे। नवम्बर १८४१ में एक क्रुद्ध अफगान भीड़ बर्न्स और उसके भाई को घर से घसीट कर ले गयी और दोनों को मार डाला। मैकनाटन और काबुल स्थित अंग्रेजी सेना के कमांडर-जनरल एलिफिंस्टन ने उस समय ढुलमुलपन और कमजोरी का प्रदर्शन किया और दिसम्बरमें अकबर खाँ से सन्धि कर ली जिसके द्वारा वापस बुला लेने और दोस्त मुहम्मद को दुबारा अमीर बना देनेका आश्वासन दिया गया। शीघ्र ही यह बात साफ हो गयी कि इस संधि के पीछे मैकनाटन की नीयत साफ नहीं है। इस पर अकबर खाँ के आदेश से मैकनाटन और उसके तीन साथियों को मौत के घाट उतार दिया गया। काबुल पर अधिकार करनेवाली अंग्रेजी सेना के १६,५०० सैनिक ६ जनवरी १८४१ ई. को काबुल से जलालाबाद की ओर रवाना हुए, जहाँ जनरल सेल के नेतृत्व में एक दूसरी अंग्रेजी सेना डटी हुई थी। अंग्रेजी सेना की वापसी विनाशकारी सिद्ध हुई। अफगानों ने सभी ओर से उसपर आक्रमण कर दिया और पूरी सेना नष्ट कर दी। केवल एक व्यक्ति, डाक्टर ब्राइडन गम्भीर रूप से जख्मी और थका माँदा १३ जनवरी को जलालाबाद पहँचा। इस दुर्घटना से गवर्नर-जनरल आक्लैण्ड और इंग्लैण्ड की सरकार को गहरा धक्का लगा। आक्लैण्ड को इंग्लैण्ड वापस बुला लिया गया और लार्ड एलिनबरो को उसके स्थान पर गवर्नर-जनरल (१८४२-१८४४ ई.) बनाया गया। एलिनबरो के कार्यकाल में जनरल पोलक ने अप्रैल १८४२ ई. में जलालाबाद पर फिर से नियंत्रण कर लिया और मई में जनरल नॉट ने कंधार को फिर से अंग्रेजों के आधिपत्य में ले लिया। इसके बाद दोनों अंग्रेजी सेनाएँ रास्ते में सभी विरोधियों को कुचलती हुई आगे बढ़ीं और सितम्बर १८४२ ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया। इन सेनाओं ने बचे हुए बंदी अंग्रेज सिपाहियों को छुड़ाया और अंग्रेजों की विजय के उपलक्ष्य में काबुल के बाजार को बारूद से उड़ा दिया। अंग्रेजों ने काबुल शहर को निर्दयता के साथ ध्वस्त कर डाला, बड़े पैमाने पर लूटमार की और हजारों बेगुनाह अफगानों को मौत के घाट उतार दिया। इन बर्बरतापूर्ण कृत्यों के साथ इस अन्यायपूर्ण और अलाभप्रद युद्ध का अन्त हुआ। शीघ्र ही आफगानिस्तान से अंग्रेजी सेना को वापस बुला लिया गया और दोस्त मुहम्मद, अफगानिस्तान वापस लौट गया व १८४२ ई. में दुबारा गद्दी पर बैठा जिससे उसे अनावश्यक और अनुचित तरीके से हटा दिया गया था। वह १८६३ ई. तक अफगानिस्तान का शासक रहा। उस वर्ष ८० साल की उम्र में उसका देहांत हुआ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पहला अफगान युद्ध भारती ब्रिटिश सरकार की ओर से नितांत अनुचित रीति से अकारण ही छेड़ दिया गया था और लार्ड आक्लैण्ड की सरकार ने उसका संचालन बड़ी अयोग्यता के साथ किया। इस युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ और उसमें २०,००० भारतीय तथा अंग्रेज सैनिक मारे गये और डेढ़ करोड़ रुपया बर्बाद हुआ जिसको भारत की गरीब जनता से वसूला गया।

आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध
देखो कर्नाटक बुद्ध।

आईन-ए-अकबरी
फारसी का एक प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ जिसे अकबर बादशाह के विश्वासपात्र और मीरमुन्शी (प्रधान सचिव) अबुलफजल ने लिखा था। इसमें अकबर की सल्तनत, उसके सैनिक प्रबन्ध तथा शासनप्रबंध के बारे में सूचनाएँ मिलती हैं। फारसी के अन्य इतिहास ग्रन्थों से इसकी एक विशेषता यह है कि इसमें मुगल सल्तनत के हर-एक सूबे, जिले, और परगनों के आंकड़े दिये गये हैं। इस ग्रन्थ में हमें मुगलों के काल की आर्थिक स्थिति तथा मुगल शासन-व्यवस्था के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिलती है। इस ग्रन्थ का अंग्रेजी में टिप्पणी सहित अनुवाद ब्लाकमैन और जैरट ने १८७३ ई. में किया था। इस ग्रन्थ में अकबरकालीन भारत के बारे में सबसे प्रामाणिक जानकारी मिलती है।

आउटरम, सर जेम्स (१८०३-६३ ई.)
गदर के समय अंग्रेजों का एक वीर नायक था। वह १८१९ ई. में एक कैडेट (शिक्षार्थी सैनिक अधिकारी) के रूप में भारत आया। अगले साल अपनी चुस्ती के कारण वह पूना में एडजुटेंट बना दिया गया। १८२५ ई. में उसे खानदेश भेजा गया। वहाँ के भील उससे बहुत प्रभावित हुए। उसने भीलों को पैदल फौज में भरती किया। उनको हलके हथियार दिये गये। यह पलटन स्थानीय चोरों की लूटमार रोकने में बहुत सफल हुई। १८३५ से १८३८ ई. तक वह गुजरात में पोलिटिकल एजेंट रहा। १८३८ ई. में उसने अफगान युद्ध में भाग लिया। उसने गजनी के किले के सामने शत्रुओं के झंडे छीन लेने में व्यक्तिगत रीति से बड़ी वीरता प्रदर्शित की, जिसके कारण उसका बहुत नाम हुआ। १८३६ ई. में वह सिंध में पोलिटिकल एजेंट नियुक्त हुआ। उसने अपने उच्च अधिकारी सर चार्ल्स नेपियर की नीति का विरोध करके, जिसके फलस्वरूप सिंध के अमीरों से युद्ध हुआ, अपने सबल व्यक्तित्व तथा अपनी न्यायप्रियता का परिचय दिया। परन्तु जब युद्ध छिड़ गया तो उसने ८०० बलूचियों के हमले से हैदराबाद रेजिडेंसी की वीरतापूर्वक रक्षा की। इसके फलस्वरूप सर चार्ल्स नेपियर ने उसकी तुलना प्रसिद्ध फ्रांसीसी वीर बेयार्ड से की।
१८५४ ई. में वह लखनऊ में रेजिडेंट नियुक्त हुआ। १८५६ ई. में उसने अवध का राज्य नवाबों से ले लिया और उसके अंग्रेजी साम्राज्‍य में मिला लिये जाने के बाद प्रांत का पहला चीफ कमिश्नर नियुक्त हुआ। जिस समय गदर हुआ वह फारस में था। उसे शीघ्रता से फारस से बुला लिया गया और कलकत्ता से कानपुर तक की रक्षा करनेवाली बंगाल आर्मी का कमांडर नियुक्त किया गया। उसने लखनऊ रेजिडेंसी का मोहासरा उठाने में हैवलाक की भारी मदद की और विद्रोहियों को चकमा देकर रेजिडेंसी में फँसी फौज को निकाल ले आया। इसके बाद उसने लखनऊ पर पुनः अधिकार करने में सर कालिन कैम्पबेल को मदद दी। गदर के समय उसने लोमड़ी जैसी चालाकी तथा सिंह जैसे पराक्रमका परिचय दिया। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने इसके उपलक्ष्य में उसे 'बैरन' की पदवी प्रदान की और उसकी आजीवन पेंशन नियत कर दी। कलकत्ता में स्थापित उसकी घोड़े पर सवार मूर्ति मूर्तिकला का उत्तम उदाहरण थी। उसने १८६० ई. में अवकाश ग्रहण किया और १८६३ ई. में इंग्लैण्ड में उसकी मृत्यु हुई।

आकमटी, सर सैम्युअल
को लार्ड मिंटो प्रथम (१५०७-१७) ने मद्रास में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सैनिक अधिकारियों के विद्रोह कर देने पर मद्रास की सेना का सेनापति नियुक्त किया था। आकमटी ने शीघ्र ही विद्रोह शांत कर दिया। इसके पुरस्कारस्वरूप जावा पर आक्रमण करने के लिए (१८१०-११ ई.) जो ब्रिटिश सैन्य दल भेजा गया उसका नेतृत्व उसे सौंपा गया। परिणामस्वरूप १८११ ई. में जावा पर अधिकार कर लिया गया।

आक्‍लैण्‍ड, लार्ड
१८३६ से ४२ ई. तक ६ वर्ष भारत का गवर्नर-जनरल रहा। उसके प्रशासन में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। यह सही है कि उसने भारतीयों के लिए शिक्षा प्रसार और भारत में पश्चिमी चिकित्सा-पद्धति की शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। उसने कम्पनी के डायरेक्टरों के उस आदेश को कार्यरूप में परिणत किया जिसके अधीन तीर्थयात्रियों और धार्मिक संस्थाओं से कर लेना बन्द कर दिया गया। लेकिन १८३७-३८ ई. में उत्तर भारत में पड़े विकराल अकाल के समय लोगों के कष्‍टों को दूर करने के लिए पर्याप्त कदम उठाने में वह विफल रहा। उसने १८३७ ई. में पादशाह बेगम के विद्रोह का दमन किया और अवध के नये नवाब (बादशाह) नसीरउद्दीन हैदर को बाध्य करके नयी सन्धि के लिए राजी किया जिसके द्वारा उससे अधिक वार्षिक धनराशि वसूल की जाने लगी। उस सन्धि को कम्पनी के डायरेक्टरों ने नामंजूर कर दिया, लेकिन आक्लैण्ड ने इस बात की सूचना अवध के बादशाह को नहीं दी। उसने सतारा के राजा को गद्दी से उतार दिया क्योंकि उसने पुर्तगालियों से मिलकर राजद्रोह का प्रयत्न किया था। अपदस्थ राजा के भाई को उसने गद्दी पर बैठाया। उसने करनूल के नवाब को भी कम्पनी के विरुद्ध युद्ध करने का प्रयास करने के आरोप में गद्दी से हटा दिया और उसके राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। लार्ड आक्लैण्ड का सबसे बदनामीवाला काम उसका प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२) शुरू करना था जिसका लक्ष्य दोस्त मुहम्मद को अफगानिस्तान की गद्दी से हटाना था क्योंकि वह रूस का समर्थक था और उसके स्थान पर शाह शुजा को वहाँ का अमीर बनाना था जिसे अंग्रेजों का समर्थक समझा जाता था। यह युद्ध अनुचित था और इसके द्वारा सिन्ध के अमीरों से की गयी सन्धि को उसे तोड़ना पड़ा था। इस युद्ध का संचालन इतने गलत ढंग से हुआ कि वह एक दुखान्त घटना बन गयी और लार्ड आक्लैण्ड को इंग्लैण्ड वापस बुला लिया गया और उनके स्थान पर लार्ड एलेनबरो को भारत का गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा गया।

आक्टरलोनी, सर डेविड (१७५८-१८३५ ई.)
ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में एक सुविख्यात सेनानायक। उसने १८०४ ई. में होल्कर के आक्रमण के समय दिल्ली की अत्यंत कुशलता से रक्षा की थी। उपरांत १८१४-१५ ई. के गोरखा युद्ध (दे.) में, वह उन तीन आंग्ल भारतीय सेनाओं में से एक का कमांडर था, जिसने नेपाल पर आक्रमण किया था। अन्य दो सेनाओं के कमांडर तो भाग आये, किन्तु आक्टरलोनी पश्चिम की ओर से नेपाल पर आक्रमण करके मोर्चे पर डटा रहा। इस सफलता के पुरस्कारस्वरूप उसकी पदोन्नति की गयी और उसे उन समस्त अंग्रेज और भारतीय सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर नियुक्त कर दिया गया जिन्होंने नेपाल पर आक्रमण किया था। उसने अपनी पदोन्नति को सार्थक सिद्ध कर दिया तथा कठिन युद्ध के उपरांत नेपाल में दूरतक घुसता चला गया, यहाँ तक कि उसकी राजधानी काठमांडू केवल ५० मील दूर रह गयी। परिणामस्वरूप १८१६ ई. में नेपाल को संगौली की संधि (दे.) करनी पड़ी। १८१७-१८ ई. के पेंढारी युद्ध (१८१७-१८ ई.) में वह राजपूताने की पलटन का कमांडर था और उसने अमीर खाँ को पेंठारियों से फोड़कर अंग्रेजों को शीघ्र विजय दिलाने में मदद दी। १८२४-३६ ई. में प्रथम बर्मा युद्ध छिड़ने पर उसने भरतपुर (दे.) पर चढ़ाई बोली, जहाँ दुर्जन साल ने अल्पवयस्क राजा बलवन्तसिंह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। किन्तु गवर्नर-जनरल ने उसे तत्क्षण वापस बुला लिया। इसके थोड़े ही समय बाद उसकी मृत्यु हो गयी। चौरंगी के समीप कलकत्ता के मैदान में ऑक्टरलोनी का एक स्मारक आज दिन भी वर्तमान है और उसे साधारणतः मनियारमठ कहा जाता है।

आक्सेनडेन, सर जार्ज
सूरत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फैक्टरी का अध्यक्ष था और १६६२ से १६६९ ई. तक बम्बई का गवर्नर रहा। उसने १६६४ ई. में शिवाजी के हमले के विरुद्ध सूरत की वीरतापूर्वक रक्षा की और बादशाह औरंगजेब ने भी उसकी प्रशंसा की।

आगा खाँ
भारतीय मुसलमानों के वोहरा इस्माइली समुदाय के धार्मिक नेता की उपाधि। वर्तमान आगा खाँ अली खाँ हैं जो इस पद के चौथे उत्तराधिकारी हैं। प्रथम आगा खाँ हसन अली खाँ थे, जो अपने को हजरत मुहम्मद की पुत्री के वंशज बताते थे। उनके बेटे आगा अलीशाह तीन वर्ष (१८८१-१८८४ ई.) इस पद पर रहे और उनके पुत्र सुल्तान मुहम्मद आगा खाँ तृतीय को 'हिज हाईनेस' की उपाधि ब्रिटिश शासकों ने प्रदान की। (नौरोजी दुभसिया-दि आगा खाँ एण्ड हिज एन्सेस्टर्स)


logo