मध्य भारत के चंदेलवंश का सबसे अधिक शक्तिशाली राजा। उसने अपना साम्राज्य चारों दिशाओं में फैलाया और काफी लम्बे अरसे तक शासन किया। उसने खजुराहो के कुछ सुन्दर मंदिर भी बनवाये तथा तत्कालीन राजनीति में सक्रिय भाग लिया। ९८९-९० ई. में वह पंजाब के राजा जयपाल (दे.) द्वारा संगठित भारतीय नरेशों के महासंघ में शामिल हुआ और सबसे साथ मिलकर गजनी के सुबुक्तगीन (दे.) के हमले का मुकाबला करने को बढ़ा, लेकिन कुर्रम घाटी के निकट युद्ध में सब राजाओं के साथ धंग ने भी हार खायी। राजा धंग सौ वर्ष तक जिया। जीवन के सौ वर्ष पूरे होने पर उसने प्रयाग जाकर त्रिवेणी में जलसमाधि ले ली। (एन. एस. वसु कृत 'चंदेलों का इतिहास')
धनञ्जय
दक्षिण भारत के उत्तरी अर्काट जिले में स्थित कुस्थलपुर का राजा। प्रयाग के स्तम्भलेख के अनुसार समुद्रगुप्त (चतुर्थ शताब्दी) ने अपने दक्षिणी अभियान में धनञ्जय को पराजित करने बाद उदारतापूर्वक मुक्त भी कर दिया।
धननंद
नंदवंशी राजाओं में अंतिम, जो सिकन्दर के आक्रमण के समय शासन करता था। प्राचीन यूनानी लेखकों उसका नाम अग्रमस अथवा जैण्ड्रमस लिखा है। इन लेखकों के अनुसार धननंद के पास अपार सम्पत्ति थी। पश्चिम में उसके साम्राज्य की सीमा व्यास नदी तक थी। उसके पास विशाल सेना थी, जिसमें २० हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, दो हजार रथ तथा तीन हजार हाथी थे। इस विशाल सेना से मुकाबला होने की बात सुनकर ही सिकन्दर के सैनिकों ने आगे पूर्व की ओर बढ़ने से इनकार कर दिया। फलतः सिकंदर को अपने देश वापस लौटना पड़ा। धननंद अत्याचारी राजा था और प्रजा उससे कुपित थी। चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने तक्षशिला के स्नातक चाणक्य की सहायता से प्रजा के असंतोष का लाभ उठाकर मगध पर आक्रमण कर दिया और धननंद को मार डाला तथा पाटलिपुत्र को राजधानी बनाकर मौर्यवंश को सत्तारूढ़ किया।
धनाजी जादव
एक मराठा सरदार, जिसने १६८९ ई. में शम्भु जी (दे.) की पराजय और मृत्यु के पश्चात् मुगलों के विरुद्ध मराठों का संघर्ष पूरी शक्ति से जारी रखा। उसने मुगलों के विभिन्न क्षेत्रों को बारी-बारी से रौंदा और मराठों का स्वराज्य के लिए संघर्ष जारी रखा। १७०७ ई. में मुगलों की कैद से साहु की मुक्ति के पश्चात् धनाजी मराठा सेना का प्रधान बनाया गया। धनाजी की मृत्यु हो जाने पर उसके स्थान पर उसका लड़का चंद्रसेन जादव सेनापति बनाया गया।
धरसेन
पश्चिम में वल्लभी के मैत्रकवंश (दे.) के चार राजाओं ने यह नाम धारण किया। यह वंश गुप्त राजाओं के पतन के पश्चात् राज्य श्रीसम्पन्न हुआ था। धरसेन प्रथम ने सेनापति की उपाधि ग्रहण की, किन्तु अन्य तीनों ने राजकीय उपाधियाँ धारण की। धरसेन चतुर्थ ने ६४५ से ६४९ ई. तक शासन किया। वह सम्राट् हर्षवर्धन का दौहित्र था। उसने 'परमभट्टारक परमेश्वर चक्रवर्ती' की उपाधि धारण की थी। वह अपने नाना हर्षवर्धन का उत्तराधिकारी भी बनना चाहता था, लेकिन उसे सफलता न मिली। उसके कार्यकलापों के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती।
धर्मट की लड़ाई
१५ अप्रैल १६५८ ई. को उज्जैन से १४ मील दूर हुई। इस युद्ध में एक ओर बीमार सम्राट् शाहजहाँ की ओर से दारा का पक्ष लेते हुए राजा जसवंतसिंह तथा कासिम अली की फौजों ने तथा दूसरी ओर से विद्रोही औरंगजेब तथा मुराद की फौज़ों ने भाग लिया। इस लड़ाई में शाही फौज बुरी तरह परास्त हुई। औरंगजेब ने विजयी होकर दिल्ली की ओर तेज़ी से प्रयाण किया। वह चम्बल नदी पार कर आगरा से पूर्व आठ मील पर सामूगढ़ पहुँचा, जहाँ दारा के नेतृत्व में शाही फौज से उसकी पुनः मुठभेड़ हुई। दारा पराजित होकर भाग खड़ा हुआ।
धर्मपाल
बंगाल और बिहार के पालवंश (दे.) का द्वितीय राजा। उसने लगभग ७५२ से ७९४ ई. तक शासन किया। वस्तुतः वह पालवंश की कीर्ति का प्रतिष्ठापक था। बंगाल के नरेशों में वह सबसे अधिक प्रतापी था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, जहाँ से उसने बंगाल और बिहार की सीमाओं के बाहर अनेक विजय-यात्राएँ कीं। कुछ समय के लिए वह सम्पूर्ण उत्तरी भारत का अधिपति हो गया। उसने कन्नौज के राजा इन्द्रराज को गद्दी से उतारकर उसके स्थान पर चक्रायुध को बैठाया, जिसने उसका सामंत बनना स्वीकार कर लिया। धर्मपाल को दो मोर्चों पर युद्ध करना पड़ा। उसने दक्षिण में राष्ट्रकूटों (दे.) से लोहा लिया जिन्होंने उसे गंगा-यमुना के दोआब से पीछे खदेड़ दिया। उधर प्रतिहारों (दे.) ने कन्नौज से उसके सामंत चक्रायुध को मार भगाया। राजा धर्मपाल बौद्धधर्म का उत्साही संरक्षक था, उसने विक्रमशिला (आधुनिक भागलपुर जिले) में सुप्रसिद्ध विहार एवं विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा राजशाही जिले के पहाड़पुर के निकट सोमपुर विहार बनवाया। (ढाका हिस्ट्री आफ बंगाल, खण्ड एक)
धर्मपाल
कामरूप (आसाम) में १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा ब्रह्मपाल द्वारा प्रवर्तित वंश का सातवाँ राजा। धर्मपाल १२वीं शताब्दी में हुआ। उसके शासन की अवधि का ठीक-ठीक पता नहीं चलता। तीन आलेखों में उसके द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये भूमिदान का उल्लेख मिलता है। वह सात्तविक विचारों का शासक था, अतः अपने भूमिदान के आलेखों में धर्माचरण से होनेवाले पुण्यों का उल्लेख अवश्य कराता था। सम्भवतः वह विष्णु का उपासक था।
धर्मरत्न
मध्य एशिया में रहनेवाला एक भारतीय बौद्ध भिक्षु, जो ६५ ई. में कश्यप मातंग (दे.) के साथ चीन गया और वहाँ के हान सम्राट् मिंग-ती की संरक्षकता में लोयांग में श्वेताश्व विहार की स्थापना की। इस प्रकार उसने चीन में बौद्ध धर्म के प्रसार में योगदान किया।
धर्मशास्त्र
वेदों के बाद धर्मशास्त्रों को ही हिन्दुओं में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त है। धर्मशास्त्रों में वैदिक धर्मसूत्रों के अंतिरिक्त जिनमें उस युग की सामाजिक रीति-नीति और विधि-विधानों का विवरण है, मनुस्मृति आदि स्मृतियाँ भी शामिल की जाती हैं।