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Bharatiya Itihas Kosh

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नंदवंश
का प्रवर्तन महापद्मनन्द (दे.) द्वारा लगभग ३६२ ई. पू. मगध में हुआ। इस वंश में नौ शासक हुए, यथा महापद्म और उसके आठ पुत्र, जिन्होंने बारी-बारी से राज्य किया। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर उनका शासन काल १००, ४०, अथवा २० वर्षों का माना जाता है। केवल दो ही पीढ़ियों के शासकों के लिए १०० वर्षों का शासनकाल अत्यधिक जान पड़ता है। ४० वर्षों का शासनकाल उचित प्रतीत होता है। इस आधार पर मानना पड़ेगा कि ३२२ ई. पू. के आसपास चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने नंदवंश का नाश किया। नंदवंश के शासक शूद्र थे, फिर भी उन्होंने यथेष्ट शक्ति और धन संचय किया था। इस वंश के अंतिम शासक के पास, जिसे पुराणों ने धननन्द और यूनानी इतिहासकारों ने अग्रमस अथवा जैण्ड्रमस लिखा है, अतुल कोष तथा एक विशाल सेना थी, जिसमें २०,००० अश्वारोही, २००,००० पदाति, २,००० रथ और ३,००० हाथी थे। यूनानी इतिहासकारों ने उसे प्राच्य देश के शासक के रूप में उल्लिखित किया है। उसके राज्य की सीमा व्यास नदी तक विस्तृत थी और उसकी शक्ति से भयभीत होकर सिकन्दर के सैनिकों ने व्यास नदी से आगे बढ़ना अस्वीकार कर दिया और सिकन्दर को वापस लौटना पड़ा। किन्तु नंदवंश का अन्तिम शासक धननन्द अत्यंत अलोकप्रिय था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य अथवा कौटिल्य नामक ब्राह्मण की सहायता से ३२२ ई. पू. के निकट उसे तथा नंदवंश को नष्ट करके मौर्य वंश की नींव डाली।

नंदकुमार
एक बंगाली फौजदार, जो १७५७ ई. में क्लाइव तथा वाटसन द्वारा चन्द्रनगर के फ्रांसीसियों पर आक्रमण करने के समय हुगली में नियुक्त था। नन्दकुमार के अधीन बंगाल के नवाब की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी थी, जिसका प्रयोग वह अंग्रेजों के आक्रमण के समय फ्रांसीसियों की रक्षा के लिए कर सकता था। किन्तु उक्त आक्रमण के पूर्व नन्दकुमार अपने अधीनस्थ सैनिकों को लेकर हुगली से दूर चला गया और अंग्रेजों ने सरलता से चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया। "यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के आचरण के लिए नंदकुमार को उत्कोच (घूस) दिया गया था।" पलासी के युद्ध के उपरान्त वह नवाब मीर जाफ़र का कृपा पात्र बन गया और १७६४ ई. में शाहआलम ने उसको 'महाराज' की उपाधि प्रदान की। उसी साल वारेन हेस्टिंग्स को हटाकर नन्दकुमार को वर्दवान का कलक्टर नियुक्त किया गया और इस कारण हेस्टिंग्स ने उसे कभी क्षमा नहीं किया। अगले ही वर्ष नन्दकुमार को बंगाल का नायब सूबेदार नियुक्त किया गया, किन्तु शीघ्र ही उसे पदमुक्त कर वहां मुहम्मद रज़ा खां की नियुक्ति की गयी। १७७२ ई. में तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने रज़ा ख़ाँ हटा दिया तथा नन्दकुमार की सहायता से उस पर मुकदमा भी चलाया। किन्तु आरोप सिद्ध न हुए और तभी से नन्दकुमार और वारेन हेस्टिंग्स में मतभेद हो गया।
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नन्दिवर्धन
पुराणों के अनुसार शिशुनागवंश के अंतिम शासक पंचमक के पूर्व मगध का शासक। इसके संबंध में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है।

नम्बूद्री ब्राह्मण
इस वर्ग का निवास मलाबार (केरल) का भूभाग है। इन लोगों ने वैदिक परंपरा और कर्मकाण्ड को विपरीत परिस्थितियों में भी आत्मत्यागपूर्वक सुरक्षित रख़ा है। अपनी विशिष्टता के कारण इन्हीं लोगों में से बद्रीनाथ आदि पवित्र मन्दिरों के रावल (मुख्य पुजारी) नियुक्त किये जाते हैं।

नगरकोट
आधुनिक काँगड़ा, जो हिमाचल प्रदेश में है। सुल्तान मुहम्मद तुगलक (दे.) ने १३३७ ई. में उस पर अधिकार कर लिया था।

नजफ़ खाँ
देखिये, 'मिर्जा नजफ़ खां'।

नजमुद्दौला
बंगाल के नवाब मीर जाफ़र का द्वितीय पुत्र और उत्तराधिकारी। १७६६ ई. में मीर जाफ़र की मृत्यु के उपरान्त अंग्रेजों ने बड़े भाई के स्थान पर उसको इस शर्त पर गद्दी पर बैठाया कि राज्य का संचालन कलकत्ता कौंसिल द्वारा चुने गये एक डिप्टी या उपशासक द्वारा होगा। कौंसिल ने रजा खां को उपशासक चुना और इस प्रकार नजमुद्दौला केवल नाममात्र का शासक रह गया। १७६६ ई. में उसका भत्ता कम करके ४१ लाख कर दिया गया, जो पुनः १७६९ ई. में ३२ लाख और १७७२ ई. में केवल १५ लाख कर दिया गया, जो उसके पद और शक्ति के क्रमिक ह्रास का सूचक है।

नयपाल
विहार और बंगाल के पालवंशीय शासक महीपाल (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। वह पालवंश का दसवाँ शासक था और उसने लगभग १०३८ से १०५५ ई. तक राज्य किया। उसके राज्यकाल में दीर्घकाल तक कलचुरियों (दे.) से संघर्ष चलता रहा। पाल शासन का विघटन नयपाल के राज्यकाल से ही प्रारंभ हो गया था और पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी बंगाल उसके हाथों से निकल गया था। उसके राज्यकाल में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् अतिशा (दीपंकर श्रीज्ञान) ने तिब्बत के शासकों के निमंत्रण पर अपने शिष्यों सहित वहां की यात्रा की।

नरसा नायक
विजयनगर के सालुववंश के दूसरे और अन्तिम अल्पवयस्क शासक इम्मडि नरसिंह का संरक्षक। उसने उस बाल-शासक को एक प्रकार से बन्दी बना लिया और शासन संचालन की समस्त शक्ति अपने हाथों में ले ली। यह कार्य उसने इतनी चतुरता एवं कठोरता से किया कि १५०३ ई. में उसकी मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र वीर नरसिंह ही संरक्षक बना और वही १५०५ ई. में शासक बन बैठा।

नरसिंहगुप्त
सुविख्यात गुप्तवंश का एक शासक, जिसने बालादित्य का विरुद्ध धारण किया था। वह सम्राट् पुरुगुप्त (दे.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। उसका शासनकाल लगभग ४६७ ई. से ४७३ ई. तक माना जाता है। नरसिंहगुप्त बौद्ध धर्म का कट्टर अनुयायी था और उसने नालन्दा में, जो उत्तरी भारत में बौद्ध शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र था, ईंटों का एक भव्य मंदिर बनवाया, जिसमें ८० फुट ऊँची बुद्ध की ताम्रप्रतिमा की स्थापना की गयी थी। विद्वानों ने बालादित्य को ही हूण शासक मिहिरकुल का विजेता माना है, जिसकी सत्ता ५३३-३४ ई. में समाप्त कर दी गयी। ऊपर जो तिथियाँ दी गयी हैं, उनसे यह समीकरण सही नहीं प्रतीत होता।


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