वाइसराय लार्ड कर्जन (दे.) की आज्ञा द्वारा १९०३-१९०४ ई. में यंग-हस्बैण्ड के नेतृत्व में एक ब्रिटिश भारतीय अभियान दल तिब्बत गया। यंग-हस्बैण्ड जुलाई १९०३ ई. में तिब्बती क्षेत्र के अन्तर्गत सिक्किम सीमान्त से १५ मील उत्तर की ओर स्थित खम्बजेंग पहुँचा। किन्तु तिब्बतियों ने अंग्रेज अतिक्रमणकर्ताओं के साथ तबतक सन्धिवार्ता करने से इन्कार कर दिया जब तक वह उनके सीमान्त के उस पार न चला जाय। फलतः यंग-हस्बैण्ड भारत सरकार के अनुमोदन से तिब्बत के अन्दर ग्यान्तसे तक बढ़ गया और तिब्बत की सेना को गुरु नामक स्थान पर परास्तकर दिया। चूँकि तिब्बती अब भी सन्धि-वार्ता के लिए तैयार न थे, अतः यंग-हस्बैण्ड तिब्बत में और आगे बढ़ गया और दूसरी विशाल तिब्बती सेना को करो-ला-दर्रे के निकट युद्ध में परास्त किया और अभियानपूर्वक तिब्बत की राजधानी ल्हासा में ३ अगस्त १९०४ ई. को प्रविष्ट हो गया। यंग-हस्बैण्ड की विजयों के फलस्वरूप तिब्बतियों को संधि-वार्ता के लिए बाध्य होना पड़ा, फलस्वरूप ७ सितम्बर १९०४ ई. को ल्हासा की सन्धि (दे.) उनपर आरोपित की गयी और सोलह दिन बाद विजयोल्लास के साथ यंग-हस्बैण्ड वापस लौट आया। ल्हासा की संधि के अन्तर्गत, जो बाद में संशोधित की गयी, तिब्बत को तीन वर्ष मे पचीस लाख रुपये क्षतिपूर्ति रूप में देने पड़े, तीन वर्ष तक के लिए चुम्बीघाटी को छोड़ना पड़ा और एक ब्रिटिश एजेण्ट को ग्यान्तसे में रहने की अनुमति देनी पड़ी। यंग-हस्बैण्ड की वापसी पर वाइसराय लार्ड कर्जन ने उसकी बड़ी आवभगत की। (जी. एफ. सीवर- फ्रांसिस यंग हस्बैण्ड की वापसी पर वाइसराय लार्ड कर्जन ने उसकी बड़ी आवभगत की। (जी. एफ. सीवर- फ्रांसिस यंग हस्बैण्ड)
यजुर्वेद
चार वेदों में से एक। यजुर्वेद संहिता (दे.) में यज्ञ क्रियाओं के मंत्र और विधियां संग्रहीत हैं। इसमें केवल ऋग्वेद से लिये हुए मंत्र ही नहीं मिलते, किन्तु यज्ञानुष्ठान में सम्पादित की जानेवाली समस्त क्रियाओं का विधान भी मिलता है। यजुर्वेद दो हैं, तथा- (अ) कृष्ण यजुर्वेद (आ) शुक्ल यजुर्वेद
तैत्तिरीय ब्राह्मण, मैत्रायणी ब्राह्मण और काठक ब्राह्मण (दे.) कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित हैं और वाजसनेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं। निम्नलिखित उपनिषद् भी यदुर्वेद से सम्बद्ध हैं- तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर, वृहदारण्यक, ईश, प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य। यजुर्वेद में यज्ञों और कर्मकाण्ड का प्राधान्य है।
यज्ञश्री, गौतमी पुत्र (१७०-२०० ई.)
उत्तरकालीन सातवाहन (दे.) राजाओं में सबसे प्रतापी। उसने पश्चिमी अंचलवर्ती क्षत्रपों से सातवाहनों की भूमि पुनः छीन ली, जिसपर उन्होंने आधिपत्य जमा रखा था। उसने चाँदी, काँसे तथा सीसे के अनेक सिक्के प्रचलित किये, जिनमें से कुछ सिक्कों पर पोत का चित्र बना हुआ था। इससे सूचित होता है, उसका राज्य समुद्र पार के देशों तक विस्तृत था।
यदु
गण का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उत्तरकालीन साहित्यिक अनुश्रुतियों के अनुसार यदु लोग पश्चिमी भारत में प्रमास के निकट बस गये थे। कृष्ण, जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है यदु गण के ही थे।
यन्दबू की संधि
यह १८२६ ई. में सम्पन्न हुई। इससे प्रथम बर्मा-युद्ध (दे.) की समाप्ति हुई। इस संधि के द्वारा बर्मा ने अंग्रेजों को एक करोड़ रुपया हर्जाना देना स्वीकार किया; अराकान और तेनासरीम के प्रान्त उन्हें सौंप दिये; आसाम, कछार और जयन्तिया में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करने का वायदा किया; (ये क्षेत्र अन्ततोगत्वा ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत चले गये) और आवा में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना भी स्वीकार कर लिया।
यम
एक वैदिक देवता, जिसके लोक में पितरों की आत्माओं का निवास माना जाता है। वह जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मों के अनुसार पुरस्कार और दण्ड प्रदान करता है, इसीलिए वह 'धर्मराज' भी कहलाता है।
यवन
हिन्दू लेखकों ने मूलतः यह शब्द विदेशी यूनानियों के लिए इस्तेमाल किया, किन्तु बाद को यह शब्द मुसलमानों के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह 'योंन' शब्द से बना है, जो आयोनिया का पर्याय है और मूलतः उसका तात्पर्य आयोनिया के निवासियों से है। (सरकार.-पृ. ३२१-२७)
यवन बाख्त्री राजवंश
इसका प्रवर्तन ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में बैक्ट्रिया (बाख्त्री) के यूनानी (यवन) क्षत्रप डियोडोरस ने किया, जो सीरिया (शाम) के यूनानी राजा की अधीनता को त्यागकर स्वतन्त्र राजा बन बैठा। यह नया वंश ईसा-पूर्व १५५ में समाप्त हो गया। इस वंश में कई राजा हुए। इनमें डेमेट्रियस (लगभग २००-१९० ई. पू.) ने उत्तर भारत का काफी बड़ा भाग अपने आधिपत्य में कर लिया, जिसमें सम्भवतः काबुल पंजाब और सिंध भी शामिल था, लेकिन डेमेट्रियस को शीघ्र ही युक्रेटीदस ने पराजित कर दिया, बाद में युक्रेटीदस को उसके पुत्र अपोलोडोटस ने मार डाला। अपोलोडोटस को उसके भाई हेलियोक्लोज़ ने मारा। इस प्रकार यवन बाख्त्री राजवंश का अन्त हो गया। इस काल के लगभग ४० विभिन्न यवन राजाओं के नाम के सिक्के पाये गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि पश्चिमोत्तर भारत की सीमा पर बहुत से छोटे-छोटे यवन राज्य रहे होंगे। इन यवन राजाओं में मिनान्डर का नाम बहुत प्रसिद्ध है। उसने बौदध धर्म अपना लिया था। 'मिलिन्दपन्हो' नामक प्रसिद्ध बौद्ध धर्म ग्रन्थ में उल्लिखित मिलिन्द यही मिनान्डर है।
यवन बौद्ध मूर्तिकला
बहुधा मूर्तिकला की इस शैली को 'गाँधार शैली' कहते हैं। इस शैली की बौद्ध मूर्तियों पर यूनानी कला का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस शैली की बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो से मिलती जुलती हैं। इसी प्रकार यक्ष कुबेर की मूर्ति यूनानी देवता जीयस से मिलती जुलती है। इन मूर्तियों को जो परिधान पहनाया गया है, वह भी यूनानी ढंग का और आमतौर पर पारदर्शी है। सामान्यतः यूनानी देवी-देवताओं को भारतीय बौद्धों की पोशाक और आकृति में दिखाकर बौद्ध नामकरण कर दिया गया है। यवन बौद्ध मूर्तिकला (गाँधार शैली) वस्तृतः यूनानी-रोमन कला है जो ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में लघु एशिया तथा रोमन साम्राज्य में प्रचलित थी। द्वितीय शताब्दी में, जबकि पश्चिमोत्तर भारत में कुषाण राजा कनिष्क तथा हुविष्क का शासन था, इस गांधार शैली की मूर्तिकला का बहुत प्रचलन था।
यशोधरपुर
कम्बुज देश (कम्बोडिया) की प्राचीन राजधानी। नगर का आधुनिक नाम 'अंकोरथम' है। राजा यशोवर्मा (८८९-९०८ ई.) ने इसकी नींव डाली थी। आकार में नगर चौकोर तथा प्रत्येक ओर दो मील लम्बा था। यह ३३० फुट चौड़ी परिखा से घिरा हुआ और ऊँचे प्राकार से परिवेष्टित था। यह सुन्दर इमारतों और मन्दिरों से सुसज्जित था, जिनमें १५० फुट ऊँचा बयोन मन्दिर सर्वाधिक सुन्दर था। यशोधरपुर अपने समय में संसार के सबसे सुन्दर नगरों में गिना जाता था।