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Bharatiya Itihas Kosh

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दूसरा आंग्ल-अफगान युद्ध
(१८७८-८० ई.)-वाइसराय लार्ड लिटन प्रथम (१८७६-१८८० ई.) के शासन काल में आरम्भ हुआ और उसके उत्तराधिकारी लार्ड रिपन (१८८०-८४ ई.) के शासनकाल में समाप्त हुआ। अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु १८६३ ई. में हो गयी और उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया। उत्तराधिकार का यह युद्ध (१८६३-६८ ई.) पाँच वर्ष चला। इस बीच भारत सरकार ने पूर्ण निष्‍क्रियता की नीति का पालन किया और काबुल की गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों में किसी का पक्ष नहीं लिया। अन्त में १८६८ ई. में जब दोस्त मुहम्मद के तीसरे बेटे शेर अली ने काबुल की गद्दी प्राप्त कर ली तो भारत सरकार ने उसको अफगानिस्तान का अमीर मान लिया और उसे शस्त्रास्त्र तथा धन की सहायता देना स्वीकार कर लिया। लेकिन इसी बीच मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बहुत बढ़ गया। रूस ने बुखारा पर १८६६ में, ताशकंद पर १८६७ में और समरकंद पर १८६८ ई. में कब्जा कर लिया। मध्य एशिया में रूस के प्रभाव के बढ़ने से अफगानिस्तान और भारत की अंग्रेज सरकार को चिन्ता हो गयी। अमीर शेर अली मध्य एशिया में रूस के प्रभाव को रोकना चाहता था और भारत की अंग्रेज सरकार अफगानिस्तान को रूसी प्रभाव से मुक्त रखना चाहती थी। इन परिस्थितियों में १८६९ ई. में पंजाब के अम्बाला नगर में अमीर शेर अली और भारत के भारत के वायसराय लार्ड मेयो (१७६९-७२ ई.) की भेंट हुई। उस समय अमीर अंग्रेजों की यह माँग मान लेने के लिए तैयार हो सकता था कि वह अपने वैदेशिक सम्बन्ध में अंग्रेजों का नियंत्रण स्वीकार कर ले और अंग्रेज रूस के विरुद्ध उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी ले लें और सहायता करें और उसको अथवा उसके नामजद व्यक्तियों को ही अफगानिस्तान का अमीर मानें। इंग्लैण्ड के निर्देश पर ब्रिटिश सरकार ने सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने की बात नहीं मानी, यद्यपि शस्त्रास्त्र और धन की सहायता देने का वचन दिया। स्वाभाविक रूप से अमीर शेर अली को भारत सरकार से समझौते की शर्तें संतोषजनक नहीं लगीं। लेकिन १८७३ ई. में रूसियों ने खीवा पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार उनका बढ़ाव अफगानिस्तान की ओर होने लगा। इस हालत से चिन्तित होकर अमीर शेर अली ने १८७३ में वाइसराय लार्ड नार्थब्रुक (१८७३-८६ ई.) के सामने आंग्ल-अफगानिस्तान सन्धि का प्रस्ताव रखा जिसमें अफगानिस्तान को यह आश्वासन देना था कि यदि रूस अथवा उसके संरक्षण में कोई राज्य अफगानिस्तान पर आक्रमण करे तो ब्रिटिश सरकार अफगानिस्तान की सहायता केवल शस्त्रास्त्र और धन देकर ही नहीं करेगी वरन् अपनी सेना भी वहाँ भेजेगी। उस समय इंग्लैण्ड में ग्लैडस्टोन का मंत्रिमंडल था। उसकी सलाह के अनुसार लार्ड नार्थब्रुक इस प्रस्ताव पर राजी नहीं हुआ। नार्थब्रुक इस बात के लिए भी राजी नहीं हुआ कि वह अमीर शेर अली के पुत्र अब्दुल्लाजान को उसका वारिस मानकर उसे भावी अमीर मान ले। इन बातों से शेर अली अंग्रेजों से नाराज हो गया और उसने रूस से अपने सम्बन्ध सुधारने के लिए लिखा पढ़ी शुरू कर दी। रूसी एजेण्ट जल्दी-जल्दी काबुल आने लगे। १८७४ ई. में डिज़रेली ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना और १८७७ ई. में रूस-तुर्की युद्ध शुरू हो गया जिससे इंग्लैण्ड और रूस के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो गयी और दोनों में किसी समय भी युद्ध छिड़ने की आशंका उत्पन्न हो गयी। इस हालत में अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर अपना मजबूत नियंत्रण रखने का निश्चय किया जिससे अफगानिस्तान से होकर भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो। इस नीति के परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने क्वेटा पर १८७७ ई. में अधिकार कर लिया क्योंकि कंधार के रास्ते की सुरक्षा के लिए उसपर नियंत्रण रखना जरूरी था। लार्ड नार्थब्रुक के उत्तराधिकारी लार्ड लिटन प्रथम (१८७६-८० ई.) ने डिज़रेली मंत्रिमंडल की सलाह से काबुल दरबार में एक ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल भेजने का निश्चय किया जिसे १८७३ ई. में अफगानिस्तान के अमीर द्वारा प्रस्तावित शर्तों के आधार पर सन्धि की बातचीत शुरू करनी थी। उन शर्तों के अलावा यह शर्त भी रखी गयी कि हेरात में भी ब्रिटिश रेजिडेण्ट रखा जाय। लेकिन अमीर ने ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल काबुल भेजने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उसकी ओर से कहा गया कि यदि अफगानिस्तान में ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल आयेगा तो रूस के प्रतिनिधिमंडल को भी आने की इजाजत देनी पड़ेगी। इस प्रकार इस मामले में एक गतिरोध-सा उत्पन्न हो गया लेकिन अमीर के प्रतिबन्ध के बावजूद एक रूसी प्रतिनिधिमंडल जनरल स्टोलीटाफ के नेतृत्व में १८७८ ई. में अफगानिस्तान पहुँचा और उसने अमीर शेर अली से २२ जुलाई १८७८ को सन्धि की बातचीत शुरू कर दी। उसने अफगानिस्तान पर विदेशी हमला होने पर रूस की ओर से सुरक्षा की गारण्टी देने का प्रस्ताव रखा। रूसी प्रतिनिधिमण्डल के काबुल में हुए स्वागत से लार्ड लिटन (प्रथम) भयंकर रूप से क्रुद्ध हो गया और उसने इंग्लैण्ड की ब्रिटिश सरकार के परामर्श से अफगानिस्तान के अमीर पर इस बात का दबाव डाला कि वह काबुल में ब्रिटिश प्रतिनिधिमण्डल का भी स्वागत एक निश्चित तारीख २० नवम्बर १८७८ को करे। अमीर ने तब नयी सन्धि के अंतर्गत रूस से मदद माँगी लेकिन इस बीच रूस-तुर्की युद्ध समाप्त हो गया था और यूरोप में शान्ति स्थापित हो गयी थी और इंग्लैण्ड और रूस के बीच १८७८ की वर्लिन की सन्धि हो गयी थी। रूस अब इंग्लैण्ड से युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने शेर अली को अंग्रेजों से सुलह करने की सलाह दी, लेकिन शेर अली ने अब सुलह में काफी देरी कर दी थी, क्योंकि अंग्रेज सेना ने २० नवम्बर को अफगानि्स्‍तान पर हमला बोल दिया था और इस प्रकार दूसरा आंग्ल अफगान युद्ध शुरू हो गया था।
जिस प्रकार पहले आंग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२ ई.) में ब्रिटिश भारतीय सेना को आरम्भ में सफलताएँ मिलीं थीं, उसी प्रकार इस बार भी मिलीं। रूसके साथ न देने के कारण शेर अली अंग्रेजी आक्रमण का अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका। तीन अंग्रेजी सेनाओं ने तीन ओर से काबुल पर चढ़ाई कर दी-जनरल ब्राउन के नेतृत्व में एक सेना खैबर के दर्रे से, दूसरी सेना जनरल (बाद में लार्ड ) राबर्ट्स के नेतृत्व में कुर्रम की घाटी से और तीसरी सेना जनरल बीडल्फ के नेतृत्व में क्वेटा से आगे बढ़ी। चौथी ब्रिटिश सेना ने जेनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में कंधार पर कब्जा कर लिया। शेर अली की हालत एक महीने में ही इतनी पतली हो गयी कि वह अफगानिस्तान छोड़कर तुर्किस्तान भाग गया जहाँ शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी। शेर अली की मृत्यु के बाद उसके बेटे याकूब खाँ ने अंग्रेजों से सुलह की बातचीत चलायी और मई १८७९ ई. में गन्दमक की सन्धि कर ली। इस सन्धि में अंग्रेजों की सभी शर्तें मंजूर कर ली गयीं। इसके अलावा काबुल में ब्रिटिश राजदूतों को रखना तय हुआ और अफगानिस्तान की वैदेशिक नीति भारत के वासइराय की राय से यह करने की बात भी मान ली गयी। कुर्रम, पिशीन और सिबी के जिले भी अंग्रेजों को सौंप दिये गये। इस सन्धि के अनुसार प्रथम ब्रिटिश राजदूत कैवगनरी जुलाई १८७९ ई. में काबुल पहुँच गया। उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस युद्ध में अंग्रेजों को पूरी सफलता मिली है। लेकिन ३ सितम्बर को काबुल की अफगान सेना में सैनिक विद्रोह हो गया, कैवगनरी की हत्या कर दी गयी और फिर से लड़ाई शुरू हो गयी। अंग्रेजों ने इस बार तत्काल प्रभावशाली ढंग से कार्रवाई की। राबर्ट्स ने अक्तूबर १८७९ ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया और अमीर याकूब खाँ की हालत कैदी जैसी हो गयी। उसके भाई अयूब खाँ ने अपने को अमीर घोषित कर दिया और उसने जुलाई १८८० ई. में ब्रिटिश सेना को कंधार के निकट भाईबन्द के युद्ध में पराजित कर दिया। लेकिन राबर्ट्स एक बड़ी सेना के साथ काबुल से कंधार पहुँचा, शेर अली के भतीजे अब्दुर्रहमान ने भी अंग्रेजों की काफी मदद की और ब्रिटिश सेना ने अयूबखाँ को पूरी तौर से हरा दिया। इसी बीच इंग्लैण्ड में डिजरेली के स्थान पर ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बन गया, जिसने भारत के वाइसराय लार्ड लिटन को वापस बुलाकर लार्ड रिपन को भारत का वाइसराय (१८८०-८४) बनाया। नये वाइसराय ने अब्दुर्रहमान के साथ सन्धि करके दूसरा आंग्ल-अफगान युद्ध समाप्त कर दिया। इस सन्धि में अब्दुर्रहमान खाँ को अफगानिस्तान का अमीर मान लिया गया। अमीर ने अंग्रेजों से वार्षिक सहायता पाने के बदले में अपनी वैदेशिक नीति पर भारत सरकार का नियंत्रण स्वीकार कर लिया। गन्दमक की सन्धि में जो जिले अंग्रेजों को मिले थे वे उनके पास ही बने रहे।
दूसरा अफगान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति जिसे अग्रसर नीति (फारवर्ड पालिसी ) कहा जाता था, उसके अनुसार भारत की, पश्चिमोत्तरमें, प्राकृतिक सीमा हिन्दूकुश होनी चाहिए। इस नीति के अनुसार भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में कंधार और काबुल को जो भारत के दो फाटक माने जाते थे, सम्मिलित करना आवश्यक समझा जाता था। दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैण्ड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे, दोनों अफगानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे। इंग्लैण्ड में विशेष रूप से कंजरवेटिव पार्टी को अफगानिस्तान होकर भारत की और रूसी प्रसार का तीव्र भय था। यद्यपि यह भय कभी साकार नहीं हुआ तथापि इसने अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश नीति को समूची १९ वीं शताब्दी भर प्रभावित किया।

दण्डनायक
विजयनगर के हिंदू राजाओं के सेनाध्यक्षों की उपाधि।

दण्डी
छठीं शताब्दी ई. में वर्तमान, जो संस्कृत का सरस कवि, साहित्य समालोचक और गद्य-लेखक था। 'काव्यादर्श' संस्कृत पद्य में लिखा उसका काव्यशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ है। उसके द्वारा लिखा गया 'दशकुमारचरित्र' संस्कृत गद्यकाव्य का सबसे प्रसिद्ध प्रेमाख्यान है।

दंतिदुर्ग
आठवीं शताब्दी ई. के मध्य में राष्ट्रकूट वंश का प्रवर्तक। उसने वातापी के चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा द्वितीय को पराजित एवं अपदस्थ किया और एक नये राजवंश की स्थापना की, जिसके शासकों ने ७३३ से ९७२ ई. तक दक्षिण भारत में शासन किया।

दक्षिण
मूलरूप से दक्षिण अथवा दक्षिणापथ का प्रयोग उस क्षेत्र के लिए किया जाता था, जो उत्तर में विंध्य पर्वत और नर्मदा से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक विस्तृत हैं। बाद में दक्षिण का अर्थ वह क्षेत्र माना जाने लगा, जो उत्तर में नर्मदा तक, दक्षिण में तुंगभद्रा तथा कृष्णा नदी के बीच स्थित है, अर्थात् दक्षिणी पठार के मुख्य भाग को दक्षिण कहा जाने लगा, जिसके अंतर्गत आजकल का मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा आंध्रप्रदेश आता है। कृष्णा और तुंगभद्रा के दक्षिण के क्षेत्र को कभी-कभी तमिळहम् अर्थात् तमिल देश कहा जाता था। यहाँ दक्षिण का अर्थ है नर्मदा और कृष्णा नदियों के बीचका दक्षिणी पठार। भूगर्भीय दृष्टि से सिंधु और गंगा के मैदानों की अपेक्षा यह पठार बहुत प्राचीन माना जाता है।
दक्षिण में जो पुरातात्त्विक अवशेष मिले हैं, वे उत्तरी भारत (हिमालय क्षेत्र को छोड़कर) में प्राप्त अवशेषों से अधिक प्राचीन हैं। दक्षिणी पठार वस्तुतः एक पर्वतीय त्रिकोण पर स्थित है, जिसका शीर्षबिन्दु नीलगिरि है। पश्चिमीघाट एवं पूर्वीघाट इस त्रिकोणकी दो भुजाएँ हैं तथा विंध्य पर्वतश्रेणी इसका आधार है। विन्ध्य पर्वत श्रेणी के कारण कोई नदी उत्तर से दक्षिण की ओर नहीं बहती। चूंकि पश्चिमी घाट पूर्वीघाट की अपेक्षा अधिक ऊँचे हैं, अतएव दक्षिण की सभी नदियाँ सतपुड़ा पहाड़ियों के नीचे पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं और बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।
रामायण तथा महाभारत में सुरक्षित प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार सर्वप्रथम अगस्त्य मुनि दक्षिण गये थे। वहाँ उन्होंने वानरों, असुरों तथा राक्षसों को प्रभावित कर अपना सम्मानजनक स्थान बनाया। विश्वास किया जाता है कि ये दक्षिणवासी द्रविड़ थे, जिनकी भौतिक सभ्यता आर्यों की अपेक्षा ऊँची थी।
ऐतिहासिक दृष्टि से हमें दक्षिण के सम्बन्ध में जो जानकारी मिलती है, वह उत्तर भारत की तुलना में काफी अर्वाचीन है। नन्दवंश (दे.) से पहले हमें दक्षिण के बारे में जानकारी नहीं मिलती। इन नंद राजाओं (ई. पू. चौथी शताब्दी) के साम्राज्य में कलिंग शामिल था। हो सकता है कि सम्पूर्ण दक्षिण उनके साम्राज्य के अंतर्गत रहा हो। अशोक के साम्राज्य में यद्यपि कलिंग ही शामिल था, तथापि उसका साम्राज्य पेनार नदी तक फैला हुआ था। उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमाएँ चेर, चोल, पाण्डय तथा सातियपुत्र राज्यों को छूती थीं। मौर्यवंश के पतन के पश्चात् सातवाहनों (दे.) ने, जो आंध्र भी कहे जाते थे, एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और ई. पू. ५० से २२५ ई. तक शासन किया। इसी काल में शकों (दे.) की एक शाखा ने दक्षिण के पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया।
सातवाहनों के पतन के पश्चात् दक्षिण के विविध भागों में अनेक छोटे-छोटे राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें गंग (दे.), वाकाटक (दे.) तथा कदम्ब (दे.) मुख्य थे। गंगवंश की एक शाखा ने दूसरी से ग्यारहवीं शताब्दी तक मैसूर के एक बड़े क्षेत्र पर राज्य किया। श्रवणबेलगोला की पहाड़ी पर स्थापित ५६।। फुट ऊँची गोमटेश्वर की विशाल प्रतिमा इन्हीं राजाओं की याद दिलाती है। गंगवंश की एक शाखा ने उड़ीसा में भी छठी से १६वीं शताब्दी तक शासन किया। इसी वंश के अनंतवर्मा चोड़गंग ने पुरी के विख्यात जगन्नाथ मंदिर को बनवाया था। कदम्ब राजाओं ने तीसरी से छठी शताब्दी तक दक्षिण कर्नाटक और पश्चिमी मैसूर में शासन किया, जबकि वाकाटकों ने चतुर्थ से छठी शताब्दी तक मध्यप्रदेश तथा दक्षिण के पश्चिमी भाग पर शासन किया। चतुर्थ शताब्दी के मध्य में समुद्रगुप्त (दे.) ने, जो गुप्तवंश का द्वितीय सम्राट् था, दक्षिण की ओर अभियान किया और वहाँ के अनेक राजाओं को अपने अधीन किया, जिनमें पल्लव राजा विष्णुगोप भी था, जिसकी राजधानी कांची थी जिसे आजकल कांजीवरम कहते हैं। गुप्तवंश के तृतीय सम्राट् चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (दे.) ने उज्जयिनी के शक क्षत्रप को पराजित कर सम्पूर्ण मालवा और गुजरात को अपने अधीन कर लिया।
गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् उत्तर भारत दक्षिण से अलग हो गया तथा दक्षिण में चालुक्यवंश का राज्य स्थापित हुआ जो कदाचित् उत्तर भारत के किसी राजपूत वंश की एक शाखा थे। चालुक्यों की राजधानी वातापी अथवा बादामी में थी, जो आजकल महाराष्ट्र के बीजापुर जिले में है। इस वंश ने लगभग दो सौ वर्ष तक शासन किया। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा पुलकेशी द्वितीय (दे.) था, जिसने ६०८-४२ ई. तक शासन किया और ६४१ ई. में नर्मदा नदी के किनारे उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध सम्राट् हर्षवर्धन को पराजित किया और इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण के बीच नर्मदा नदी की प्राकृतिक सीमा को कायम रखा। पड़ोसी कांची के पल्लव राजा (दे.) उसके सबसे शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी थे। पल्लव राजा नरसिंह वर्मा ने ६४२ ई. में चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को पराजित कर मार डाला। बत्तीस वर्ष पश्चात् राष्ट्रकूट वंश के दंति दुर्ग (दे.) ने चालुक्यवंश का मूलोच्छेद कर दिया। राष्ट्रकूटों के नये वंश ने मान्यखेट (आधुनिक मालखेट) को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिणी भारत पर शासन किया। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा अमोघवर्ष (लगभग ८१५-७७ ई.) (दे.) था, जिसका उल्लेख अरब यात्रियों ने बलहर अथवा वल्लभराय के नाम से किया है। ९७३ ई. में द्वितीय चालुक्यवंश ने राष्ट्रकूट वंश का मूलोच्छेद कर दिया। इस द्वितीय चालुक्यवंश ने दक्षिणी भारत पर ११९० ई. तक शासन किया।
द्वितीय चालुक्यवंश के पतन के पश्चात् दक्षिणापथ तीन राजवंशों में विभाजित हो गया। यादवों ने देवगिरि को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण के पश्चिमी भाग पर शासन किया। होयसल वंश ने द्वारसमुद्र (आधुनिक हैलविड) को अपनी राजधानी बनाकर मैसूर पर शासन किया। काकतीयवंश ने बारंगल को राजधानी बनाकर दक्षिण के पूर्वी भाग (तेलंगाना) पर शासन किया। दक्षिण के इन राजाओं के बीच बराबर युद्ध होते रहते थे। फलतः दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक-एक करके सभी को अपने अधीन कर लिया। यादव राजा १२९६ और १३१३ ई. के बीच परास्त हुए, काकतीय राजा १३१० ई. में तथा होयसल-नरेश १३११ ई. में। इसके बाद होयसलों ने नाममात्र के लिए १४२४-२५ ई. तक शासन किया। इनके राज्य को बाद में बहमनी सुल्‍तानों ने अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार उत्तर भारत की भाँति दक्षिण में भी हिन्दू राज्य समाप्त हो गया।
यद्यपि राजनीतिक दृष्टि से नंदों, मौर्यों तथा गुप्तों को छोड़कर शेष काल में दक्षिण उत्तर भारत से लगभग अलग ही रहा, तथापि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से वह सदैव हिन्दू भारत का अभिन्न अंग रहा। यद्यपि दक्षिणवासी उत्तरभारतीयों से भिन्न भाषाएँ बोलते थे, तथापि उत्तर के हिन्दुओं की भाँति दक्षिण की भी राजभाषा संस्कृत ही रही। ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का दक्षिण में भी उतना ही आदर हुआ, जितना उत्तर में। यदि दक्षिण ने उत्तर से बहुत कुछ प्राप्त किया, तो उसने उत्तर को बहुत कुछ दिया भी। आदि शंकराचार्य दक्षिण के ही थे, जिन्होंने वेदान्तदर्शन का प्रतिपादन किया। रामानुजाचार्य ने वैष्णवधर्म की स्थापना की। विख्यात स्मृतिकार विज्ञानेश्वर ने 'मिताक्षरा सिद्धांत' प्रतिपादित किया जो बंगाल और आसाम को छोड़कर शेष भारत के सामाजिक जीवन का नियमन करता है। कला और वास्तुशिल्प में दक्षिण ने हिन्दू परम्परा को जीवित रखा। कला, वास्तुशिल्प, मूर्तिकला और चित्रकला के क्षेत्र में हिन्दुओं की उन्नति का परिचय दक्षिण जाने पर ही मिलता है, जहाँ विशाल मंदिरों के रूप में अत्यन्त सुन्दर कलाकृतियाँ विद्यमान हैं। एलोरा-अजंता की गुफाएँ और ये मंदिर हिन्दुओं के कला वैभव का जो चित्र प्रस्तुत करते हैं, उसकी कल्पना उत्तर भारत के मंदिरों को देखकर नहीं की जा सकती।

दक्षिण का बाद का इतिहास
अलाउद्दीन खिलजी ने १३१० ई. में देवगिरि, उसी वर्ष वारंगल और १३११ ई. में द्वारसमुद्र के हिन्दू राजाओं को जीता। बाद में उसने अपने सेनापति मलिक काफूर (दे.) को सुदूर दक्षिण की विजय के लिए भेजा। काफूर ने पाण्ड्य राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लेने के बाद रामेश्वरम् तक धावा बोला। इस प्रकार उसने कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण दक्षिण भारत को मुसलमानों के अधीन कर दिया। वह अपने साथ लूट के सामान में ६१२ हाथी, २० हजार घोड़े, ९६ हजार मन सोना तथा मोती एवं जवाहरात के बहुत से संदूक भर कर लाया। इससे दक्षिण भारत के वैभव का पता चलता है। किन्तु दिल्ली का प्रभुत्व वहाँ बहुत दिनों तक कायम न रह सका।
सुल्तान मुहम्मद तुगलक की नीतियों की प्रतिक्रियास्वरूप मअबर (सुदूर दक्षिण) ने विद्रोह कर दिया तथा १३३५ ई. में अहसानशाह के नेतृत्व में स्वाधीन हो गया और अगले दशक में नर्मदा और कृष्णा के बीच का दक्षिणी पठार भी अलाउद्दीन हसन बहमनी (दे.) के नेतृत्व में १३४७ ई. में स्वतंत्र हो गया। उसी समय के आसपास विजयनगर (दे.) में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हुई, जो कृष्णा नदी के दक्षिण में था। १६ वीं शताब्दी के द्वितीय दशक में बहमनी सल्तनत के टुकड़े-टुकड़े हो गये। जब १५२६ ई. में बाबर ने दिल्ली में मुगल साम्राज्य की स्थापना की तब बहमनी सल्तनत पांच मुस्लिम राज्यों-बरार, बीदर, बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा में बँट गयी। विजयनगर का हिन्दू राज्य १५६५ ई. तक कायम रहा, जबकि बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुण्डा तथा बीदर के सुल्तानों ने मिलकर उसपर आक्रमण किया और तालीकोट के युद्ध में पराजित किया। लेकिन मुस्लिम राज्यों की एकता भी कायम न रह सकी। अहमदनगर को, जिसने १५७४ ई. में बरार को जीत लिया था, मुगल सम्राट् अकबर (दे.) को १५९६ ई. में सौंप देना पड़ा। बाद में १६३७ ई. में सम्पूर्ण सल्तनत को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। इसके बाद बीजापुर को भी, जिसने १६१९ ई. में बीदर को जीत लिया था, १६८६ ई. में मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। उसके तीन वर्ष बाद महाराष्ट्र अर्थात् दक्षिण के उत्तरी-पश्चिमी भाग को जहाँ शिवाजी ने स्वराज्य की स्थापना की थी, मुगल सम्राट् औरंगजेब ने अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार सम्पूर्ण दक्षिण पुनः उत्तर का भाग बन गया।
लेकिन इस बार भी यह एकता बहुत दिन तक कायम न रह सकी। महाराष्ट्र ने औरंगजेब की मृत्यु (१८०८ ई.) के पहले ही पुनः स्वाधीनता प्राप्त कर ली। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह (१७०७-१२ ई.) ने महाराष्ट्र की स्वाधीनता को मान्यता भी दे दी। १७२४ ई. में दक्षिण का मुगल सूबेदार चिनक्लिच खाँ (दे.) जो निजामुलमुल्क आसफजाह के नाम से जाना जाता है, स्वाधीन हो गया और उसने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। इस प्रकार १८वीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में ही दक्षिण पुनः उत्तर से अलग हो गया। कुछ समय बाद ही दक्षिण दो भागों में बँट गया। हैदराबाद में निजाम का शासन तथा पूना में मराठों का शासन स्थापित हुआ। इस बीच यूरोपीय व्यापारी भी दक्षिण पहुँच गये और पूर्वी तथा पश्चिमी तटपर यत्र-तत्र बस गये। पुर्तगाली गोवा, दमण और दिव में, अंग्रेज सूरत, बम्बई और मद्रास में और फ्रांसीसी पाण्डेचेरी, माहे तथा कारीकल में जम गये।
इन विदेशी व्यापारियों में भी प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गयी। पहले अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने मिलकर पुर्तगालियों के व्यापार को खत्म किया। बाद में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच द्वन्द्व हुआ। दोनों के बीच यूरोप में लड़ाई शुरू हो जाने के कारण भारत में भी संघर्ष शुरू हो गया। १७४० और १७६३ ई. के बीच दक्षिण की भूमि पर दोनों में लड़ाइयाँ हुईं। दोनों के पास देशी सेनाएँ भी थीं। ये लड़ाइयाँ कर्नाटक-युद्ध (दे.) के नाम से जानी जाती हैं। इन युद्धों का फल यह हुआ कि दक्षिण में फ्रांसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गयी और अंग्रेजों की सत्ता स्थापित हो गयी। इसके अलावा दक्षिण में और भी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। महाराष्ट्र में शिवाजी के पौत्र साहू (१७०७-४८) ने १७२७ ई. में अपनी राजसत्ता पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) को हस्तांतरित कर दी, जिसने महाराष्ट्र पर अपनी मृत्यु (१७४० ई.) पर्यंत शासन किया।
पेशवा ने मराठा संघ की स्थापना की और पहली बार १७३७ ई. में अपनी सेनाएँ उत्तर में भेजीं, जिसका मुख्य उद्देश्य पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू साम्राज्य की स्थापना था। लेकिन १७४० ई. में पेशवा बाजीराव की अचानक मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पहले उसने अपने प्रधान सरदार भोंसले को नागपुर क्षेत्र, गायकवाड़ को बड़ौदा क्षेत्र, होल्कर को इंदौर क्षेत्र तथा शिन्दे को ग्वालियर क्षेत्र का शासन सौंपा था। उसके पुत्र पेशवा बालाजी बाजीराव (१७४०-६१ ई.) (दे.) ने पंजाब में मराठा सेना भेजी, जहाँ अहमदशाह अब्दाली का पुत्र तैमूर शासन कर रहा था। इस प्रकार बालाजी ने अब्दाली से लड़ाई मोल ले ली। फलतः पानीपत की तीसरी लड़ाई (१७६१ ई.) (दे.) में मराठों को करारी हार खानी पड़ी। बालाजी को इससे भारी धक्का लगा और उसका प्राणांत हो गया। मराठा एकता को भी भारी धक्का लगा।
इसी बीच १७६१ ई. में एक मुस्लिम सिपाही हैदर अली ने मैसूर के हिन्दू वाडयार वंश (दे.) के राजा को उखाड़ फेंका। यह हिन्दू राज्य विजयनगर के पतन (१५६५ ई.) के पश्चात् स्थापित हुआ था और इसका विस्तार दक्षिणी प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक था। अब दक्षिण के तीनों राज्यों-हैदराबाद, मैसूर तथा पूना के बीच द्वन्द्व होने लगा। इन्होंने दक्षिण में अंग्रेजों की बढ़ती हुई राजशक्ति की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। ये तीनों राज्य एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्रों और देशविरोधी कार्यों में संलग्न रहे। फल यह हुआ कि दक्षिण के राज्य मिलकर अंग्रेजों को निकाल बाहर करने में विफल रहे। फल यह हुआ कि दक्षिण के राज्य मिलकर अंग्रेजों को निकाल बाहर करने में विफल रहे। दूसरी ओर अग्रेजों ने इन राज्यों की प्रतिद्वन्द्विता का पूरा-पूरा फायदा उठाया। अंग्रेजों ने निजाम को आश्रित संधि (दे.) करने के लिए बाध्य किया और फिर उसकी मदद से १७९९ ई. में श्रीरंगपट्टम् के युद्ध में मैसूर के सुल्तान टीपू को पराजित करके मार डाला। मराठे निष्क्रिय होकर तमाशा देखते रहे। इसके बाद अंग्रेजों ने उसी वर्ष तंजौर और सूरत को अपने अधिकार में कर लिया। अंत में १८०२ ई. में अंग्रेजों ने मराठों को भी पराजित कर उन पर बसईं की संधि (दे.) आरोपित कर दी, जिसके अनुसार पेशवा भी आश्रित संधि करने को बाध्य हो गया।
मराठों ने इस संधि से निकलने का प्रयास किया। फलतः दूसरा मराठा-युद्ध (१८०३-०५ ई.) (दे.) हुआ, जिसमें मराठा संघ के सभी राज्य हार गये और सभी को आश्रित संधि स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार दक्षिण पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। मराठों की बची-खुची शक्ति तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-१९ ई.) (दे.) में समाप्त हो गयी जिसके फलस्वरूप पेशवा बाजीराव द्वितीय को पेंशन देकर उत्तर भारत (बिठूर) भेज दिया गया। होल्कर आदि मराठा सरदारों ने भी अंग्रेज सरकार की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार दक्षिण का पृथक् राजनीतिक अस्तित्व पूर्णतया समाप्त हो गया। इसके बाद वह बराबर राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारत का अभिन्न अंग बना रहा। १९४७ ई. में भारत के स्वतंत्र होने पर दक्षिण के देशी रजवाड़े भी जो अंग्रेजों के अधीन थे, भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गये। उत्तर भारत की भाँति दक्षिणापथ अथवा दक्षिण भी अब भारत का अविभाज्य अंग है।

दक्षिण एजूकेशन सोसाइटी
महाराष्ट्र के न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे की प्रेरणा से १८८४ ई. में स्थापित की गयी। इसका मुख्यालय बम्बई था और इसका उद्देश्य शिक्षा पद्धति में ऐसा सुधार करना था, जिससे तत्कालीन शिक्षा संस्थाओं में प्रशिक्षित युवकों की अपेक्षा कहीं बेहतर युवक देशसेवा के लिए तैयार किये जा सकें। सोसाइटी के सदस्यों के लिए यह आवश्यक था कि वे ७५ रुपया नाममात्र के वेतन पर कम से कम २० वर्ष तक देशसेवा करें। गोपाल कृष्ण गोखले, श्री श्रीनिवास शास्त्री आदि विख्यात समाज-सेवकों ने, जो इसी सोसाइटी की देन थे, बाद में सुप्रसिद्ध फर्गुसन कालेज, पूना तथा वेलिंगडन कालेज, सांगली की स्थापना की।

दत्‍ताजी शिन्‍दे
एक मराठा सेनापति, जो १७५९ ई. में पेशवा बालाजी राव की ओर से पंजाब का शासक था। यह सूबा अहमदशाह अब्दाली (दे.) के पुत्र तैमूर से छीना गया था। जब अहमदशाह अब्दाली ने यह खबर सुनी तो वह आग-बबूला हो गया। उसने वर्ष समाप्त होने के पहले ही एक बड़ी सेना लेकर पंजाब पर आक्रमण कर दिया। दत्ताजी ने अब्दाली का सामना थानेश्वर के युद्ध (दिसम्बर १७५९ ई.) में किया, लेकिन हारकर भाग खड़ा हुआ। दिल्ली के १० मील उत्तर बरारीघाट में फिर दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें दत्ताजी ९ जनवरी १७६० को अब्दाली के हाथों मारा गया।

दनुजमर्दन देव
बंगाल का शासक, जिसके सिक्के बंगाल के सुदूर स्थानों, जैसे पांडुआ (पश्चिमी बंगाल), स्वर्णग्राम (ढाका जिला ?) और चटगाँव में मिले हैं। इन सिक्कों पर बंगाला में संस्कृत लेख और शक संवत् १३३९-१३४० अंकित हैं। ऐसी धारणा है कि दनुजमर्दन देव और राजा गणेश एक ही थे। राजा गणेश पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी में बंगाल का शासन करता था। ('ढाका हिस्ट्री आफ बंगाल', खण्ड दो, पृष्ठ १२०-२२)

दयानंद सरस्वती, स्वामी
(१८२४-८३ ई.) आर्य समाज (१८७५ ई.) के संस्थापक। भारत में अंग्रेजी राज्य, विशेषरूप से अंग्रेजी शिक्षा तथा ईसाई धर्म के प्रसार के साथ पश्चिम के अंधानुकरण की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी, उसका आर्य समाज ने विरोध किया। स्वामीजी संस्कृत के अद्वितीय विद्वान् थे, लेकिन उन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं था। वे वैदिक धर्म, वैदिक शिक्षा तथा वैदिक दर्शन में अत्यधिक विश्वास करते थे और उसी के अनुसार हिन्दू धर्म और समाज को फिर से ढालना चाहते थे। 'वेदों की ओर चलो' उनका नारा था। उन्होंने परवर्ती पौराणिक धर्म की आलोचना की और बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा का खण्डन किया। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिबंधन, बालविवाह और समुद्रयात्रा-निषेध की निंदा की। उन्होंने नारी-शिक्षा तथा विधवा-विवाह को प्रोत्साहित किया। वस्तुतः वे मुस्लिम शासन के अंतर्गत हिन्दू समाज में आ जानेवाली बुराइयों को दूर करना चाहते थे। इसके अलावा वे यह भी कहते थे कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू बनाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने शुद्धि-आंदोलन चलाया, जिसका उद्देश्य भारतीयों की अखण्डता और एकता को बल प्रदान करना था। अतएव इस आंदोलन के राजनीतिक निहितार्थ भी थे। स्वामीजी ने अपने सिद्धांतो के प्रचार के लिए अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें 'सत्यार्थप्रकाश' मुख्य है। वे एक महान् वक्ता थे और सीधे जनता के बीच जाकर उपदेश देते थे। पंजाब और उत्तर प्रदेश में उनके सिद्धान्तों का बहुत प्रचार हुआ। उन्होंने यद्यपि पश्चिमी विज्ञान तथा समाजशास्त्र तथा धर्म के सम्बन्ध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की उपेक्षा की, तथापि उन्होंने अपने असाधारण व्यक्तित्व से हिन्दू समाज को नींव से हिला दिया। उन्होंने हिंदू मस्तिष्क को पश्चिमी शिक्षा और धर्म की चुनौती का सामना करने, प्राच्य सभ्यता को जीवित रखने तथा हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के शुद्ध रूप को प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयास किया।
आर्य समाज के आंदोलन का फल यह हुआ कि हिन्दुओं का धर्म-परिवर्तन रुक गया। जिन हिन्दुओं ने दूसरा मजहब स्वीकार कर लिया था, उनमें से अनेक को फिर हिन्दू बना लिया गया। आर्य समाज ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में बहुत बड़ा योगदान किया एवं यह शिक्षा दी कि जातिभेद और सामाजिक भिन्नता के बावजूद समस्त भारत की जनता एक है। इससे राष्ट्रीयता की भावना को बहुत बल मिला। गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) स्वामीजी के आदर्शों का मूर्तिमान रूप है, जहाँ संस्कृत शिक्षा का माध्यम है। स्वामीजी के अनुयायियों ने बाद में आधुनिक शिक्षा पर भी जोर दिया। इसके लिए उन्होंने उत्तर भारत में सैकड़ो दयानंद ऐंग्लो-वैदिक स्कूल-कालेज खोले, जिनमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ अंग्रेजी की भी शिक्षा दी जाने लगी। १९वीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में स्वामी दयानंद का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है।


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