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Bharatiya Itihas Kosh

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अटाला मसजिद
जौनपुर में शर्की राजवंश के इब्राहीम शाह (१४०२-३८ ई.) ने १४०८ ई. में बनवायी। यह इमारत जौनपुर वास्‍तुकला का उत्तम नमूना है। इसमें मीनारें नहीं हैं जो सामान्य रूप से मसजिदों में होती हैं। (ए. फुहरर-शर्की आर्कीटेक्चर आफ जौनपुर)

अतिशा
प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु और धर्म-प्रचारक। उसका जन्म ९८१ ई. में पूर्वी भारत के एक सम्पन्न जमींदार परिवार में साहोर अथवा जाहोर नामक स्थान पर हुआ जिसे कुछ लोग बंगाल में बताते हैं। उसके पिता का नाम कल्याण श्री और माता का नाम पद्मप्रभा था। माता पिता ने उसका नाम चन्द्रगर्भ रखा था। प्रारम्भिक जीवन में वह साधारण गृहस्थ और तारादेवी का उपासक था। युवा होने के बाद उसने बौद्ध सिद्धान्तों का अध्ययन किया और शीघ्र ही बौद्ध धर्म का प्रचुर ज्ञान अर्जित कर लिया। उड्यन्तपुर-बिहार के आचार्य शीलभद्र ने जहाँ अतिशा अध्ययन कर रहा था, उसे 'दीपंकर श्रीज्ञान' उपाधि से विभूषित किया। बाद में तिब्बती लोगों ने उसे अतिशा नाम से पुकारना शुरू कर दिया। शीघ्र ही लोग उसके असली नाम चन्द्रगर्भ को भूल गये और वह अतिशा दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से अमर हो गया। वह ३१ वर्ष की आयु में भिक्षु हो गया और अगले १२ वर्ष उसने भारत और भारत के बाहर अध्ययन और योगाभ्यास में बिताये। वह पेगू (बरमा) और श्रीलंका गया। विदेशों में अध्ययन करने के बाद जब वह लौटा तो पालवंश के राजा न्यायपाल ने उसे विक्रमशिला बिहार का कुलपति बना दिया। उसकी विद्वत्‍ता और धर्म्मशीलता की ख्याति देश-देशान्तर में फैली और तिब्बत के राजा ने तिब्बत आकर वहाँ फिर से बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए उसे निमंत्रित किया। उस समय अतिशा की अवस्था ६० वर्ष की थी, लेकिन तिब्बत के राजा का अनवरत आग्रह वह अस्वीकार नहीं कर सका। दो तिब्बती भिक्षुओं के साथ अतिशा ने विक्रमशिला से तिब्बत की कठिन यात्रा नेपाल होकर पूरी की। तिब्बत में उसका राजकीय स्वागत किया गया। थालोंग का मठ उसको सौंप दिया गया, जहाँ भारी संख्या में तिब्बती भिक्षु जमा हुए। अतिशा ने १२ वर्ष तक तिब्बत में रहकर धर्म का प्रचार किया। उसने स्वयं तिब्बती भाषा सीखी और तिब्बती और संस्कृत में एक सौ से अधिक ग्रन्थ लिखे। उसकी शिक्षाओं से तिब्बत में बौद्ध धर्म में प्रविष्‍ट अनेक बुराइयाँ दूर हो गयीं। उसके प्रभाव से तिब्बत में अनेक बौद्ध भिक्षु हुए जिन्होंने उसके बाद भी बहुत वर्षों तक धर्म का प्रचार किया। अतिशा ने तिब्बत के अनेक भागों की यात्राएँ कीं और १०५४ ई. में उसने ७३ वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। तिब्बती लोगों ने उसकी समाधि ने-थांग मठ में राजकीय सम्मान के साथ बनायी। तिब्बती लोग अब भी अतिशा का स्मरण बड़े सम्मान के साथ करते हैं और उसकी मूर्ति की पूजा बोधिसत्‍त्‍व की मूर्ति की भांति करते हैं। (एस. सी. दास-इंडियन पंडित्स इन दि लैण्ड आफ स्नो; सुम्पा खान-पाग-सामजोन जेंक पृष्ठ १८५-८७; जी. एम. रोरिक-दि ब्लू एनल्स, पृष्ठ २४०-२६०; निहाररंजन राय-बंगलार इतिहास, पृष्ठ ७१६-७१७)। अदली-शेरशाह का भतीजा, जो शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह के बाद १५५४ ई. में गद्दी पर बैठा। उसने अपना नाम मुहम्मद आदिल शाह रखा। १५५७ ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई के बाद वह पूर्वांचल में चला गया, जहाँ बंगाल के राजा से उसकी लड़ाई हुई जिसमें वह मारा गया।

अदहम खां
बादशाह अकबर की दूधमां माहम अनगा का लड़का था। उसने अकबर को बैरम खां के विरुद्ध करने के षड्यंत्र में भाग लिया और अकबर ने १५६० ई. में बैरम खां को बर्खास्त कर दिया। इसके बाद दो वर्ष तक अकबर पर अदहम खाँ का भारी प्रभाव रहा। अकबर ने मालवा जीतने के लिए जो सेना भेजी, उसका प्रधान सेनापति अदहम खाँ को बनाया। १५६२ ई. में उसने शम्शुद्दीन अतगा खाँ को, जिसे अकबर ने अपना मंत्री बनाया था, महल के अंदर कत्ल कर दिया। इससे बादशाह इतना नाराज हुआ कि उसने उसे किले की दीवाल से नीचे फेंककर मार डालने का हुक्म दिया।

अधिराजेन्द्र
चोलवंश का अन्तिम राजा। वह परांतक (दे.) का वंशधर था। उसने केवल तीन वर्ष (१०७२-७४ई.) तक राज्य किया और उसकी हत्या कर दी गयी। वह शैव धर्मावलम्‍बी था और प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज से इतना द्वेष करता था कि उन्हें उसके राज्यकाल में श्रीरंगम् छोड़कर अन्यत्र चला जाना पड़ा।

अधिसीम कृष्ण
पौराणिक काल में हस्तिनापुर का राजा। इसका उल्लेख वायु और मत्स्यपुराण में आया है। वह कुरुवंशी राजा परीक्षित की चौथी पीढ़ी में था। परीक्षित महाभारत युद्ध के बाद सिंहासन पर बैठा था।

अध्यक्ष
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार विभागों के अधिकारी का पदनाम। जैसे नगराध्यक्ष (नगर-अधिकारी) और बलाध्यक्ष (सेना का अधिकारी)।

अनंगपाल
तोमर राजवंश का एक राजा, जो ११वीं शताब्दी ई. के मध्य हुआ। उसने दिल्ली में उस स्थान पर किला बनवाया जहाँ इस समय कुतुबमीनार है। उसने दिल्ली नगर को राजधानी के रूप में स्थायित्व प्रदान किया।

अनन्तवर्मा चोडगंग
पूर्वी गंग-वंश का प्रमुख राजा, जिसने कलिंगपर ७१ वर्ष (१०७६-११४७ ई.) राज्य किया। एक समय में उसका राज्य उत्तर में गंगा से लेकर दक्षिण में गोदावरी तक फैला हुआ था। उसने पुरी के जगन्नाथ मंदिर और पुरी जिले में कोणार्क के सूर्य-मंदिर का निर्माण कराया। वह हिन्दू धर्म और संस्कृत तथा तेलुगु साहित्य का महान् संरक्षण था।

अनन्द विक्रम संवत्
भारत में प्रचलित अनेक संवतों में से एक। इसका प्रयोग पृथ्वीराज रासो के कवि चंदबरदाई ने, जो मुसलमानों के आक्रमण (११९२ ई.) के समय दिल्ली नरेश पृथ्वीराजका राजकवि था, किया है। अनन्द का अर्थ है नौ (नौ नन्दों) रहित १०० में से ९ घटाने पर ९१ बचते हैं। अर्थात् ईसवी पूर्व ५८-५७ में आरम्भ होनेवाले सानन्द विक्रम संवत् के ९० या ९१ वर्ष बाद। अतएव अनन्द विक्रम संवत् का आरम्भ ईसवी सन् ३३ मानना चाहिए। (ज. रा. १९०६, पृ. ५००)

अनवरुद्दीन (१७४३-४९ ई.)
आरम्भ में निजामुल्मुल्क आसफजाह का कर्मचारी। निजाम ने प्रसन्न होकर उसको १७४३ ई. में कर्नाटक का नवाब नियुक्त कर दिया। उसकी राजधानी अर्काट थी। निजाम ने पहले नवाब दोस्त अली के लड़कों और रिश्तेदारों को नवाब नहीं बनाया। उस समय कर्नाटक में अशांति फैली हुई थी। मराठे लगातार हमले कर रहे थे और पुराने नवाब मरहम दोस्त अली के रिश्तेदार नये नवाब के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे। उस समय अशांति और बढ़ी जब आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध (१७४०-४८ ई.) शुरू हो गया और कर्नाटक के क्षेत्र में पांडिचेरी और मद्रास में स्थित फ्रांसीसी और अंग्रेज व्यापारी भी आपस में लड़ने लगे।
अनवरुद्दीन कर्नाटक के नवाब के रूप में फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों का संरक्षक था, इसलिए आशा की जाती थी कि वह अपने राज्य में उन दोनों को लड़ने से रोकेगा। अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों संकटकाल में उसको अपना संरक्षक स्वीकार कर लेते थे। इस तरह युद्ध के आरम्भ में जब अधिक नौसैनिक शक्ति के बल पर अंग्रेजों ने फ्रांसीसी जहाजों को लूटना शुरू किया तो पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने नवाब से फ्रांसीसी जहाजों की रक्षा करने की प्रार्थना की। लेकिन नवाब के पास जहाज नहीं थे, इसलिए अंग्रेजों ने उसके विरोध की धृष्टतापूर्वक उपेक्षा कर दी और अपनी लड़ाई जारी रखी। लेकिन जब १७४६ ई. में फ्रांसीसियों ने मद्रास पर घेरा डाला तो अंग्रेजों ने भी जो अबतक नवाब के अधिकार की उपेक्षा कर रहे थे, नवाब अनवरुद्दीन से सुरक्षा की प्रार्थना की। अनवरुद्दीन ने संरक्षक की हैसियत से डूप्ले से मद्रास का घेरा उठा लेने और शान्ति कायम रखने के लिए कहा, लेकिन फ्रांसीसियों ने उसकी एक न सुनी। चूंकि अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की लड़ाई यहाँ जमीन पर चल रही थी और अनवरुद्दीन के पास बड़ी फौज थी, इसीलिए उसने फ्रांसीसियों द्वारा डाले गये मद्रास के घेरे को तोड़ने के लिए अपनी सेना भेजी। लेकिन नवाब की सेना के पहुँचने के पहले ही फ्रांसीसियों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया। नवाब की सेना ने फ्रांसीसियों को मद्रास में घेर लिया। इस पर छोटी-सी फ्रांसीसी सेना ने, जो मद्रास के किले में सुरक्षित थी, टिड्डी दल जैसी नवाब की बड़ी सेना पर छापा मारा और उसे बिखरा दिया। नवाब की सेना पीछे हटकर सेंट टाम नामक स्थान पर चली आयी, जहाँ एक छोटी-सी फ्रांसीसी कुमुक ने, जो मद्रास में घिरी फ्रांसीसी सेना की सहायता के लिए जा रही थी, उसे पुनः हरा दिया। इन पराजयों के परिणामस्वरूप नवाब अनवरुद्दीन की हालत अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच चलनेवाले युद्ध के दौरान असहाय दर्शक की बनी रही। इन पराजयों का दूरगामी परिणाम भी निकला। डूप्ले को यह विश्वास हो गया कि छोटी-सी सुशिक्षित फ्रांसीसी सेना अपने से बहुत बड़ी भारतीय सेना को आसानी से पराजित कर सकती है। डूप्ले ने निश्चय कर लिया कि उसकी श्रेष्ठ सैनिक-शक्ति भारत के देशी राजाओं के आंतरिक मामलों में निर्भय होकर हस्तक्षेप कर सकती है। इसलिए जब अंग्रेजों और फ्रांसीसियों का युद्ध समाप्त हो गया तो डूप्ले ने कर्नाटक के पुराने नवाब के दामाद चन्दा साहब से गुप्त सन्धि कर ली जिसमें उसको कर्नाटक का नवाब बनवाने का वादा किया गया था। इस सन्धि के आधार पर चन्दा साहब और फ्रांसीसी सेनाओं ने अनवरुद्दीन को बेलोर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित आम्बूर की लड़ाई में अगस्त १७४९ ई. में पराजित कर दिया और वह मारा गया।


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