१६२३ ई. में डच लोगों ने किया। जब डचों ने देखा कि अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी संस्था बनती जा रही है तो उन्होंने अम्बोयना में अंग्रेजों की छोटी-सी बस्ती पर अचानक हमला बोल दिया और वहाँ के सभी अंग्रेज प्रवासियों को भयंकर यातनाएँ देकर मार डाला। इस कत्लेआम के बाद अंग्रेज जावा तथा मसाले वाले द्वीपों में जाने से डरने लगे और उन्होंने अपना ध्यान भारत में ही अपने पैर जमाने की ओर केन्द्रित किया, जहाँ से उन्होंने डच लोगों को उखाड़ फेंका।
अयूब खां
अफगानिस्तान के अमीर शेर अली (दे.) का पुत्र। दूसरे आंग्ल-अफगान युद्ध के दौरान अयूब खाँ ने जुलाई १८८० ई. में भाई बंद की लड़ाई में एक बड़ी अंग्रेजी सेना को हरा दिया। लेकिन बाद में कन्दहार के निकट उसे लार्ड राबर्टस ने पराजित कर दिया। उसने कुछ समय के लिए कन्दहार पर फिर कब्जा कर लिया। लेकिन अन्त में नये अमीर अब्दुर्रहमान ने उसे हरा दिया और कन्दहार तथा अफगानिस्तान के बाहर खदेड़ दिया।
अयूब खां
पाकिस्तानी सेना में एक जनरल, जिसने अक्तूबर १९१८ ई. में पाकिस्तान सरकार का तख्ता पलट कर स्वयं सत्ता हथिया ली और वहाँ फौजी तानाशाही की स्थापना कर दी। जून 1962 में उसने पाकिस्तान में नया संविधान लागू किया और जनवरी 1965 ई. में वह पांच वर्ष की अवधि के लिए पाकिस्तान का दुबारा राष्ट्रपति चुना गया। उसी वर्ष उसने भारत से युद्ध छेड़ दिया जो संयुक्त राष्ट्र संघ के युद्ध विराम प्रस्ताव के आधार पर रुका और ताशकंद में दोनों देशों में सन्धि हुई। मार्च १९७० ई. में पाकिस्तान में उसके स्थान पर जनरल मोहम्मद यहिया खाँ सत्तासीन हो गया।
अयोध्या
भारत की एक प्राचीन नगरी, जो सरयू नदी के किनारे, आधुनिक नगर फैजाबाद के निकट स्थित है। अयोध्या कोसल (अवध) राज्य की राजधानी थी। रामायण के अनुसार वह श्रीरामचन्द्र के पिता राजा दशरथ की राजधानी थी। वह देश की सात पवित्र नगरियों में एक मानी जाती है। ऐतिहासिक युग में गुप्त सम्राटों की वह सम्भवतः दूसरी राजधानी सम्राट् समुद्रगुप्त के समय से पुरुगुप्त के समय तक (३३०-४७२ ई.) थी।
अरव
इस्लाम का उदय होने के बाद संगठित और शक्तिशाली हो गये। वे लोग दूर-दूर तक समुद्र यात्राएँ और व्यापार करते थे। पश्चिमी भारत के समृद्ध बन्दरगाहों तथा पश्चिमोत्तर सीमावर्ती क्षेत्र की ओर उनकी आरम्भ से निगाह थी। सबसे पहले ६३७ ई. में अरबों ने बम्बई के निकट थाना पर हमला किया, जिसको विफल कर दिया गया। लेकिन उसके बाद भड़ौंच, सिन्ध में देबल की खाड़ी और कलात पर उनके हमले हुए। सातवीं शताब्दी के अन्त में अरबों ने बलूचिस्तान के मकरान क्षेत्र को जीत लिया जिससे सिन्ध को जीतने के लिए रास्ता साफ हो गया। सिन्ध के समुद्र तट पर कुछ समुद्री लुटेरों ने अरब सौदागरों के जहाज लूट लिये। लुटेरों ने सिन्ध के देबल में शरण ली। पीड़ित अरब सौदागरों ने अरब सूबेदार अल-हज्जाम से इसकी शिकायत की, जिसने सिन्ध पर कई बार हमले किये। उस समय सिन्ध में राजा दाहिर (दे.) का राज्य था। प्रारम्भ में कुछ हमलों को विफल कर दिया गया, लेकिन ७११ ई. में अल-हज्जाज के दामाद मुहम्मद इब्न-कासिम के नेतृत्व में हमला हुआ। मुहम्मद-इब्न कासिम ने ७१२ ई. में राओर के युद्ध में राजा दाहिर को पराजित किया, जिसमें वह मारा गया। उसकी राजधानी आलोर पर अरबों का कब्जा हो गया। इसके बाद अरबों ने मुल्तान जीत लिया और सिन्ध में अरब राज्य स्थापित हो गया। अरबों ने भारत में अपने राज्य का प्रसार करने के लिए बहुत कोशिशें कीं। उन्होंने कच्छ, सौराष्ट्र अथवा काठियावाड़ और पश्चिमी गुजरात पर हमले किये। लेकिन उनका प्रसार सिन्ध के आगे नहीं हो सका। दक्षिण में चालुक्यों और पूर्व में प्रतिहारों और उत्तर में कर्कोटक राजाओं ने उनके बढ़ाव को रोका। इस प्रकार भारत में अरब राज्य सिन्ध तक ही सीमित रहा जिसे शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने ११७५ ई. में सिन्ध पर कब्जा करके खत्म कर दिया और सिन्ध दिल्ली की सल्तनत के अधीन हो गया। सिन्ध में अरबों की विजय को 'निष्फल विजय' की संज्ञा दी जाती है क्योंकि उसके बाद भारत पर इन लोगों की सत्ता स्थापित नहीं हुई।
अरविन्द घोष (१८७२-१९५०)
एक महान् देशभक्त और आन्तिकारी जो बादमें उच्च ज्ञानी या योगी हो गये। उनकी शिक्षा इंग्लैंड में हुई। वे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठे लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने से आई. सी. एस. न हो सके। बाद में वे बड़ौदा कालेज के उपप्रधानाचार्य नियुक्त हुए। शीघ्र ही उन्होंने भारतीय राजनीति में रुचि लेना प्रारंभ कर दिया और 'इन्द्रप्रकाश' पत्रिका में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए। ७ अगस्त १८९३ ई. को प्रकाशित उनके प्रथम लेख से प्रकट होता है कि वे राजनीति के प्रति भारतीयों के रुख में आमूल परिवर्तन के एक्षपाती थे। इन लेखों में उन्होंने प्रतिपादित किया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपनी नरम नीतियों के कारण देश को उपयुक्त नेतृत्व प्रदान करने में असफल रही है। उन्होंने जोर दिया कि राष्ट्र में देशभक्ति और बलिदान की उत्कट भावना भरकर कांग्रेस को वास्तविक जनवादी संस्था बनाने की आवश्यकता है। उनके विचारों को पंजाब के लाला लाजपतराय तथा महराष्ट्र के लोकमान्य तिलक ने बहुत पसंद किया। फलतः कांग्रेस के अंदर एक गरम दल बन गया जो अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सशस्त्र मार्ग ग्रहण करने को बुरा नहीं मानता था। १९०२ ई. में अरविन्द ने बड़ौदा से अपना एक आदमी बंगाल में गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनाने के उद्देश्य से भेजा। इसके बाद वे स्वयं बंगाल चले आये और नेशनल कालेज के प्रिंसिपल बनकर 'वंदेमातरम्' तथा 'कर्मयोगी' के माध्यम से अपने विचारों का प्रचार करने लगे। इन पत्रों का संपादन वे स्वयं बड़ी योग्यता के साथ करते थे। इस प्रचार का फल यह हुआ कि बंगाल में अनेक आतंकवादी घटनाएँ घटीं और अलीपुर बम-कांड में तो स्वयं अरविन्द पर अनेक बंगालियों के साथ मुकदमा चला। एक लम्बे मुकदमे के बाद श्री अरविन्द बरी हो गये, लेकिन ब्रिटिश सरकार उन्हें भारत में ब्रिटिश शासन का परम विरोधी मानकर पुनः नजरबंद कर देने का विचार कर रही थी। इस बीच श्री अरविन्द के विचारों में बहुत परिवर्तन हो गया था। उन्होंने सक्रिय राजनीति को त्याग देने का निश्चय किया और १९०९ ई. में पांडिचेरी चले गये जो फ्रांस के अधिकार में था। वहाँ उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की जिसका उद्देश्य लोगों को उच्च आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता था। उन्होंने अपने विचार अपनी 'डिवाइन लाइफ' नामक पुस्तक में व्यक्त किये हैं। उनका देहान्त १९५० ई. में हुआ। उन्हें देशभक्ति का कवि, राष्ट्रवाद का देवदूत तथा मानवता का प्रेमी कहा गया है। श्रद्धा से लोग उन्हें 'श्री अरविन्द' कहते हैं। (पुराणी लिखित 'लाइफ आफ श्री अरविन्द')
अराकान
की पट्टी बंगाल की खाड़ी के पूर्वी तट पर स्थित है। यहाँ १७८४ ई. तक एक स्वतंत्र राज्य रहा जिसे वर्मी लोगों ने जीत लिया। वर्मा की सीमा के विस्तार से भारत की ब्रिटिश सरकार ने बंगाल के लिए खतरा महसूस किया। प्रथम वर्मा युद्ध (१८२४-२६) का एक कारण यह भी था। युद्ध के बाद अराकान का क्षेत्र यन्दबू (दे. ) की सन्धि के अनुसार भारत की अंग्रेजी सरकार को मिल गया।
अराविंदु (कर्णाट) राजवंश
की स्थापना विजय नगर (दे.) के विनाश के बाद तिरुमल ने की। वह रामे राजा का भाई था जिसके नेतृत्व में तालीकोट के युद्ध (१५६५ ई.) में विजय नगर की सेना पराजित हुई थी और विजय नगर नष्ट कर दिया गया था। तिरुमल ने अपनी राजधानी पेनुकोंडा में स्थापित की और एक सीमा तक पुराने विजयनगर के हिन्दू राज्य का दबदबा फिर से स्थापित कर दिया। उसके द्वारा स्थापित राजवंश ने १६८४ ई. तक दक्षिण में राज्य किया। इस वंश के अनेक राजा हुए जिनमें वेंकट द्वितीय उल्लेखनीय था। वह अपनी राजधानी चन्द्रगिरि ले गया और उसने तेलुगु कवियों और वैष्णव आचार्यों को संरक्षण प्रदान किया। बाद में वेंकट नाम का एक अन्य राजा हुआ, उसने १६३९-४० ई. में मद्रास का क्षेत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी के मिस्टर डे को दे दिया। इस भूमिदान की पुष्टि राजा रंग तृतीय ने की जो अराविंदु राजवंश का एक प्रकार से अन्तिम राजा था।
अर्काट
कर्नाटक का एक नगर, जिसे कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (दे. ) (१७४३-४९ ई.) ने अपनी राजधानी बनाया। दूसरे कर्नाटक युद्ध ((१७५२-५४ ई.) में इस नगर का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहाँ एक मज़बूत किला था जो आम्बूर की १७४९ ई. की लड़ाई में अनवरुद्दीन की हार और मौत के बाद चन्दा साहब के नियंत्रण में चला गया। चन्दा साहब ने फ्रांसीसियों की मदद से त्रिचिनापल्ली का घेरा डाला, जहाँ अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मदअली ने शरण ली थी। त्रिचिनापल्ली को राहत देने के लिए राबर्ट क्लाइव ने दो सौ अंग्रेज और तीन सौ देशी सिपाहियों की मदद से अर्काट पर अचानक कब्जा कर लिया। इसके बाद चन्दा साहब ने बहुत बड़ी सेना के साथ अर्काट का घेरा डाला और क्लाइव की सेना ५६ दिन (२३ सितम्बर से १४ नवम्बर तक) किले में घिरी रही। अन्त में क्लाइव ने चन्दा साहब की सेना का घेरा तोड़कर उसे पीछे ढकेल दिया। अर्काट के घेरे को तोड़ने में सफल होने के बाद राबर्ट क्लाइव की प्रतिष्ठा एक अच्छे सेनापति के रूप में हो गयी और कर्नाटक अंग्रेजों के कब्जे में आ गया।
अर्जुन
सिखों के पांचवें गुरु (१५७८१-१६०६ )। वे चौथे गुरु रामदास के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। उन्होंने 'आदि ग्रंथ' का संकलन किया जिसमें पहले के चार गुरुओं और बहुत से हिन्दू और मुसलमान सन्तों की वाणियों का संग्रह है। उन्होंने सिखों को एक प्रकार का आध्यात्मिक-कर अर्थात् धार्मिक-कर देने का आदेश दिया जिससे सिख गुरुओं के धर्मकोष की स्थापना हुई। अर्जुन देव ने शाहजादा खुसरो पर दया करके उसकी सहायता की, जिसने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। इसके कारण जहाँगीर ने उन्हें राजद्रोह के अपराध में मौत की सजा दी।