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Bharatiya Itihas Kosh

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अवन्ती
प्राचीन भारत का महत्त्वपूर्ण राज्य। उसकी राजधानी उज्जयिनी आधुनिक मालवा में थी। उसकी गणना १६ राज्यों (षोड्स जनपदों ) में की जाती थी। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों के अनुसार ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के उदय से कुछ पहले भारत १६ जनपदों में विभाजित था। इनमें अवन्ती भी था। बाद में अवन्ती ने पड़ोस के छोटे राज्यों को आत्मसात् कर लिया और उसकी गणना भारत के चार बड़े राज्यों में की जाने लगी। तीन अन्य वत्स (इलाहाबाद क्षेत्र), कोशल (अवध) और मगध (दक्षिणी बिहार) के राज्य थे। अवन्ती का राजा प्रद्योत मगध के बिंबसार और अजातशत्रु का समसामयिक था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में अवन्ती को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया।

अवन्ति वर्मा
कन्नौज के मौखरि वंश का राजा, जो स्थानेश्वर के पुष्यभूति वंश के राजा प्रभाकरवर्धन का समसामयिक था। उसके पुत्र गृहवर्मा ने प्रभाकरवर्द्धन की पुत्री राज्यश्री से विवाह किया था।

अवन्ती वर्मा (कश्मीरका)
ने ८५५ ई. में कश्मीर में उत्पल राजवंश की स्थापना की और कर्कोटक राजवंश को उखाड़ फेंका। उसके आदेश से कश्मीर में सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण किया गया, जिससे उसे बहुत कीर्ति मिली।

अवतार
सर्वशक्तिमान् परमात्मा के पृथ्वी पर जीवधारी बनकर आने पर उन्हें 'अवतार' कहा जाता है। सनातनी हिन्दुओं का विश्वास है कि जब धर्म क्षीण हो जाता है और अधर्म बढ़ता है तो सर्वशक्तिमान् परमात्मा पृथ्वी पर जीवधारी के रूप में प्रकट होकर धर्म की रक्षा करता है और अधर्म का नाश कर धर्म की पुनर्स्‍थापना करता है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा के इन जीवधारी रूपों को सनातनी हिन्दू 'अवतार' मानते हैं। इनके अनुसार अबतक ऐसे नौ अवतार हो चुके हैं और दसवाँ कल्कि-अवतार होना बाकी है। पिछले नौ अवतारों में मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीरामचन्द्र, बलराम और बुद्ध हैं। (भागवत-४, ७-८)

अविता बिले, जनरल
नेपोलियन की सेना का एक अफसर, जो अपना भाग्य आजमाने के लिए भारत आया। उसे पंजाब के राजा रणजीत सिंह ने सिख सेना को यूरोपीय ढंग से संगठित करने के लिए नौकर रख लिया।

अव्यवस्थित प्रान्त
अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत उन प्रान्तों को कहा जाता था, जिनमें मई १७९३ ई. में जारी लार्ड कार्नवालिस का विधि-विधान व्यवह्रत नहीं होता था। ऐसे प्रान्त दिल्ली, असम, अराकान और तेनासेरीम, सागर और नर्मदा क्षेत्र, तथा पंजाब थे, जो क्रमशः १८०३ ई., १८२४ ई., १८१८ ई. और १८१९ ई. में हस्तगत किये गये थे। इन प्रान्तों का मुख्य अधिकारी चीफ़ कमिश्नर कहलाता था और जिलों के अधिकारी डिप्टी कमिश्नर। इन प्रांतों में सैनिक पदाधिकारी भी नागरिक सेवाओं हेतु नियुक्त किये जा सकते थे।

अशोक
(लगभग २७३-२३२ ई. पू. ) मौर्य राजवंश का तीसरा सम्राट्, जिसकी स्थापना उसके पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य (लगभग ३२२-२९८ ई. पू.) ने की थी। चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उसका पिता बिन्दुसार (लगभग २९८-२७३ ई. पू.) गद्दी पर बैठा था। सिंहली इतिहास में सुरक्षित जनश्रुतियों के अनुसार अशोक अपने पिता बिन्दुसार के अनेक पुत्रों में से एक था और जिस समय बिन्दुसार की मृत्यु हुई उस समय अशोक मालवा में उज्जैन में राजप्रतिनिधि था। राजपद के उत्तराधिकार के लिए भयंकर भ्रातृयुद्ध हुआ जिसमें उसके ९९ भाई मारे गये और अशोक गद्दी पर बैठा। अशोक के शिलालेखों में इस भ्रातृयुद्ध का कोई संकेत नहीं मिलता है। इसके विपरीत शिलालेख सं. ५ से प्रकट होता है कि अशोक अपने भाई बहिनों के परिवारों का शुभचिंतक था। इसलिए गद्दी पर बैठने के पहले अशोक द्वारा भ्रातृयुद्ध में भाग लेने की बात को कुछ इतिहासकार सच नहीं मानते हैं। गद्दी पर बैठने के चार वर्ष बाद तक उसका राज्याभिषेक अवश्य नहीं हुआ। इसे इस बात का प्रमाण माना जाता है कि उसको राजा बनाने के प्रश्न पर कुछ विरोध हुआ।
अशोक सीरिया के राजा एण्टियोकस द्वितीय (२६१ - २४६ ई. पू. ) और कुछ अन्य यवन (यूनानी) राजाओं का समसामयिक था जिनका उल्लेख शिलालेख सं. 8 में है। इससे विदित होता है कि अशोक ने ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राज्य किया, किंतु उसके राज्याभिषेक की सही तारीख का पता नहीं चलता है। उसने ४० वर्ष राज्य किया। इसलिए राज्याभिषेक के समय वह युवक ही रहा होगा।
अशोक का पूरा नाम अशोकवर्द्धन था। उसके लेखों में उसे सदैव 'देवानामपिय' (देवताओं का प्रिय ) और 'पियदर्शिन्' (प्रियदर्शी) सम्बोधित किया गया है। केवल यास्की के लघु शिलालेख में उसको 'देवानाम्-पिय अशोक' लिखा गया है।
अशोक के राज्यकाल के प्रारम्भिक १२ वर्षों का कोई सुनिश्चित विवरण उपलब्ध नहीं है। इस काल में अपने पूर्ववर्ती राजाओं की भांति वह भी समाज (मेलों), मृगया (शिकार), मांस भोजन और आनन्द यात्राओं में प्रवृत्त रहता था। किन्तु उसके राज्यकाल के १३वें वर्ष में उसके जीवन में आमूल परिवर्तन हो गया। इस वर्ष राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद, उसने बंगाल की खाड़ी के तटवर्ती राज्य कलिंग पर आक्रमण किया। कलिंग राज्य उस समय महानदी और गोदावरी के बीच के क्षेत्र में विस्तृत था। इस युद्ध के कारण का पता नहीं चलता है, लेकिन उसने कलिंग को विजय करके उसे अपने राज्य में मिला लिया। इस युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ। एक लाख व्यक्ति मारे गये और डेढ़ लाख बन्दी बना लिये गये तथा कई लाख व्यक्ति युद्ध के बाद आनेवाली अकाल, महामारी आदि विभीषिकाओं से नष्ट हो गये। अशोक को लाखों मनुष्यों के इस विनाश और उत्पीड़न से बहुत पश्चात्ताप हुआ और वह युद्ध से घृणा करने लगा। इसके बाद ही अशोक अपने शिलालेखों के अनुसार 'धम्म' (धर्म) में प्रवृत्त हुआ। यहाँ धम्म का आशय बौद्ध धर्म लिया जाता है और वह शीघ्र ही बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। बौद्ध मतावलम्बी होने के बाद अशोक का व्यक्तित्व एकदम बदल गया। आठवें शिलालेख में, जो सम्भवतः कलिंग-विजय के चार वर्ष बाद तैयार किया गया था, अशोक ने घोषणा की "कलिंग देश में जितने आदमी मारे गये, मरे या कैद हुए उसके सौवें या हजारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओं के प्रिय को बड़े दुःख का, कारण होगा।" उसने यह भी घोषणा की कि "(आप) विश्वास रखें कि जहाँतक क्षमा का व्यवहार हो सकता है, वहाँतक राजा हमलोगों के साथ क्षमा का बर्ताव करेगा।" उसने आगे युद्ध न करने का निश्चय किया और बाद के ३१ वर्ष के अपने शासन-काल में उसने मृत्युपर्यंत फिर कोई लड़ाई नहीं ठानी। उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी परामर्श दिया कि वे शस्त्रों द्वारा विजय प्राप्त करने का मार्ग छोड़ दे और धर्म द्वारा विजय को वास्तविक विजय समझें। अशोक ने अब समाजों और मृगया में भाग लेना और मांसाहार करना छोड़ दिया। इसके बदले में उसने धर्मयात्राएँ आरम्भ कर दीं। उसने अपने शासन के १४वें वर्ष में बोधगया और २४वें वर्ष में बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं में वह साधारण लोगों से मिलता था और उन्हें धर्म का उपदेश देता था। धम्मविजय के लिए उसने अपने शासन काल के १६वें वर्ष से ३२वें वर्ष तक शिला और स्तम्भ-लेख अंकित कराये। उसने जनता में धर्म के प्रचार के लिए अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे केवल प्रशासन का कामकाज न देखें वरन् धर्म का भी प्रचार करें। उसने अपने शासन के १७वें वर्ष में 'धम्म महामात्र' नामक अधिकारियों को धर्म के प्रचार के लिए नियुक्त किया, जिनका मुख्य कार्य सारे राज्य में धर्म की वृद्धि करना था। उसने अपने सभी अधिकारियों को बताया कि उसकी प्रजा उसकी सन्तान के समान (सर्वे मुनिषा प्रजा मम ) है, अतः उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा कि राज परिवार के सदस्यों के साथ किया जाता है। उसने अपने अधकारियों को निष्पक्ष रूप से करुणा-मिश्रित न्याय करने का आदेश दिया। उसने अपनी प्रजा को विचारों और व्यवहार में एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता प्रदर्शित करने की सलाह दी। उसने ऐसी गोष्ठियों को प्रोत्साहन दिया जिसमें सभी धर्मों की अच्छाइयों पर विचार किया जाय ताकि लोगों का दृष्टिकोण उदार बने। उसने न केवल अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न भागों में धर्म प्रचारक भेजे, वरन् विदेशों और दक्षिण भारत के सीमावर्ती राज्यों में भी धर्म-प्रचारक भेजे। उसके धर्मप्रचारक सीरिया, मिस्र, साइरिनि, मैसीडोनिया और एपीरस के यवन राज्यों तथा लंका और संभवतः बर्मा में भी गये। उसके धर्म-प्रचारक एशिया, अफ्रीका और यूरोप तीनों महादेशों में गये। अशोक ने बौद्ध धर्म का चारों दिशाओं में प्रचार किया जिससे उसने एक विश्वधर्म का रूप ले लिया। उसने मनुष्यों और पशुओं-सभी के कल्याण के लिए राजमार्गों के किनारे पेड़ लगवाये, कुएं खुदवाये। उसने मनुष्य और पशुओं की चिकित्सा के लिए औषधालय केवल अपने राज्य में ही नहीं वरन् पड़ोसी यवन राज्यों में भी खुलवाये। उसने उन राज्यों में औषधियाँ और ओषधि-वनस्पतियों के पौधे भी लगवाये। अशोक ने जाति, भाषा अथवा धर्म का भेदभाव किये बिना सभी मनुष्यों के कल्याण के लिए कार्य किया। अशोक ने मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए जितना कार्य किया उसके आधार पर उसने इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है और वह मैसीडोनिया के सिकंदर, रोम के जूलियस सीज़र और फ्रांस के नेपोलियन की तुलना में महान् कहलाने का कहीं अधिक अधिकारी है।
अशोक का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में पेन्नार नदी तक फैला था। उसके शिलालेख उसके विशाल साम्राज्य के सभी भागों में मिले हैं। अफगानिस्तान के कंधार और जलालाबाद, मैसूर में मास्की, काठियावाड़ में गिरनार और उड़ीसा के तोसली नामक स्थानों में उसके शिलालेख मिले हैं। ये शिलालेख सामान्य नागरिकों के उदबोधन के उदेश्य से उत्कीर्ण कराये गये थे, अतः उनको उन्हीं लिपियों में लिखवाया गया जो जनता में प्रचलित थीं। इसलिए कंधार और जलालाबाद के शिला लेखों में यूनानी और अरमहक लिपियों का, पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त के शाहबाजादी और मानसेरा में खरोष्ठी लिपि का और भारत के शेष भाग के शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया। इनकी भाषा अर्ध-मागधी थी जो पाली से बहुत मिलती-जुलती है और जिसे भारतीय लोग शायद आसानी से पढ़ और समझ लेते थे।
अशोक के लेख शिलाओं, प्रस्तर-स्तम्भों और गुफाओं में पाये जाते हैं। उसके लेखों को तीन श्रणियों में बाँटा जा सकता है--शिलालेख, स्तम्भलेख और गुफालेख। शिलालेखों और स्तम्भलेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। १४ शिलालेख सिलसिलेवार हैं जिनको चतुर्दश शिलालेख कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाज गढ़ी, मानसेरा, कालसी, गिरनार, सोपारा, धौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असम्बद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं, शायद इसीलिए उन्हें लघु शिलालेख कहा जाता है। इस प्रकार के लघु शिलालेख रूपनाथ, सासाराम, बैराट, मास्की, सिद्धपुर, जतिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं। दूसरी श्रेणी के लघु शिलालेख वैराट (जिसे भाब्रू भी कहते हैं), येरागुडी और कोपबाल में मिले हैं। दो अन्य लघु शिलालेख अभी हाल में अफगानिस्तान में--एक जलालाबाद में और दूसरा कंधार के निकट मिले हैं। इनके अलावा सात लेख स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं जिसके कारण वे स्तम्भलेख के नामसे प्रसिद्ध हैं। ये स्तम्भलेख दिल्ली, इलाहाबाद, लौरिया-अरराज, लौरिया नन्दनगढ़ और रामपुरवा में मिले हैं। कुछ स्तम्भों पर केवल एक-एक लेख है, अतः उन्हें सात स्तम्भलेखों के क्रम से अलग रखा गया है और वे लघुस्तम्भ लेख कहे जाते हैं। इस प्रकार के लघु स्तम्भलेख सारनाथ, साँची, रुम्मिनदेह और निग्लीव में मिले हैं। अन्तिम तीन लेख बराबर पहाड़ियों की गुफाओं में मिले हैं और उनको गुफालेख के नाम से पुकारा जाता है।
कहा जाता है कि अशोक ने एक हजार स्तूपों का निर्माण कराया था जिनमें से भिलसा के एक स्तूप को छोड़कर शेष सभी नष्ट हो गये। उसका राजप्रासाद, जिसे फाहियेन (दे.) ने चौथी शताब्दी में देखा था, सातवीं शताब्दी में ह्यु एन-त्सांग की यात्रा के समय तक नष्ट हो गया था। अशोक का राजप्रासाद इतना भव्य था कि उसे देखकर यह समझा था कि उसको अशोक के लिए देवों ने तैयार किया होगा। उसके कुछ प्रस्तर-स्तम्भों पर इतनी सुंदर पालिश है कि शताब्दियों बीत जाने पर भी खराब नहीं हुई है और ललित-कला और स्थापत्य-कला के पारखी उनकी बड़ी प्रशंसा करते हैं। दूर-दूर तक फैले हुए ये प्रस्तर-स्तम्भ एक ही चट्टान से काटकर बनाये गये थे और भारतीय शिल्प के अनुपम उदाहरण हैं। "उनको देखने से मालूम होता है कि उस समय पत्थर पर पालिश करने की कला अत्यन्त उन्नत थी और आधुनिक युग में यह कला विलुप्त हो गयी है।" बड़ी चट्टानों को काटने और उन्हें उनकी खदानों से सैकड़ों मील दूर ले जाने और कभी कभी तो पहाड़ी चोटियों तक पहुँचाने की इंजीनियरिंग की कला ने भी उस युग में बहुत उन्नति कर ली थी। प्रत्येक प्रस्तर-स्तम्भ के शीर्षभाग पर एक अथवा अनेक पशुओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। इन मूर्तियों के आसन को उलटे हुए कमल की आकृति प्रदान की गयी है। कला पारखियों ने इन प्रस्तर-स्तम्भों, विशेष रूप से सारनाथ स्तम्भ के कलात्मक शीर्षभाग की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और सर जान मार्शल के अनुसार "प्राचीन काल में इसके जोड़ की कोई कलाकृति अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।"
अशोक के पारिवारिक जीवन के बारे में हमें बहुत कम जानकारी है। बाद के साहित्य में सुरक्षित जनश्रुतियों के अनुसार उसकी कई रानियाँ थीं। उसके शिलालेखों में केवल दो रानियों का उल्लेख मिलता है जिनमें से दूसरी रानी का नाम कारुवाकी अथवा चारुवाकी था जो तीवर की माता थी। इसी प्रकार अशोक के पुत्रों के सम्बन्ध में हमें बहुत कम जानकारी मिलती है। तीवर उसका एक पुत्र था, लेकिन और दूसरे कान और कितने पुत्र थे, यह सब अज्ञात है। सिंहली इतिहास-ग्रंथों के अनुसार महेन्द्र, जिसने श्रीलंका में बुद्धधर्म का प्रचार किया अशोक का पुत्र था जिसे उसने धर्मप्रचार के लिए वहाँ भेजा था। यदि ऐसा था तो महेन्द्र की बहिन और सहायिका संघमित्रा अशोक की पुत्री थी, लेकिन शिलालेखों में इसका कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। साहित्यिक अनुश्रुतियों में अशोक के दो पुत्रों का नाम मिलता है, वे कुणाल और जालौक थे। लेकिन अशोक के उत्तराधिकारी के रूप में उसका कोई लड़का सिंहासन पर नहीं बैठा। उसका राज्य उसके दो पौत्रों दशरथ और सम्प्रति को मिला जिन्होंने उसे आपस में बाँट लिया।
इस बात का भी विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अन्त कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान तक्षशिला में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार अशोक का अन्तिम कार्य भिक्षुसंघ में फूट डालने की निन्दा करना था। सम्भवतः यह घटना बौद्धों की तीसरी संगीति के बाद की है। सिंहली इतिहास-ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में पाटलीपुत्र में हुई थी।
कलिंग-विजय के बाद अशोक व्यक्तिगत रूप से बौद्ध मतावलम्बी हो गया था। यह बात इससे सिद्ध होती है कि उसने अपने को यास्की के लघु शिलालेख संख्या १ में बौद्ध-शाक्य बतलाया है और भाब्रू के शिलालेख में भी तीन रत्नों (बुद्ध, धर्म और संघ) में अपनी आस्था व्यक्त की है। सारनाथ के शिलालेख से स्पष्ट है कि उसने केवल बौद्ध तीर्थस्थलों की यात्राएँ कीं और बौद्ध भिक्षु संघ की एकता बनाये रखने का प्रयत्न किया। इससे भी यही प्रकट होता है कि वह बौद्ध मतावलम्बी था।
लेकिन उसके किसी भी शिलालेख में बौद्धधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों-चार आर्य सत्य, अष्टांगिक-मार्ग तथा निर्वाण का उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत उसके शिलालेखों में बौद्धधर्म की शिक्षाओं के विरुद्ध लिखा है कि धर्म के मंगलाचार से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इन बातों से कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अशोक ने जिस 'धम्म' का उपदेश दिया, वह बौद्धधर्म नहीं, विश्वधर्म था। यह निष्कर्ष सही नहीं मालूम होता है। अशोक के शिलालेखों में 'धम्म' शब्द का प्रयोग उसी धर्म के लिए किया गया है जिसे वह व्यक्तिगत रूप से मानता था और जिसका उसने अपनी प्रजा में प्रचार किया। इसलिए यदि वह व्यक्तिगत रूप से बौद्ध मतावलम्बी था तो उसके द्वारा प्रचारित धर्म भी बौद्धधर्म था। उसके शिलालेखों में बार-बार यही दोहराया गया है कि पशुओं पर दया करनी चाहिये, माता-पिता और गुरुजन की आज्ञा माननी चाहिये, सच बोलना चाहिये तथा सभी के साथ नम्रता का व्यवहार करना चाहिये। ये शिक्षाएँ निस्संदेह सभी धर्मों में पायी जाती हैं, लेकिन किसी भी धर्म में उनपर इतना जोर नहीं दिया गया जितना बौद्धधर्म में। बौद्धधर्म की पुस्तकों में निर्देश है कि बौद्ध मतावलम्बी गृहस्थों को इनका पालन करना चाहिये। अशोक ने अपने शिलालेखों में जिस धर्म का प्रचार किया वह साधारण गृहस्थों के लिए था अतः उसे बौद्धधर्म मानना ही सही है। (हलजव, सी. आई. आई. १, भंडारकर-अशोक, मुखर्जी-अशोक, स्मिथ, ही. एच. आई. वेल्स-हिस्ट्री आफ दि वर्ल्ड, भट्टाचार्य-सेलेक्ट अशोकन एपीग्राफ्स)।

अशोक का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में पेन्नार नदी तक फैला था। उसके शिलालेख उसके विशाल साम्राज्य के सभी भागों में मिले हैं। अफगानिस्तान के कंधार और जलालाबाद, मैसूर में मास्की, काठियावाड़ में गिरनार और उड़ीसा के तोसली नामक स्थानों में उसके शिलालेख मिले हैं। ये शिलालेख सामान्य नागरिकों के उदबोधन के उदेश्य से उत्कीर्ण कराये गये थे, अतः उनको उन्हीं लिपियों में लिखवाया गया जो जनता में प्रचलित थीं। इसलिए कंधार और जलालाबाद के शिला लेखों में यूनानी और अरमहक लिपियों का, पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त के शाहबाजादी और मानसेरा में खरोष्ठी लिपि का और भारत के शेष भाग के शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया। इनकी भाषा अर्ध-मागधी थी जो पाली से बहुत मिलती-जुलती है और जिसे भारतीय लोग शायद आसानी से पढ़ और समझ लेते थे।

अशोक के लेख शिलाओं, प्रस्तर-स्तम्भों और गुफाओं में पाये जाते हैं। उसके लेखों को तीन श्रणियों में बाँटा जा सकता है--शिलालेख, स्तम्भलेख और गुफालेख। शिलालेखों और स्तम्भलेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। १४ शिलालेख सिलसिलेवार हैं जिनको चतुर्दश शिलालेख कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाज गढ़ी, मानसेरा, कालसी, गिरनार, सोपारा, धौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असम्बद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं, शायद इसीलिए उन्हें लघु शिलालेख कहा जाता है। इस प्रकार के लघु शिलालेख रूपनाथ, सासाराम, बैराट, मास्की, सिद्धपुर, जतिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं। दूसरी श्रेणी के लघु शिलालेख वैराट (जिसे भाब्रू भी कहते हैं), येरागुडी और कोपबाल में मिले हैं। दो अन्य लघु शिलालेख अभी हाल में अफगानिस्तान में--एक जलालाबाद में और दूसरा कंधार के निकट मिले हैं। इनके अलावा सात लेख स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं जिसके कारण वे स्तम्भलेख के नामसे प्रसिद्ध हैं। ये स्तम्भलेख दिल्ली, इलाहाबाद, लौरिया-अरराज, लौरिया नन्दनगढ़ और रामपुरवा में मिले हैं। कुछ स्तम्भों पर केवल एक-एक लेख है, अतः उन्हें सात स्तम्भलेखों के क्रम से अलग रखा गया है और वे लघुस्तम्भ लेख कहे जाते हैं। इस प्रकार के लघु स्तम्भलेख सारनाथ, साँची, रुम्मिनदेह और निग्लीव में मिले हैं। अन्तिम तीन लेख बराबर पहाड़ियों की गुफाओं में मिले हैं और उनको गुफालेख के नाम से पुकारा जाता है।

कहा जाता है कि अशोक ने एक हजार स्तूपों का निर्माण कराया था जिनमें से भिलसा के एक स्तूप को छोड़कर शेष सभी नष्ट हो गये। उसका राजप्रासाद, जिसे फाहियेन (दे.) ने चौथी शताब्दी में देखा था, सातवीं शताब्दी में ह्यु एन-त्सांग की यात्रा के समय तक नष्ट हो गया था। अशोक का राजप्रासाद इतना भव्य था कि उसे देखकर यह समझा था कि उसको अशोक के लिए देवों ने तैयार किया होगा। उसके कुछ प्रस्तर-स्तम्भों पर इतनी सुंदर पालिश है कि शताब्दियों बीत जाने पर भी खराब नहीं हुई है और ललित-कला और स्थापत्य-कला के पारखी उनकी बड़ी प्रशंसा करते हैं। दूर-दूर तक फैले हुए ये प्रस्तर-स्तम्भ एक ही चट्टान से काटकर बनाये गये थे और भारतीय शिल्प के अनुपम उदाहरण हैं। "उनको देखने से मालूम होता है कि उस समय पत्थर पर पालिश करने की कला अत्यन्त उन्नत थी और आधुनिक युग में यह कला विलुप्त हो गयी है।" बड़ी चट्टानों को काटने और उन्हें उनकी खदानों से सैकड़ों मील दूर ले जाने और कभी कभी तो पहाड़ी चोटियों तक पहुँचाने की इंजीनियरिंग की कला ने भी उस युग में बहुत उन्नति कर ली थी। प्रत्येक प्रस्तर-स्तम्भ के शीर्षभाग पर एक अथवा अनेक पशुओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। इन मूर्तियों के आसन को उलटे हुए कमल की आकृति प्रदान की गयी है। कला पारखियों ने इन प्रस्तर-स्तम्भों, विशेष रूप से सारनाथ स्तम्भ के कलात्मक शीर्षभाग की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और सर जान मार्शल के अनुसार "प्राचीन काल में इसके जोड़ की कोई कलाकृति अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।"

अशोक के पारिवारिक जीवन के बारे में हमें बहुत कम जानकारी है। बाद के साहित्य में सुरक्षित जनश्रुतियों के अनुसार उसकी कई रानियाँ थीं। उसके शिलालेखों में केवल दो रानियों का उल्लेख मिलता है जिनमें से दूसरी रानी का नाम कारुवाकी अथवा चारुवाकी था जो तीवर की माता थी। इसी प्रकार अशोक के पुत्रों के सम्बन्ध में हमें बहुत कम जानकारी मिलती है। तीवर उसका एक पुत्र था, लेकिन और दूसरे कान और कितने पुत्र थे, यह सब अज्ञात है। सिंहली इतिहास-ग्रंथों के अनुसार महेन्द्र, जिसने श्रीलंका में बुद्धधर्म का प्रचार किया अशोक का पुत्र था जिसे उसने धर्मप्रचार के लिए वहाँ भेजा था। यदि ऐसा था तो महेन्द्र की बहिन और सहायिका संघमित्रा अशोक की पुत्री थी, लेकिन शिलालेखों में इसका कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। साहित्यिक अनुश्रुतियों में अशोक के दो पुत्रों का नाम मिलता है, वे कुणाल और जालौक थे। लेकिन अशोक के उत्तराधिकारी के रूप में उसका कोई लड़का सिंहासन पर नहीं बैठा। उसका राज्य उसके दो पौत्रों दशरथ और सम्प्रति को मिला जिन्होंने उसे आपस में बाँट लिया।

इस बात का भी विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अन्त कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान तक्षशिला में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार अशोक का अन्तिम कार्य भिक्षुसंघ में फूट डालने की निन्दा करना था। सम्भवतः यह घटना बौद्धों की तीसरी संगीति के बाद की है। सिंहली इतिहास-ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में पाटलीपुत्र में हुई थी।

कलिंग-विजय के बाद अशोक व्यक्तिगत रूप से बौद्ध मतावलम्बी हो गया था। यह बात इससे सिद्ध होती है कि उसने अपने को यास्की के लघु शिलालेख संख्या १ में बौद्ध-शाक्य बतलाया है और भाब्रू के शिलालेख में भी तीन रत्नों (बुद्ध, धर्म और संघ) में अपनी आस्था व्यक्त की है। सारनाथ के शिलालेख से स्पष्ट है कि उसने केवल बौद्ध तीर्थस्थलों की यात्राएँ कीं और बौद्ध भिक्षु संघ की एकता बनाये रखने का प्रयत्न किया। इससे भी यही प्रकट होता है कि वह बौद्ध मतावलम्बी था।

लेकिन उसके किसी भी शिलालेख में बौद्धधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों-चार आर्य सत्य, अष्टांगिक-मार्ग तथा निर्वाण का उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत उसके शिलालेखों में बौद्धधर्म की शिक्षाओं के विरुद्ध लिखा है कि धर्म के मंगलाचार से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इन बातों से कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अशोक ने जिस 'धम्म' का उपदेश दिया, वह बौद्धधर्म नहीं, विश्वधर्म था। यह निष्कर्ष सही नहीं मालूम होता है। अशोक के शिलालेखों में 'धम्म' शब्द का प्रयोग उसी धर्म के लिए किया गया है जिसे वह व्यक्तिगत रूप से मानता था और जिसका उसने अपनी प्रजा में प्रचार किया। इसलिए यदि वह व्यक्तिगत रूप से बौद्ध मतावलम्बी था तो उसके द्वारा प्रचारित धर्म भी बौद्धधर्म था। उसके शिलालेखों में बार-बार यही दोहराया गया है कि पशुओं पर दया करनी चाहिये, माता-पिता और गुरुजन की आज्ञा माननी चाहिये, सच बोलना चाहिये तथा सभी के साथ नम्रता का व्यवहार करना चाहिये। ये शिक्षाएँ निस्संदेह सभी धर्मों में पायी जाती हैं, लेकिन किसी भी धर्म में उनपर इतना जोर नहीं दिया गया जितना बौद्धधर्म में। बौद्धधर्म की पुस्तकों में निर्देश है कि बौद्ध मतावलम्बी गृहस्थों को इनका पालन करना चाहिये। अशोक ने अपने शिलालेखों में जिस धर्म का प्रचार किया वह साधारण गृहस्थों के लिए था अतः उसे बौद्धधर्म मानना ही सही है। (हलजव, सी. आई. आई. १, भंडारकर-अशोक, मुखर्जी-अशोक, स्मिथ, ही. एच. आई. वेल्स-हिस्ट्री आफ दि वर्ल्ड, भट्टाचार्य-सेलेक्ट अशोकन एपीग्राफ्स)।

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अश्वघोष
बौद्धभिक्षु और आचार्य जो ईसा की दूसरी शताब्दी में हुआ। उसका जन्म मगध में हुआ था, लेकिन बाद में वह उत्तरी भारत के महान कुषाण राजा कनिष्क का सभापंडित हो गया और पेशावर में रहने लगा। वह कवि, संगीतज्ञ, विद्वान्, दार्शनिक, नाट्यकार एवं धार्मिक शास्त्रार्थ में कुशल बौद्धाचार्य था। धर्म एवं आचारनिष्ठ बौद्धभिक्षुओं में उसका बड़ा आदर था। उसके नाटकों में 'राष्ट्रपाल' और 'सारिपुत्र प्रकरण' विख्यात हैं। उसने 'सूत्र-अलंकार' नामक काव्य भी लिखा था। उसका 'बुद्ध चरित' रामायण की भांति एक धार्मिक महाकाव्य है जिसमें गौतमबुद्ध के जीवन और शिक्षाओं का वर्णन है। उसने कनिष्क द्वारा पेशावर में आयोजित चौथी 'बौद्ध संगीति' में प्रमुख भाग लिया। उसने अपने 'महायान श्रद्धोत्पाद संग्रह' नामक ग्रंथ में शून्यवाद का प्रतिपादन किया है और त्रिकायवाद (धर्मकाय, संभोगकाय, निर्माणकाय) के सिद्धांत का विकास किया है। उसके मतानुसार बुद्धत्व की प्राप्ति के हेतु एक बौद्ध के लिए बुद्ध के इस त्रिविध रूप में से 'किसी एक रूप में भक्ति रखना आवश्यक है। महायानी सम्प्रदाय के विकास में उसके विचारों का काफी योगदान है। (इन.)

अश्वमेध
का विधान ऋग्वेद में मिलता है। जब कोई विजयी राजा अपने को सार्वभौम राजा घोषित करना चाहता था तो वह अश्वमेध करता था। इस यज्ञ में एक घोड़ा छोड़ा जाता था जो सालभर इच्छानुसार विचरण करता था। उस घोड़े के पीछे-पीछे सेना चलती थी जिसका नायकत्व अश्वमेध करनेवाला राजा अथवा उसकी ओर से नियुक्त कोई राजकुमार करता था। जब अश्वमेध का घोड़ा किसी दूसरे राजा के राज्य में प्रवेश करता था तो वह या तो युद्ध करता था या बिना लड़े अधीनता स्वीकार कर लेता था। यदि अश्वमेध करनेवाला राजा उन सभी राजाओं को, जिनके राज्य से होकर घोड़ा गुजरता था, परास्त करने अथवा अपने अधीन बनाने में सफल हो जाता था तो वह सवविजयी बनकर अधीनस्थ राजाओं के साथ अपनी राजधानी लौटकर एक महोत्सव करता था, जिसमें उस घोड़े की बलि दी जाती थी। इस यज्ञ में ऋत्विक (यज्ञ करानेवाला पुरोहित) पारिप्लव नामक आख्यान तथा प्राचीन राजाओं के आख्यानों को सुनाता था और एक वीणावादक क्षत्रिय वीणापर यज्ञकर्ता राजा की विजययात्राओं पर स्वरचित प्रशस्तिका गायन करता था। बुद्ध ने युद्धकथा, भयकथा आदि निरर्थक कथाएँ कहने की प्रथा के साथ-साथ अश्वमेध की भी तीव्र भर्त्सना की और कुछ समय तक इसकी परिपाटी बंद रही। परंतु पुष्यमित्र शुंग (लगभग १८५ ई. पू.-१५० ई. पू. ) ने यह परिपाटी फिर से चला दी। कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक के अनुसार उसने यवनों पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में, जो सिंधु नदी के तटतक आ गये थे, अश्वमेध किया। चौथी शताब्दी ईसवी में द्वितीय गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त (दे.) ने भी अपनी विजययात्राओं के उपलक्ष्य में अश्वमेध किया। पाँचवीं शताब्दी में कामरूप के पुष्यवर्मा वंश के छठे राजा महेन्द्रवर्मा ने भी अश्वमेध किया। सातवीं शताब्दी में बाद के गुप्त राजा आदित्यसेन ने भी अश्वमेध का अनुष्ठान किया। दक्षिण भारत में कई चालुक्य राजाओं ने भी इस यज्ञ का अनुष्ठान किया।

अष्टप्रधान
मराठा राज्य के संस्थापक शिवाजी के आठ मंत्रियों की परिषद थी जो प्रशासन को चलाने में उनकी सहायता करती थी। परिषद का कार्य केवल सलाह देना था और उसे उत्तरदायी मंत्रिपरिषद नहीं कहा जा सकता। अष्टप्रधान में निम्नलिखित की गणना की जाती थी : (१) पेशवा अथवा प्रधानमंत्री, जो सामान्य रीति से राज्य के हितों पर दृष्टि रखता था; (२) अमात्य, वित्त-विभाग का प्रधान होता था; (३) मंत्री, राजा के सैनिक कार्यों और दरबार की कार्रवाइयों का लेखा रखता था; (४) सचिव, राजकीय पत्र-व्यवहार का अधीक्षक था; (५) सामन्त, वैदेशिक मामलों की देखरेख करता था; (६) सेनापति ; (७) पंडितराव और दानाध्यक्ष राजा का पुरोहित होता था जो दान की व्यवस्था करता था ; (८) न्यायाधीश अथवा शास्त्री जो हिन्दू न्याय की व्याख्या करता था। पंडितराव और शास्त्री को छोड़कर अष्टप्रधान में शामिल सभी मंत्री भी होते थे और उनके विभागों से सम्बन्धित मुल्की प्रशासन का कार्य राजधानी में रहनेवाले उनके सहायक करते थे।


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