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Bharatiya Itihas Kosh

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आदित्यवंश
कम्बुज (कम्बोडिया) की जनश्रुतियों के अनुसार इन्द्रप्रस्थ का एक राजा था जिसके पुत्र कौण्डिन्य ने कम्बुज के राजवंश की स्थापना की। इस सम्बन्ध में भारत में कोई ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती है।

आदित्यसेन
माधवगुप्त का पुत्र था और ६७२ ई. में मध्यदेश में राज्य करता था। उसने अश्वमेध यज्ञ किया और अपनी पुत्री का विवाह मौखरि भोगवर्द्धन से किया। उसकी दौहित्री का विवाह नेपाल-नरेश शिवदेव से हुआ था और उनके पुत्र जयदेव का विवाह कामरूपनरेश हर्षदेव की पुत्री राज्यमती से हुआ था।

आदिलशाही राजवंश
की स्थापना बीजापुर में १४८९ ई. में यूसुफ आदिल खाँ ने की थी। वह जार्जिया-निवासी गुलाम था जो अपनी योग्यता के कारण बहमनी सुल्तान महमूद ९१४८२-१५१८ ई.) के यहाँ ऊँचे पद पर पहुँचा था और उसको बीजापुर का सूबेदार बनाया गया था। बाद में उसने बीजापुर को राजधानी बनाकर स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। उसके राजवंश ने बीजापुर में १४८९ से १६८५ ई. तक राज्य किया। अन्तिम आदिलशाही सुल्तान सिकंदर को औरंगजेब ने पराजित करके गिरफ्तार कर लिया। इस राजवंश में-यूसुफ, इस्माइल, मल्लू, इब्राहीम प्रथम, अली इब्राहीम द्वितीय, मुहम्मद अली द्वितीय और सिकंदर नामक सुल्तान हुए। इस वंश के सुल्तानों ने दक्षिण में अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं। १५८५ ई. में जब मुसलमानों ने संयुक्त रूप से विजयनगर पर हमला किया और तालीकोट का युद्ध जीत कर विजयनगर राज्य को नष्ट कर दिया तो उसमें आदिलशाही सुल्तना भी शामिल थे। आदिलशाही सुल्तानों को इमारतें बनवाने का शौक था। बीजापुर शाहर के चारों और शहरपनाह, बीजापुर की खास मस्जिद, गगन महल, इब्राहीम द्वितीय (१५८०-१६२६ ई.) का मकबरा और उसके उत्तराधिकारी मुहम्मद (१६२६-५६ ई.) का मकबरा भव्य इमारतें हैं जिन्हें कुशल कारीगरों से बनवाया गया था। कुछ सुल्तान, खासतौर से छठा सुल्तान इब्राहीम द्वितीय योग्य और उदार शासक था। वह साहित्यप्रेमी था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुहम्मद कासिम उर्फ फरिश्ता ने आदिलशाही संरक्षण में रहकर अपना प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ 'तारीख-ए-फरिश्ता' लिखा था।

आदिवराह
कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार राजा मिहिर भोज (८४०-९० ई.) की उपाधि थी। उसके चाँदी के सिक्कों में यह नाम अंकित मिलता है जो उत्तरी भारत में बहुतायत से मिले हैं।

आदिसूर
बंगाल की साहित्यिक अनुश्रुतियों के अनुसार गौड़ अथवा लक्षणावती का राजा था। उसने बंगाल में ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया, जहाँपर बौद्ध धर्म छाया हुआ था। उसने कान्यकुब्ज से पाँच श्रेष्ठ ब्राह्मणों को अपने राज्य में बुलाकर बसाया जिन्होंने सनातन हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा की। ये ब्राह्मण ही बंगाल के राढ़ी और वारेन्द्र ब्राह्मणों के पूर्वज थे। आदिसूर का समय 700 ईसवी के बाद का माना जाता है। लेकिन समकालीन प्रमाणों के अभाव में आदिसूर की ऐतिहासिकता में संदेह किया जाता है।

आनन्द अथवा अन्त देवी
कुमारगुप्त प्रथम (दे.) (४१५-५५ ई.) की रानी थी और पुरुगुप्त (दे.) की माता थी।

आनन्दपाल
सिन्धु नदी के तट पर स्थित उद्भांडपुर अथवा ओहिन्द के हिन्दूशाही राजवंश के राजा जयपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी था। वह १००२ ई. के करीब गद्दी पर बैठा। सुल्तान महमूद गजनवी ने उसके पिता जयपाल को १००१ ई. में परास्त किया था। इसलिए गद्दी पर बैठने के बाद आनन्दपाल का पहला कर्तव्य यही था कि वह सुल्तान महमूद से इस हार का बदला लेता। सुल्तान महमूद ने १००६ ई. में आनन्दपाल के राज्य पर फिर से हमला किया। आनन्द पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के हिन्दू राजाओं का संघ बनाकर सुल्तान की सेना का पेशावर के मैदान में सामना किया। दोनों ओर की सेनाएँ ४० दिन तक एक दूसरे के सामने डटी रहीं। अंत में भारतीय सेना ने सुल्तान की सेना पर हमला बोल दिया और जिस समय हिन्दुओं की विजय निकट मालूम होती थी उसी समय एक दुर्घटना घट गयी। जिस हाथी पर आनन्दपाल अथवा उसका पुत्र ब्राह्मणपाल बैठा था वह पीछे मुड़कर भागने लगा। यह देखते ही भारतीय सेना छिन्न-भिन्न होकर भागने लगी। इस युद्ध में युवराज ब्राह्मणपाल मारा गया। सुल्तान की विजयी सेना आनन्दपाल के राज्य में घुस गयी और कांगड़ा और भीमनगर के किलों और मंदिरों पर हमला करके उन्हें लूटा। आनन्दपाल ने इस पर भी पराजय स्वीकार नहीं की और नमक की पहाड़ियों से मुसलमानों का लगातार प्रतिरोध करता रहा। कुछ वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गयी।

आनन्द रंग पिल्लई
डूप्ले का दुभाषिया था। उसने पांडेचेरी की घटनाओं का विवरण लिखा है और साथ ही उन घटनाओं का भी उल्लेख किया है जिनकी प्रतिक्रिया फ्रांसीसी राजधानी में हुई। उसकी तमिलभाषा में लिखी दैनिन्दिनी के बारह खंडों का अनुवाद अंग्रेजी में हुआ है। उसने कभी-कभी तो बाजारू अफवाहों और मामूली घटनाओं को भी बहुत बढ़ा चढ़ा कर लिखा है।

आन्ध्र
भारत के पूर्वी समुद्रतट पर गोदावरी के मुहाने से लेकर कृष्णा के मुहाने तक विस्तृत प्रदेशको कहते हैं। यहाँ के निवासी ज्यादातर तेलुगुभाषी हैं और इस क्षेत्र में प्राचीनकाल से बसे हुए हैं। ब्रिटिश शासनकाल में इस क्षेत्र को तमिलभाषी क्षेत्र से मिलाकर मद्रास प्रेसीडेन्सी बना दिया गया था। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद यहाँ के निवासियों ने भाषायी आधार पर उनका क्षेत्र मद्रास से अलग करके पृथक् राज्य बनाने की माँग की। हिंसा और उपद्रव की अनेक घटनाएँ घटने के बाद यह माँग स्वीकार कर ली गयी और हैदराबाद को राजधानी बनाकर पृथक् आन्ध्र राज्य की स्थापना कर दी गयी। आन्ध्र राज्य भारत में भाषायी राज्य की स्थापना का पहला उदाहरण है और उसके बाद अन्य राज्यों को भी भाषायी आधार पर तोड़ने के आन्दोलन चल पड़े।

आन्ध्र राजवंश
देखो सातवाहन राजवंश।


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