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Bharatiya Itihas Kosh

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हैलीफैक्स, लार्ड
देखिये- लार्ड इरविन'।

हैलीबरी कालेज
इंग्लैण्ड में १८०५ में स्थापित। इसमें इंडियन सिविल सर्विस में भर्ती किये गये छात्र शिक्षा पाते थे। इसमें विधि शात्र, अर्थशास्त्र, प्रशासन तथा एक भारतीय भाषा सीखना अनिवार्य होता था। आरम्भ में ईस्ट इंडिया कम्पनी के डाइरेक्टरों द्वारा मनोनीत अभ्यर्थी ही भर्ती किये जाते थे, अतएव इसमें प्रतिभाशाली लोगों का अभाव था। १८५४ ई. में यह कालेज बंद कर दिया गया। उसी समय से आई. सी. एस. के लिए प्रतियोगिता परीक्षा होने लगी। हैलीबरी कालेज के शिक्षितों में जान लारेंस जान कालविन, जेम्स टाम्सन और रिचर्ड सेम्पिल आदि के नाम प्रमुख हैं। (एन. सी. राय लिखित 'सिविल सर्विस इन इंडिया')।

हैवलक, जनरल सर हेनरी (१७९५-१८५७ ई.)
१८१६ ई. में सेना में भर्ती हुआ और १८२३ ई. में कलकत्ता आया। उसने १८२४ ई. में बर्मा-युद्ध में भाग लिया और १८२८ ई. में आवा की लड़ाइयों पर अपनी पुस्तक प्रकाशित की। १८३८ से १८४२ ई. तक वह अफगानिस्तान में रहा और सर हग गफ़ के नेतृत्त्व में प्रथम सिक्ख-युद्ध (१८४५-४६ ई.) में भाग लिया। १८५६-५७ ई. में वह फारस में युद्ध कर रहा था। जून १८५७ ई. में उसे वहीं से इलाहाबाद में विप्लवी सैनिकों का मुकाबला करने के लिए भेज दिया गया। उसने कई लड़ाइयों का नायकत्व किया, नाना साहब को पराजित करके जुलाई १८५७ ई. में कानपुर ले लिया। इसके बाद वह लखनऊ में घिरी हुई ब्रिटिश फौजों की सहायता के लिए रवाना हुआ। तीन विफल प्रयत्नों के बाद सितम्बर १८५७ ई. में वह घेरा तोड़ने में सफल हुआ। दो महीने बाद बीमारी के कारण युद्ध-भूमि में ही उसकी मृत्यु हो गयी। ब्रिटिश सरकार ने उसे मरणोपरांत बैरन की पदवी प्रदान की और उसकी पेंशन बाँध दी।

होम रूल लीग
इसकी स्थापना बाल गंगाधर तिलक (दे.) ने अप्रैल १९१६ ई. में पूना में की। अगले सितम्बर में इसी नाम से एक दूसरी संस्था एनी बेसेंट (दे.) ने कलकत्ता में स्थापित की। भारतीयों को लीग-कांग्रेस योजना (दे.) के आधार पर, जो १९१६ ई. में लखनऊ में तैयार की गयी थी, होमरूल (स्वराज्य) दिलाने के लिए दोनों लीगों ने संयुक्त रीति से आंदोलन किया। होमरूल लीग बहुत थोड़े दिन चली, क्योंकि उसके नेतागण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे और कांग्रेस ने जब तत्काल स्वराज्य की स्थापना को अपना ध्येय बना लिया, दोनों लीगों का कांग्रेस में विलयन हो गया।

होयसल वंश
११११ ई. के आसपास मैसूर के प्रदेश में विट्टिग अथवा विट्टिदेव से इसका प्रारम्भ हुआ। उसने अपना नाम विष्णुवर्धन (दे.) रख लिया और ११४१ ई. तक राज्य किया। उसने द्वारसमुद्र (आधुनिक हलेविड) को अपनी राजधानी बनाया। वह पहले जैन धर्मानुयायी था, बाद में वैष्णव मतावलम्बी हो गया। उसने बहुत से राजाओं को जीता और हलेविड में सुन्दर विशाल मन्दिरों का निर्माण कराया। उसके पौत्र वीर बल्लाल (११७३-१२२० ई.)- ने देवगिरि के यादवों को परास्त किया और होयसलों को दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली राजा बना दिया, जो १३१० ई. तक शक्तिशाली बने रहे। १३१० ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के सेनापति मलिक काफूर के नेतृत्व में मुसलमानों ने उनके राज्य पर हमला किया, राजधानी पर कब्जा कर लिया और राजा को बंदी बना लिया। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अंत में १३२६ ई. में इस वंश का अंत कर दिया।

होल्कर वंश तथा राज्य
इसकी स्थापना मल्हार राव ने की, जिसने दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) के सेनापति की हैसियत से अनेक लड़ाइयाँ जीतीं। मालवा का दक्षिण-पश्चिमी भाग उसके कब्जे में आ गया और उसने इन्दौर को अपनी राजधानी बनाया। उसकी मृत्यु १७६४ ई. में हुई। उसका एकमात्र पुत्र खाँडेराव दस साल पहले मर चुका था, इसलिए उसका पौत्र मल्लेराव (१७६४-६६ ई.) उत्तराधिकारी हुआ। परन्तु वह बहुत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ और प्रशासन का भार खाँडे राव की विधवा महारानी अहिल्याबाई (दे.) ने सँभाल लिया।
अहिल्याबाई ने १७६४ से १७९४ ई. तक राज्य का शासन बड़ी सफलता के साथ चलाया। १७९५ ई. में उसकी मृत्यु होने पर, एक दूर के सम्बन्धी तुकोजी होल्कर को, जिसे अहिल्याबाई ने १७६७ ई. में सेनापति नियुक्त किया था, राज्य प्राप्त हुआ। तुकोजी ने केवल दो साल राज्य किया और उसकी मृत्यु के बाद उसका तीसरा लड़का जसवन्तराव प्रथम गद्दी पर बैठा, जिसने १७९८ से १८११ ई. तक राज्य किया। दौलत राव शिन्दे से प्रतिद्वन्विता के कारण, जसवंतराव होल्कर पहले तो दूसरे मराठा-युद्ध से अलग रहा, फिर अप्रैल १८०४ ई. में, जब पेशवा और शिन्दे हार चुके थे, उसने अबुद्धिमत्तापूर्वक अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। शुरू में उसने कर्नल मौन्सन के नेतृत्ववाली अंग्रेजी सेना पर विजय पायी, परन्तु वह दिल्ली पर कब्जा करने में विफल रहा। उसकी सेना दीग की लड़ाई में हार गयी और चार दिन बाद वह भी परास्त हुआ। परन्तु अंग्रेज सेना भरतपुर का किला सर न कर सकी। उधर लार्ड वेलेजली को भारत से वापस बुला लिया गया। इससे जसवंतराव अंग्रेजों के साथ अत्यंत अनुकूल शर्तों पर संधि कर लेने में सफल हो गया। उसे अपने राज्य का कोई हिसा गँवाना नहीं पड़ा और उसकी स्वतंत्रता बनी रही। परंतु, इसके बाद ही जसवंतराव पागल हो गया और १८११ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी मल्हारराव होल्कर द्वितीय (१८११-३३ ई.) तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-ई.) में सम्मिलित हुआ और दिसम्बर १८१७- ई.) में सम्मिलित हुआ और दिसम्बर १८१७ ई. में महीदपुर की लड़ाई में अग्रेजों से हार गया। उसे विवश होकर मंदसोर की संधि (जनवरी १८१८ ई.) करनी पड़ी, जिसके द्वारा उसने अपने राज्य में आश्रित सेना तथा राजधानी इंदौर में स्थायी रूप से ब्रिटिश रेजीडेंट रखना मंजूर कर लिया, राजपूताने के राज्य पर अपना सारा आधिपत्य छोड़ दिया तथा नर्मदा के दक्षिण का सारा प्रदेश अंग्रेजों को सौंप दिया। इस प्रकार होल्कर सारी स्वतन्त्रता खोकर एक रक्षित राजा बन गया। बाद में इंदौर की गद्दी पर जो होल्कर वंशज जा बैठे, वे सिर्फ अपने राग-रंग में डूबे रहते थे और उन्हें अपनी प्रजा की भलाई की कोई चिन्ता नहीं थी। उनमें से एक राजा कुख्यात हत्याकांड-सम्बन्धित हो गया और उसे अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। होल्कर वंश के राजा लोग १९४८ ई. तक शासन अथवा कुशासन करते रहे, जब उनके राज्य का भारतीय गणराज्य में विलयन हो गया।

ह्युएनत्सांग अथवा युवानच्वाङ (६००-६४ ई.)
एक चीनी बौद्ध भिक्षु और विद्वान्, बौद्ध धर्म के ग्रंथों की खोज में ६३० ई. में भारत आया। वह चीन से गोबी रेगिस्तान के उत्तर से होकर आनेवाले ३००० मील लम्बे अत्यन्त दुर्गम मार्ग को पार कर काबुल पहुँचा जो भारत का प्रवेशद्वार है। उसने अपनी वापस की यात्रा दक्षिणी मार्ग से की, जो पामीर को पार करके काशगर, यारकंद, खोतान तथा लोप-नोर जाता है। उसने यात्रा में जिस प्रकार के खतरे उठाये, उनसे उसके साहस, धैर्य और दृढ़-संकल्प का परिचय मिलता है।

ह्युएनत्सांग अथवा युवानच्वाङ (६००-६४ ई.)
वह भारत में ६३० से ६४३ ई. तक रहा। उसने सारे भारत का भ्रमण किया और यहाँ के लगभग सभी राज्यों को देखा। वह हर्षवर्धन (दे.) के राज्य में आठ साल (६३५-४३ ई.) रहा। हर्षवर्धन का साम्राज्य उस समय सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। हर्ष ने उसका खुले हृदय से स्वागत किया और उसके प्रति अत्यधिक आदर भाव प्रकट किया। वह हर्ष से राजमहल के निकट मिला और उसके साथ कन्नौज और फिर प्रयाग गया। दोनों स्थानों पर उसने विराट धार्मिक महोत्सवों में भाग लिया। प्रयाग में महाराजाधिराज हर्षवर्धन हर पाँचवें वर्ष एक महोत्सव करता था। युवानच्वाङ ने प्रयाग के जिस महोत्सव में भाग लिया, वह इस प्रकार का छठा महोत्सव था।
ह्यएनत्सांग बौद्धधर्म के महायान सम्प्रदाय का अनुयायीं था। उसका बौद्धधर्मका ज्ञान अत्यंत विशद था। उसने अपनी यात्रा का वृत्तांत लिखा है जो बारह खंडों में है। भारत की लम्बी यात्रा के दौरान उसने जो कुछ देखा उसका अत्यन्त विशद वर्णन किया है। उसकी पुस्तक से हमें सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विद्यमान भारत की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक अवस्था के बारे में बहुमूल्य सूचनाएँ मिलती हैं। ह्युएनत्सांग कई साल तक नालंदा विश्वविद्यालय का विद्यार्थी रहा और उसने विश्वविद्यालय के जीवन का अत्यंत रोचक वर्णन किया है। हर्षवर्धन ने ह्युएनत्साँग को स्वदेश वापस लौटने के लिए विपुल धन दिया और सैनिकों की एक टुकड़ी साथ कर दी। ह्यएनत्सांग भगवान् बुद्ध के शरीर की १५० धातुएँ, उनकी सोने, चाँदी तथा चंदन की बहुत सी मूर्तियाँ और ६५७ हस्तलिखित ग्रंथ लेकर, जिनको ढोने के लिए बीस खच्चरों की आवश्यकता पड़ी थी, ६४५ ई. में चीन वापस लौटा। चीन में उसका शेष जीवन इन बौद्धग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करने में बीता। वह ६६४ ई. के आसपास अपनी मृत्यु से पूर्व इनमें से ७४ ग्रंथों का अनुवाद पूरा कर चुका था।

ह्युजेस, एडमिरल सर एडवर्ड (१७२०-९४ ई.)
ब्रिटिश नौसेना का एक अफसर। वह भारत के पूर्वी तट पर १७७३ से १७७७ ई. तक और पुनः १७७९ से १७८३ ई. तक ब्रिटिश नौसेना का कमाण्डर रहा। उसने १७८० ई. में मंगलूर में हैदर अली की नौसेना नष्ट कर दी। १७८१ ई. में उसने डच लोगों से नागपट्टम् छीन लेने में मदद दी, १७८२ ई. में उसने डच लोगों से त्रिकोमलै छीन लिया। परन्तु फ्रेंच लोगों के खिलाफ उसे कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। १७८२ से ८३ ई. में उसने मद्रास और त्रिकोमलै के बीच एडमिरल डी सूफ्रां के नेतृत्ववाले फ्रेंच बेड़े से पाँच बार युद्ध किया, परन्तु उसका कोई निर्णयात्मक फल नहीं निकला। इसके बाद वह भारत में इकट्ठी की गयी बहुत बड़ी दौलत लेकर इंग्लैण्ड वापस लौट गया। उसने फिर किसी नौसैनिक बेड़े का नायकत्व नहीं किया।

ह्यूम, एलन आक्टेवियन (१८२९-१९१२ ई.)
हेलीबरी में शिक्षा प्राप्त की और १८४९ ई. में बंगाल में इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया। पदोन्नति करते हुए पश्चिमोत्तर प्रांत में वह रेवेन्यू बोर्ड का सदस्य नियुक्त हुआ। गदर के समय इटावा में मजिस्ट्रेट था। १८८२ ई. में इंडियन सिविल सर्विस से अवकाश ग्रहण किया, किन्तु भारतीय मामलों में दिलचस्पी लेता रहा। उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संगठन का प्रयास किया। बम्बई में १८८५ ई. होनेवाले कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन का वह संयोजक था तथा जीवन भर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यों में दिलचस्पी लेता रहा। उसकी गणना कांग्रेस के संस्थापकों में की जाती है। पहले बीस वर्षों तक (१८८५-१९०६ ई.) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वह प्रधानमन्त्री रहा। उसको तेईसवें अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पिता और संस्‍थापक घोषित किया गया। पक्षी-विज्ञान का वह बहुत अच्छा जानकार था। इस विषय पर उसने कई पुस्तकें लिखी हैं।


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