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Bharatiya Itihas Kosh

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आकमटी, सर सैम्युअल
को लार्ड मिंटो प्रथम (१५०७-१७) ने मद्रास में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सैनिक अधिकारियों के विद्रोह कर देने पर मद्रास की सेना का सेनापति नियुक्त किया था। आकमटी ने शीघ्र ही विद्रोह शांत कर दिया। इसके पुरस्कारस्वरूप जावा पर आक्रमण करने के लिए (१८१०-११ ई.) जो ब्रिटिश सैन्य दल भेजा गया उसका नेतृत्व उसे सौंपा गया। परिणामस्वरूप १८११ ई. में जावा पर अधिकार कर लिया गया।

आक्‍लैण्‍ड, लार्ड
१८३६ से ४२ ई. तक ६ वर्ष भारत का गवर्नर-जनरल रहा। उसके प्रशासन में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। यह सही है कि उसने भारतीयों के लिए शिक्षा प्रसार और भारत में पश्चिमी चिकित्सा-पद्धति की शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। उसने कम्पनी के डायरेक्टरों के उस आदेश को कार्यरूप में परिणत किया जिसके अधीन तीर्थयात्रियों और धार्मिक संस्थाओं से कर लेना बन्द कर दिया गया। लेकिन १८३७-३८ ई. में उत्तर भारत में पड़े विकराल अकाल के समय लोगों के कष्‍टों को दूर करने के लिए पर्याप्त कदम उठाने में वह विफल रहा। उसने १८३७ ई. में पादशाह बेगम के विद्रोह का दमन किया और अवध के नये नवाब (बादशाह) नसीरउद्दीन हैदर को बाध्य करके नयी सन्धि के लिए राजी किया जिसके द्वारा उससे अधिक वार्षिक धनराशि वसूल की जाने लगी। उस सन्धि को कम्पनी के डायरेक्टरों ने नामंजूर कर दिया, लेकिन आक्लैण्ड ने इस बात की सूचना अवध के बादशाह को नहीं दी। उसने सतारा के राजा को गद्दी से उतार दिया क्योंकि उसने पुर्तगालियों से मिलकर राजद्रोह का प्रयत्न किया था। अपदस्थ राजा के भाई को उसने गद्दी पर बैठाया। उसने करनूल के नवाब को भी कम्पनी के विरुद्ध युद्ध करने का प्रयास करने के आरोप में गद्दी से हटा दिया और उसके राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। लार्ड आक्लैण्ड का सबसे बदनामीवाला काम उसका प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२) शुरू करना था जिसका लक्ष्य दोस्त मुहम्मद को अफगानिस्तान की गद्दी से हटाना था क्योंकि वह रूस का समर्थक था और उसके स्थान पर शाह शुजा को वहाँ का अमीर बनाना था जिसे अंग्रेजों का समर्थक समझा जाता था। यह युद्ध अनुचित था और इसके द्वारा सिन्ध के अमीरों से की गयी सन्धि को उसे तोड़ना पड़ा था। इस युद्ध का संचालन इतने गलत ढंग से हुआ कि वह एक दुखान्त घटना बन गयी और लार्ड आक्लैण्ड को इंग्लैण्ड वापस बुला लिया गया और उनके स्थान पर लार्ड एलेनबरो को भारत का गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा गया।

आक्टरलोनी, सर डेविड (१७५८-१८३५ ई.)
ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में एक सुविख्यात सेनानायक। उसने १८०४ ई. में होल्कर के आक्रमण के समय दिल्ली की अत्यंत कुशलता से रक्षा की थी। उपरांत १८१४-१५ ई. के गोरखा युद्ध (दे.) में, वह उन तीन आंग्ल भारतीय सेनाओं में से एक का कमांडर था, जिसने नेपाल पर आक्रमण किया था। अन्य दो सेनाओं के कमांडर तो भाग आये, किन्तु आक्टरलोनी पश्चिम की ओर से नेपाल पर आक्रमण करके मोर्चे पर डटा रहा। इस सफलता के पुरस्कारस्वरूप उसकी पदोन्नति की गयी और उसे उन समस्त अंग्रेज और भारतीय सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर नियुक्त कर दिया गया जिन्होंने नेपाल पर आक्रमण किया था। उसने अपनी पदोन्नति को सार्थक सिद्ध कर दिया तथा कठिन युद्ध के उपरांत नेपाल में दूरतक घुसता चला गया, यहाँ तक कि उसकी राजधानी काठमांडू केवल ५० मील दूर रह गयी। परिणामस्वरूप १८१६ ई. में नेपाल को संगौली की संधि (दे.) करनी पड़ी। १८१७-१८ ई. के पेंढारी युद्ध (१८१७-१८ ई.) में वह राजपूताने की पलटन का कमांडर था और उसने अमीर खाँ को पेंठारियों से फोड़कर अंग्रेजों को शीघ्र विजय दिलाने में मदद दी। १८२४-३६ ई. में प्रथम बर्मा युद्ध छिड़ने पर उसने भरतपुर (दे.) पर चढ़ाई बोली, जहाँ दुर्जन साल ने अल्पवयस्क राजा बलवन्तसिंह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। किन्तु गवर्नर-जनरल ने उसे तत्क्षण वापस बुला लिया। इसके थोड़े ही समय बाद उसकी मृत्यु हो गयी। चौरंगी के समीप कलकत्ता के मैदान में ऑक्टरलोनी का एक स्मारक आज दिन भी वर्तमान है और उसे साधारणतः मनियारमठ कहा जाता है।

आक्सेनडेन, सर जार्ज
सूरत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फैक्टरी का अध्यक्ष था और १६६२ से १६६९ ई. तक बम्बई का गवर्नर रहा। उसने १६६४ ई. में शिवाजी के हमले के विरुद्ध सूरत की वीरतापूर्वक रक्षा की और बादशाह औरंगजेब ने भी उसकी प्रशंसा की।

आगा खाँ
भारतीय मुसलमानों के वोहरा इस्माइली समुदाय के धार्मिक नेता की उपाधि। वर्तमान आगा खाँ अली खाँ हैं जो इस पद के चौथे उत्तराधिकारी हैं। प्रथम आगा खाँ हसन अली खाँ थे, जो अपने को हजरत मुहम्मद की पुत्री के वंशज बताते थे। उनके बेटे आगा अलीशाह तीन वर्ष (१८८१-१८८४ ई.) इस पद पर रहे और उनके पुत्र सुल्तान मुहम्मद आगा खाँ तृतीय को 'हिज हाईनेस' की उपाधि ब्रिटिश शासकों ने प्रदान की। (नौरोजी दुभसिया-दि आगा खाँ एण्ड हिज एन्सेस्टर्स)

आजम, शाहजादा
छठे मुगल बादशाह औरंगजेब (१६५८-१७०७ ई.) का तीसरा बेटा था जिसने अपने बाप के मरने के बाद तख्त के लिए अपने बड़े भाई शाहजादा मुअज्जम से युद्ध किया और आगरा के निकट जाजऊ की लड़ाई में 10 जून 1707 ई. को हारा और मारा गया।

आजीवक
सम्प्रदाय की स्थापना गोशाला ने की थी जो गौतम बुद्ध का समकालीन था। उनके विचार 'सामंय' फल सुत्‍त' तथा 'भगवतीसूत्र' में मिलते हैं। आजीवक पुरुषार्थ में विश्वास नहीं करते थे। वे नियति को मनुष्य की सभी अवस्थाओं के लिए उत्तरदायी ठहराते थे। उनके नियतिवाद में पुरुष के बल या वीर्य (पराक्रम) का कोई स्थान नहीं था। वे पाप या पुण्य का कोई हेतु या कारण नहीं मानते थे। आजीवकों का सम्प्रदाय कभी इतना विशाल नहीं हुआ कि राजनीति पर उसका कोई प्रभाव पड़ता, हालाँकि अशोक के काल में उनका समुदाय महत्त्वपूर्ण माना जाता था। अशोक के पोते ने गया के निकट बराबर पहाड़ियों में निर्मित तीन गुफा-मंदिर आजीवकों को दान कर दिये थे।

आदम, जान
गवर्नर-जनरल की कौसिल का वरिष्ठ सदस्य था। १८२३ ई. में जनवरी से जुलाई तक उसने स्थानापन्न गवर्नर-जनरल के रूप में कार्य किया। उसके अल्प शासन में 'कलकत्ता जर्नल' के सम्पादक जान सिल्क बकिंघम को सार्वजनिक मामलों की आलोचना करने के कारण देश से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद भारत के सार्वजनिक जीवन में समाचारपत्रों ने भी अपना स्थान बना लिया।

आदि ग्रंथ
सिखों का धर्मग्रंथ। उसका संकलन पाँचवें गुरु अर्जुन (१५८१-१६०६ ई.) ने १६०४ ई. में किया था। उसमें गुरु नानक, उनके तीन उत्तराधिकारियों तथा अन्य संतों की वाणियाँ संकलित हैं।

आदित्य (८८०-९०७ ई.)
चोलवंश के प्रारम्भिक राजाओं में था। उसने पल्लव राजा अपराजित को हराकर पल्लवों की राज्यशक्ति समाप्त कर दी और इस प्रकार अपने पुत्र तथा उत्तराधिकारी के राज्यकाल में चोल राज्य के उत्कर्ष का पथ प्रशस्त कर दिया।


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