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Bharatiya Itihas Kosh

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अहसानाबाद
देखो गुलबर्ग अथवा, कुलबर्ग।

अहिच्छत्र
एक प्राचीन नगर था जहाँ अब रामनगर (जिला बरेली) स्थित है। महाभारत के अनुसार यह नगर उत्तर पंचाल राज्य की राजधानी था, जिसको द्रोणाचार्य ने जीत लिया था। ईसा की सातवीं शताब्दी में जब ह्युएन-त्सांग भारत आया तो यह नगर काफी विस्तृत क्षेत्र में फैला था।

अहोम
उत्तरी बर्मा में रहनेवाली शान जातिके थे। सुकफ के नेतृत्व में उनलोगों ने आसाम के पूर्वोत्तर क्षेत्र पर १२२८ ई. में आक्रमण किया और इस पर अधिकार कर लिया। यह वही समय था जब आसाम पर मुसलमानी आक्रमण पश्चिमोत्तर दिशा से हो रहे थे। धीरे-धीरे अहोम लोगों ने आसाम के लखीमपुर, शिवसागर, दारांग, नवगाँव और कामरूप जिलों में अपना राज्य स्थापित कर लिया। ग्वालपाड़ा जिला जो आसाम का हिस्सा है अथवा कन्धार और सिलहट के जिले कभी अहोम राज्य में शामिल नहीं थे। ब्रिटिश शासकों ने १८२४ ई. में इस क्षेत्र को जीतने के बाद इसे आसाम में शामिल कर दिया। अहोम लोगों की यह विशेषता थी कि उन्होंने भारत के पूर्वोत्तर भाग में पठान या मुगल आक्रमणकारियों को घुसने नहीं दिया, हालांकि मुगलों ने पूरे भारत पर अपना अधिकार जमा लिया था। आसाम में अहोम राज्य छह शताब्दी (१२२८-१८३५ ई.) तक कायम रहा। इस अवधि में ३९ राजा गद्दी पर बैठे। यहाँ के राजाओं की उपाधि 'स्वर्ग देव' थी। अहोम लोगों का १७ वां राजा प्रतापसिंह (१६०३-४१) और ३९ वाँ राजा गदाधर सिंह (१६८१-८६ई.) बड़ा प्रतापी था। प्रतापसिंह से पहले के अहोम राजा अपना नामकरण अहोम भाषा में करते थे लेकिन प्रतापसिंह ने संस्कृत नाम अपनाया और उसके बाद के राजा लोग दो नाम रखने लगे-एक अहोम और दूसरा संस्कृत भाषा में। अहोम लोगों का पहले अपना अलग जातीय धर्म था, लेकिन बाद में उहोंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। वे अपने साथ अपनी भाषा और लिपि भी लाये थे, लेकिन बाद में धीरे-धीरे उन्होंने असमिया भाषा और लिपि स्वीकार कर ली जो संस्कृत-बंगला लिपि से मिलती जुलती है। अहोम राजाओं ने आसाम में अच्छा शासन-प्रबंध किया। उनका शासन-प्रबंध सामंतवादी ढंग का था और उसमें सामंतवाद की सभी अच्छाइयाँ और बराइयाँ थीं। अहोम राजा अपने शासन का पूरा लेखा रखते थे जिन्हें 'बुरंजी' कहा जाता था। इसके फलस्वरूप अहोम और असमिया दोनों भाषाओं में काफी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। अहोम राजाओं की राजधानी शिवसागर जिले में वर्तमान जोरहाट के निकट गढ़ गाँव में थी। अन्तिम अहोम राजा जोगेश्वरसिंह अपने वंश के ३९ वें शासक थे जिसका आरम्भ सुकफ ने १२२८ ई. में किया था। जोगेश्वर ने केवल एक वर्ष (१८१९ ई.) राज्य किया। बर्मी लोगों ने उसकी गद्दी छीन ली, लेकिन आसाम में बर्मी शासन केवल पाँच वर्ष (१८१९-१८२४ ई.) रहा और प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध के बाद यन्दव की सन्धि के अन्तर्गत आसाम भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। १८३२ ई. में ब्रिटिश शासकों ने अपने संरक्षण में पुराने अहोम राजवंश के राजकुमार पुरन्दरसिंह को उत्तरी आसाम का राजा बनाया लेकिन १८२८ ई. में कुशासन के आधार पर उसे गद्दी से हटा दिया। इसके बाद आसाम में अहोम राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया। अहोम लोग अब आसाम के अन्य निवासियों में घुल मिल गये हैं और उनकी संख्या बहुत कम रह गयी है। (देखो, आसाम)

आंगियर, जेराल्ड
बम्बई का गवर्नर (१६६९-१७०७ ई.)। वह सही अर्थों में बम्बई नगर का संस्थापक था जिसने बम्बई के महानगरी बनने की कल्पना कर ली थी। उसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रारम्भिक संस्थापकों में गिना जा सकता है। उसकी गुमनाम कब्र सूरत में है। (मालबारी : बम्बे इन दि मेकिंग)

आंग्ल अफगान युद्ध
तीन हुए। पहला आँग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२ ई.) -ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में गवर्नर-जनरल लार्ड आक्लैण्ड के समय में शुरू हुआ और उसके उत्तराधिकारी लार्ड एलिनबरो के समय तक चलता रहा। १८३८ ई. में अफगानिस्तान का भूतपूर्व अमीर शाह शुजा अंग्रेजों का पेंशनयाफ्ता होकर पंजाब के लुधियाना नगर में रहता था। उस समय रूस के गुप्त समर्थन से फारस की सेना ने अफगानिस्तान के सीमावर्ती नगर हेरात को घेर लिया। हेरात बहुत सामरिक महत्त्व का नगर माना जाता था और उसे भारत का द्वार समझा जाता था। जब उस पर रूस की सहायता से फारस ने कब्जा कर लिया तो इंग्लैण्ड की सरकार ने उसे भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरा माना, हालाँकि उस समय फारस और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच में पंजाब में रणजीत सिंह और अफगानिस्तान में अमीर दोस्त मुहम्मद का स्वतंत्र राज्य था। अमीर दोस्त मुहम्मद भी हेरात पर फारस के हमले से रूसी आक्रमण का खतरा महसूस कर रहा था। वह अपनी सुरक्षा के लिए भारत की ब्रिटिश सरकार से समझौता करना चाहता था। किन्तु वह अपने पूरब के पड़ोसी महाराजा रणजीत सिंह से भी अपनी सुरक्षा की गारंटी चाहता था जिसने हाल में पेशावर पर कब्जा कर लिया था। अतएव उसने इस शर्त पर आंग्ल-अफगान गठबंधन का प्रस्ताव रखा कि अंग्रेज उसे रणजीत सिंह से पेशावर वापस दिलाने में मदद देंगे और इसके बदले में अमीर अपने दरबार तथा देश को रूसियों के प्रभाव से मुक्त रखेगा। लार्ड आक्लैण्ड की सरकार महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति से भय खाती थी और उसने उस पर किसी प्रकार का दबाव डालने से इन्कार कर दिया। बर्न्स, जिसे आक्लैण्ड ने अमीर से बातचीत के लिए काबुल भेजा था, अप्रैल १८३८ ई. में काबुल से खाली हाथ लौट आया। उसके लौटने के बाद अमीर ने एक रूसी एजेण्ट की आवभगत की, जो कुछ समय से उसके दरबार में रहता था और अबतक उपेक्षा का पात्र बना हुआ था। इस बात को आक्लैण्ड की सरकार ने अमीर का शत्रुतापूर्ण कार्य समझा और जुलाई १८३८ ई. में उसने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और निष्कासित अमीर शाह शुजा से जो लुधियाना में रहता था, एक त्रिपक्षीय सन्धि कर ली जिसका उद्देश्य शाह शुजा को फिर से अफगानिस्तान की गद्दी पर बिठाना था। यह अनुमान था कि शाह शुजा काबुल में अमीर बनने के बाद अपने विदेशी सम्बन्धों में, खासतौर से रूस के सम्बन्ध में भारत की ब्रिटिश सरकार से नियंत्रित होगा। इस आक्रामक और अन्यायपूर्ण त्रिपक्षीय सन्धि के बाद आंग्ल-अफगान युद्ध अनिवार्य हो गया। इस त्रिपक्षीय सन्धि का यदि जुलाई १८३८ में कुछ औचित्य भी था तो वह सितम्बर में फारस की सेना द्वारा हेरात का घेरा उठा लिये जाने और अफगान क्षेत्र से हट आने के बाद समाप्त हो गया। लेकिन लार्ड आक्लैण्ड को इससे सन्तोष नहीं हुआ और अक्तूबर में उसने अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर दी। इस आक्रमण का कोई औचित्य नहीं था और इसके द्वारा १८३२ ई. में सिन्ध के अमीरों से की गयी सन्धि का भी उल्लंघन होता था, क्योंकि अंग्रेजी सेना उनके क्षेत्र से होकर अफगानिस्तान गयी थी। इस युद्ध का संचालन भी बहुत गलत ढंग से किया गया। आरम्भ में अंग्रेजी सेना को कुछ सफलता मिली। अप्रैल १८३९ ई. में कंधार पर कब्जा कर लिया गया। जुलाई में अंग्रेजी सेना ने गजनी ले लिया और अगस्त में काबुल। दोस्त मोहम्मद ने काबुल खाली कर दिया और अंत में अंग्रेजी सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। उसको बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया और शाह शुजा को फिर से अफगानिस्तान का अमीर बना दिया गया। किन्तु इसके बाद ही स्थिति और विपम हो गयी। शाह शुजा को अमीर बनाने के बाद अंग्रेजी सेना बहाँ से वापस बुला लेनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। शाह शुजा केवल कठपुतली शासक था और देश का प्रशासन वास्तव में सर विलियम मैकनाटन के हाथ में था जिसको लार्ड आक्लैण्ड ने राजनीतिक अधिकारी के रूप में वहाँ भेजा था। अफगान लोग शाह शुजा को पहले भी पसंद नहीं करते थे और इस बात से बहुत नाराज थे कि अंग्रेजी सेना की बन्दूकों के जोर से उसे पुनः अमीर बना दिया गया है। इसीलिए काबुल में अंग्रेजी आधिपत्य सेना को रखना जरूरी हो गया था। युद्ध के कारण चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ गये थे जिससे जनता का हर वर्ग पीड़ित था। अंग्रेजी सेना की कुछ हरकतों से भी जनरोष प्रबल हो गया था। इस मौके का दोस्त मुहम्मद के लड़के अकबर खाँ ने चालाकी से फायदा उठाया और १८४१ ई. में पूरे देश में शाह शुजा और उसकी संरक्षक अंग्रेजी सेना के विरुद्ध बड़े पैमाने पर बलवे शुरू हो गये। सर विलियम मैकनाटन के खास सलाहकार एलेक्ज़ेण्डर बर्न्स की अनीति से अफगान लोग चिढ़े हुए थे। नवम्बर १८४१ में एक क्रुद्ध अफगान भीड़ बर्न्स और उसके भाई को घर से घसीट कर ले गयी और दोनों को मार डाला। मैकनाटन और काबुल स्थित अंग्रेजी सेना के कमांडर-जनरल एलिफिंस्टन ने उस समय ढुलमुलपन और कमजोरी का प्रदर्शन किया और दिसम्बरमें अकबर खाँ से सन्धि कर ली जिसके द्वारा वापस बुला लेने और दोस्त मुहम्मद को दुबारा अमीर बना देनेका आश्वासन दिया गया। शीघ्र ही यह बात साफ हो गयी कि इस संधि के पीछे मैकनाटन की नीयत साफ नहीं है। इस पर अकबर खाँ के आदेश से मैकनाटन और उसके तीन साथियों को मौत के घाट उतार दिया गया। काबुल पर अधिकार करनेवाली अंग्रेजी सेना के १६,५०० सैनिक ६ जनवरी १८४१ ई. को काबुल से जलालाबाद की ओर रवाना हुए, जहाँ जनरल सेल के नेतृत्व में एक दूसरी अंग्रेजी सेना डटी हुई थी। अंग्रेजी सेना की वापसी विनाशकारी सिद्ध हुई। अफगानों ने सभी ओर से उसपर आक्रमण कर दिया और पूरी सेना नष्ट कर दी। केवल एक व्यक्ति, डाक्टर ब्राइडन गम्भीर रूप से जख्मी और थका माँदा १३ जनवरी को जलालाबाद पहँचा। इस दुर्घटना से गवर्नर-जनरल आक्लैण्ड और इंग्लैण्ड की सरकार को गहरा धक्का लगा। आक्लैण्ड को इंग्लैण्ड वापस बुला लिया गया और लार्ड एलिनबरो को उसके स्थान पर गवर्नर-जनरल (१८४२-१८४४ ई.) बनाया गया। एलिनबरो के कार्यकाल में जनरल पोलक ने अप्रैल १८४२ ई. में जलालाबाद पर फिर से नियंत्रण कर लिया और मई में जनरल नॉट ने कंधार को फिर से अंग्रेजों के आधिपत्य में ले लिया। इसके बाद दोनों अंग्रेजी सेनाएँ रास्ते में सभी विरोधियों को कुचलती हुई आगे बढ़ीं और सितम्बर १८४२ ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया। इन सेनाओं ने बचे हुए बंदी अंग्रेज सिपाहियों को छुड़ाया और अंग्रेजों की विजय के उपलक्ष्य में काबुल के बाजार को बारूद से उड़ा दिया। अंग्रेजों ने काबुल शहर को निर्दयता के साथ ध्वस्त कर डाला, बड़े पैमाने पर लूटमार की और हजारों बेगुनाह अफगानों को मौत के घाट उतार दिया। इन बर्बरतापूर्ण कृत्यों के साथ इस अन्यायपूर्ण और अलाभप्रद युद्ध का अन्त हुआ। शीघ्र ही आफगानिस्तान से अंग्रेजी सेना को वापस बुला लिया गया और दोस्त मुहम्मद, अफगानिस्तान वापस लौट गया व १८४२ ई. में दुबारा गद्दी पर बैठा जिससे उसे अनावश्यक और अनुचित तरीके से हटा दिया गया था। वह १८६३ ई. तक अफगानिस्तान का शासक रहा। उस वर्ष ८० साल की उम्र में उसका देहांत हुआ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पहला अफगान युद्ध भारती ब्रिटिश सरकार की ओर से नितांत अनुचित रीति से अकारण ही छेड़ दिया गया था और लार्ड आक्लैण्ड की सरकार ने उसका संचालन बड़ी अयोग्यता के साथ किया। इस युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ और उसमें २०,००० भारतीय तथा अंग्रेज सैनिक मारे गये और डेढ़ करोड़ रुपया बर्बाद हुआ जिसको भारत की गरीब जनता से वसूला गया।

दूसरा आंग्ल-अफगान युद्ध
(१८७८-८० ई.)-वाइसराय लार्ड लिटन प्रथम (१८७६-१८८० ई.) के शासन काल में आरम्भ हुआ और उसके उत्तराधिकारी लार्ड रिपन (१८८०-८४ ई.) के शासनकाल में समाप्त हुआ। अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु १८६३ ई. में हो गयी और उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया। उत्तराधिकार का यह युद्ध (१८६३-६८ ई.) पाँच वर्ष चला। इस बीच भारत सरकार ने पूर्ण निष्‍क्रियता की नीति का पालन किया और काबुल की गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों में किसी का पक्ष नहीं लिया। अन्त में १८६८ ई. में जब दोस्त मुहम्मद के तीसरे बेटे शेर अली ने काबुल की गद्दी प्राप्त कर ली तो भारत सरकार ने उसको अफगानिस्तान का अमीर मान लिया और उसे शस्त्रास्त्र तथा धन की सहायता देना स्वीकार कर लिया। लेकिन इसी बीच मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बहुत बढ़ गया। रूस ने बुखारा पर १८६६ में, ताशकंद पर १८६७ में और समरकंद पर १८६८ ई. में कब्जा कर लिया। मध्य एशिया में रूस के प्रभाव के बढ़ने से अफगानिस्तान और भारत की अंग्रेज सरकार को चिन्ता हो गयी। अमीर शेर अली मध्य एशिया में रूस के प्रभाव को रोकना चाहता था और भारत की अंग्रेज सरकार अफगानिस्तान को रूसी प्रभाव से मुक्त रखना चाहती थी। इन परिस्थितियों में १८६९ ई. में पंजाब के अम्बाला नगर में अमीर शेर अली और भारत के भारत के वायसराय लार्ड मेयो (१७६९-७२ ई.) की भेंट हुई। उस समय अमीर अंग्रेजों की यह माँग मान लेने के लिए तैयार हो सकता था कि वह अपने वैदेशिक सम्बन्ध में अंग्रेजों का नियंत्रण स्वीकार कर ले और अंग्रेज रूस के विरुद्ध उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी ले लें और सहायता करें और उसको अथवा उसके नामजद व्यक्तियों को ही अफगानिस्तान का अमीर मानें। इंग्लैण्ड के निर्देश पर ब्रिटिश सरकार ने सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने की बात नहीं मानी, यद्यपि शस्त्रास्त्र और धन की सहायता देने का वचन दिया। स्वाभाविक रूप से अमीर शेर अली को भारत सरकार से समझौते की शर्तें संतोषजनक नहीं लगीं। लेकिन १८७३ ई. में रूसियों ने खीवा पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार उनका बढ़ाव अफगानिस्तान की ओर होने लगा। इस हालत से चिन्तित होकर अमीर शेर अली ने १८७३ में वाइसराय लार्ड नार्थब्रुक (१८७३-८६ ई.) के सामने आंग्ल-अफगानिस्तान सन्धि का प्रस्ताव रखा जिसमें अफगानिस्तान को यह आश्वासन देना था कि यदि रूस अथवा उसके संरक्षण में कोई राज्य अफगानिस्तान पर आक्रमण करे तो ब्रिटिश सरकार अफगानिस्तान की सहायता केवल शस्त्रास्त्र और धन देकर ही नहीं करेगी वरन् अपनी सेना भी वहाँ भेजेगी। उस समय इंग्लैण्ड में ग्लैडस्टोन का मंत्रिमंडल था। उसकी सलाह के अनुसार लार्ड नार्थब्रुक इस प्रस्ताव पर राजी नहीं हुआ। नार्थब्रुक इस बात के लिए भी राजी नहीं हुआ कि वह अमीर शेर अली के पुत्र अब्दुल्लाजान को उसका वारिस मानकर उसे भावी अमीर मान ले। इन बातों से शेर अली अंग्रेजों से नाराज हो गया और उसने रूस से अपने सम्बन्ध सुधारने के लिए लिखा पढ़ी शुरू कर दी। रूसी एजेण्ट जल्दी-जल्दी काबुल आने लगे। १८७४ ई. में डिज़रेली ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना और १८७७ ई. में रूस-तुर्की युद्ध शुरू हो गया जिससे इंग्लैण्ड और रूस के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो गयी और दोनों में किसी समय भी युद्ध छिड़ने की आशंका उत्पन्न हो गयी। इस हालत में अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर अपना मजबूत नियंत्रण रखने का निश्चय किया जिससे अफगानिस्तान से होकर भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो। इस नीति के परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने क्वेटा पर १८७७ ई. में अधिकार कर लिया क्योंकि कंधार के रास्ते की सुरक्षा के लिए उसपर नियंत्रण रखना जरूरी था। लार्ड नार्थब्रुक के उत्तराधिकारी लार्ड लिटन प्रथम (१८७६-८० ई.) ने डिज़रेली मंत्रिमंडल की सलाह से काबुल दरबार में एक ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल भेजने का निश्चय किया जिसे १८७३ ई. में अफगानिस्तान के अमीर द्वारा प्रस्तावित शर्तों के आधार पर सन्धि की बातचीत शुरू करनी थी। उन शर्तों के अलावा यह शर्त भी रखी गयी कि हेरात में भी ब्रिटिश रेजिडेण्ट रखा जाय। लेकिन अमीर ने ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल काबुल भेजने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उसकी ओर से कहा गया कि यदि अफगानिस्तान में ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल आयेगा तो रूस के प्रतिनिधिमंडल को भी आने की इजाजत देनी पड़ेगी। इस प्रकार इस मामले में एक गतिरोध-सा उत्पन्न हो गया लेकिन अमीर के प्रतिबन्ध के बावजूद एक रूसी प्रतिनिधिमंडल जनरल स्टोलीटाफ के नेतृत्व में १८७८ ई. में अफगानिस्तान पहुँचा और उसने अमीर शेर अली से २२ जुलाई १८७८ को सन्धि की बातचीत शुरू कर दी। उसने अफगानिस्तान पर विदेशी हमला होने पर रूस की ओर से सुरक्षा की गारण्टी देने का प्रस्ताव रखा। रूसी प्रतिनिधिमण्डल के काबुल में हुए स्वागत से लार्ड लिटन (प्रथम) भयंकर रूप से क्रुद्ध हो गया और उसने इंग्लैण्ड की ब्रिटिश सरकार के परामर्श से अफगानिस्तान के अमीर पर इस बात का दबाव डाला कि वह काबुल में ब्रिटिश प्रतिनिधिमण्डल का भी स्वागत एक निश्चित तारीख २० नवम्बर १८७८ को करे। अमीर ने तब नयी सन्धि के अंतर्गत रूस से मदद माँगी लेकिन इस बीच रूस-तुर्की युद्ध समाप्त हो गया था और यूरोप में शान्ति स्थापित हो गयी थी और इंग्लैण्ड और रूस के बीच १८७८ की वर्लिन की सन्धि हो गयी थी। रूस अब इंग्लैण्ड से युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने शेर अली को अंग्रेजों से सुलह करने की सलाह दी, लेकिन शेर अली ने अब सुलह में काफी देरी कर दी थी, क्योंकि अंग्रेज सेना ने २० नवम्बर को अफगानि्स्‍तान पर हमला बोल दिया था और इस प्रकार दूसरा आंग्ल अफगान युद्ध शुरू हो गया था।
जिस प्रकार पहले आंग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२ ई.) में ब्रिटिश भारतीय सेना को आरम्भ में सफलताएँ मिलीं थीं, उसी प्रकार इस बार भी मिलीं। रूसके साथ न देने के कारण शेर अली अंग्रेजी आक्रमण का अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका। तीन अंग्रेजी सेनाओं ने तीन ओर से काबुल पर चढ़ाई कर दी-जनरल ब्राउन के नेतृत्व में एक सेना खैबर के दर्रे से, दूसरी सेना जनरल (बाद में लार्ड ) राबर्ट्स के नेतृत्व में कुर्रम की घाटी से और तीसरी सेना जनरल बीडल्फ के नेतृत्व में क्वेटा से आगे बढ़ी। चौथी ब्रिटिश सेना ने जेनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में कंधार पर कब्जा कर लिया। शेर अली की हालत एक महीने में ही इतनी पतली हो गयी कि वह अफगानिस्तान छोड़कर तुर्किस्तान भाग गया जहाँ शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी। शेर अली की मृत्यु के बाद उसके बेटे याकूब खाँ ने अंग्रेजों से सुलह की बातचीत चलायी और मई १८७९ ई. में गन्दमक की सन्धि कर ली। इस सन्धि में अंग्रेजों की सभी शर्तें मंजूर कर ली गयीं। इसके अलावा काबुल में ब्रिटिश राजदूतों को रखना तय हुआ और अफगानिस्तान की वैदेशिक नीति भारत के वासइराय की राय से यह करने की बात भी मान ली गयी। कुर्रम, पिशीन और सिबी के जिले भी अंग्रेजों को सौंप दिये गये। इस सन्धि के अनुसार प्रथम ब्रिटिश राजदूत कैवगनरी जुलाई १८७९ ई. में काबुल पहुँच गया। उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस युद्ध में अंग्रेजों को पूरी सफलता मिली है। लेकिन ३ सितम्बर को काबुल की अफगान सेना में सैनिक विद्रोह हो गया, कैवगनरी की हत्या कर दी गयी और फिर से लड़ाई शुरू हो गयी। अंग्रेजों ने इस बार तत्काल प्रभावशाली ढंग से कार्रवाई की। राबर्ट्स ने अक्तूबर १८७९ ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया और अमीर याकूब खाँ की हालत कैदी जैसी हो गयी। उसके भाई अयूब खाँ ने अपने को अमीर घोषित कर दिया और उसने जुलाई १८८० ई. में ब्रिटिश सेना को कंधार के निकट भाईबन्द के युद्ध में पराजित कर दिया। लेकिन राबर्ट्स एक बड़ी सेना के साथ काबुल से कंधार पहुँचा, शेर अली के भतीजे अब्दुर्रहमान ने भी अंग्रेजों की काफी मदद की और ब्रिटिश सेना ने अयूबखाँ को पूरी तौर से हरा दिया। इसी बीच इंग्लैण्ड में डिजरेली के स्थान पर ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बन गया, जिसने भारत के वाइसराय लार्ड लिटन को वापस बुलाकर लार्ड रिपन को भारत का वाइसराय (१८८०-८४) बनाया। नये वाइसराय ने अब्दुर्रहमान के साथ सन्धि करके दूसरा आंग्ल-अफगान युद्ध समाप्त कर दिया। इस सन्धि में अब्दुर्रहमान खाँ को अफगानिस्तान का अमीर मान लिया गया। अमीर ने अंग्रेजों से वार्षिक सहायता पाने के बदले में अपनी वैदेशिक नीति पर भारत सरकार का नियंत्रण स्वीकार कर लिया। गन्दमक की सन्धि में जो जिले अंग्रेजों को मिले थे वे उनके पास ही बने रहे।
दूसरा अफगान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति जिसे अग्रसर नीति (फारवर्ड पालिसी ) कहा जाता था, उसके अनुसार भारत की, पश्चिमोत्तरमें, प्राकृतिक सीमा हिन्दूकुश होनी चाहिए। इस नीति के अनुसार भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में कंधार और काबुल को जो भारत के दो फाटक माने जाते थे, सम्मिलित करना आवश्यक समझा जाता था। दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैण्ड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे, दोनों अफगानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे। इंग्लैण्ड में विशेष रूप से कंजरवेटिव पार्टी को अफगानिस्तान होकर भारत की और रूसी प्रसार का तीव्र भय था। यद्यपि यह भय कभी साकार नहीं हुआ तथापि इसने अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश नीति को समूची १९ वीं शताब्दी भर प्रभावित किया।

तीसरा आंग्ल-अफगान युद्ध
(अप्रैल-मई १९१९) –बहुत थोड़े दिन चला। अमीर अब्दुर्रहमान ने जिसे लार्ड रिपन ने अफगानिस्तान का अमीर मान लिया था, उसने १९०१ ई. में मृत्युपर्यन्त शासन किया। उसके उत्तराधिकारी अमीर हबीबुल्लाह (१९०१-१९ ई.) ने अपने को अफगानिस्तान का शाह घोषित किया और उसने भारत की अंग्रेजी सरकार से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखा। लेकिन उसके बेटे और उत्तराधिकारी शाह अमानुल्लाह (१९१९-२९ ई.) ने आंतरिक झगड़ों और अफगानिस्तान में व्याप्त अंग्रेज-विरोधी भावनाओं के कारण, गद्दी पर बैठने के बाद ही भारत की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस तरह तीसरा तीसरा अंग्ल-अफगान युद्ध शुरू हो गया। युद्ध केवल दो महीने (अप्रैल-मई १९१९ ई.) चला। भारत की ब्रिटिश सेना ने बमों, विमानों, बेतार के तार की संचार व्यवस्था और आधुनिक शास्त्रास्त्रों का प्रयोग करके अफगानों को हरा दिया। अफगानों के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र नहीं थे। उन्हें मजबूर होकर शान्ति-सन्धि के लिए झुकना पड़ा। परिणामस्वरूप रावलपिंडी की सन्धि (अगस्त १९१९) हुई। इस सन्धि के द्वारा तय हुआ कि अफगानिस्तान भारत के मार्ग से शस्त्रास्त्रों का आयात नहीं करेगा। अफगानिस्तान के शाह को भारत से दी जानेवाली आर्थिक सहायता भी बंद कर दी गयी और अफगास्तान, दोनों ने एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करने का निश्चय किया। अन्त में यह भी तय हुआ कि अफगानिस्तान अपना राजदूत लन्दन में रखेगा और इंग्लैण्ड का राजदूत काबुल में रखा जायगा। इसके बाद से आंग्ल-अफगान सम्बन्ध प्रायः मैत्रीपूर्ण रहा।

आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध
देखो कर्नाटक बुद्ध।

आईन-ए-अकबरी
फारसी का एक प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ जिसे अकबर बादशाह के विश्वासपात्र और मीरमुन्शी (प्रधान सचिव) अबुलफजल ने लिखा था। इसमें अकबर की सल्तनत, उसके सैनिक प्रबन्ध तथा शासनप्रबंध के बारे में सूचनाएँ मिलती हैं। फारसी के अन्य इतिहास ग्रन्थों से इसकी एक विशेषता यह है कि इसमें मुगल सल्तनत के हर-एक सूबे, जिले, और परगनों के आंकड़े दिये गये हैं। इस ग्रन्थ में हमें मुगलों के काल की आर्थिक स्थिति तथा मुगल शासन-व्यवस्था के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिलती है। इस ग्रन्थ का अंग्रेजी में टिप्पणी सहित अनुवाद ब्लाकमैन और जैरट ने १८७३ ई. में किया था। इस ग्रन्थ में अकबरकालीन भारत के बारे में सबसे प्रामाणिक जानकारी मिलती है।

आउटरम, सर जेम्स (१८०३-६३ ई.)
गदर के समय अंग्रेजों का एक वीर नायक था। वह १८१९ ई. में एक कैडेट (शिक्षार्थी सैनिक अधिकारी) के रूप में भारत आया। अगले साल अपनी चुस्ती के कारण वह पूना में एडजुटेंट बना दिया गया। १८२५ ई. में उसे खानदेश भेजा गया। वहाँ के भील उससे बहुत प्रभावित हुए। उसने भीलों को पैदल फौज में भरती किया। उनको हलके हथियार दिये गये। यह पलटन स्थानीय चोरों की लूटमार रोकने में बहुत सफल हुई। १८३५ से १८३८ ई. तक वह गुजरात में पोलिटिकल एजेंट रहा। १८३८ ई. में उसने अफगान युद्ध में भाग लिया। उसने गजनी के किले के सामने शत्रुओं के झंडे छीन लेने में व्यक्तिगत रीति से बड़ी वीरता प्रदर्शित की, जिसके कारण उसका बहुत नाम हुआ। १८३६ ई. में वह सिंध में पोलिटिकल एजेंट नियुक्त हुआ। उसने अपने उच्च अधिकारी सर चार्ल्स नेपियर की नीति का विरोध करके, जिसके फलस्वरूप सिंध के अमीरों से युद्ध हुआ, अपने सबल व्यक्तित्व तथा अपनी न्यायप्रियता का परिचय दिया। परन्तु जब युद्ध छिड़ गया तो उसने ८०० बलूचियों के हमले से हैदराबाद रेजिडेंसी की वीरतापूर्वक रक्षा की। इसके फलस्वरूप सर चार्ल्स नेपियर ने उसकी तुलना प्रसिद्ध फ्रांसीसी वीर बेयार्ड से की।
१८५४ ई. में वह लखनऊ में रेजिडेंट नियुक्त हुआ। १८५६ ई. में उसने अवध का राज्य नवाबों से ले लिया और उसके अंग्रेजी साम्राज्‍य में मिला लिये जाने के बाद प्रांत का पहला चीफ कमिश्नर नियुक्त हुआ। जिस समय गदर हुआ वह फारस में था। उसे शीघ्रता से फारस से बुला लिया गया और कलकत्ता से कानपुर तक की रक्षा करनेवाली बंगाल आर्मी का कमांडर नियुक्त किया गया। उसने लखनऊ रेजिडेंसी का मोहासरा उठाने में हैवलाक की भारी मदद की और विद्रोहियों को चकमा देकर रेजिडेंसी में फँसी फौज को निकाल ले आया। इसके बाद उसने लखनऊ पर पुनः अधिकार करने में सर कालिन कैम्पबेल को मदद दी। गदर के समय उसने लोमड़ी जैसी चालाकी तथा सिंह जैसे पराक्रमका परिचय दिया। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने इसके उपलक्ष्य में उसे 'बैरन' की पदवी प्रदान की और उसकी आजीवन पेंशन नियत कर दी। कलकत्ता में स्थापित उसकी घोड़े पर सवार मूर्ति मूर्तिकला का उत्तम उदाहरण थी। उसने १८६० ई. में अवकाश ग्रहण किया और १८६३ ई. में इंग्लैण्ड में उसकी मृत्यु हुई।


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