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Bharatiya Itihas Kosh

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अलहज्जाज
खलीफा वालिद के समय ईराक का मुसलमान सूबेदार। उस समय सिन्ध में राजा दाहिर का शासन था। सिन्ध के कुछ लुटेरों की लूटमार से क्रुद्ध होकर अलहज्जाज ने उन्हें दंडित करने के लिए कई बार चढ़ाई की किन्तु, राजा दाहिर ने उसकी फौजों को पराजित कर दिया। बाद में अलहज्जाज ने अपने भतीजे और दामाद मुहम्मद इब्‍नकासिद के साथ बड़ी फौज भेजी, जिसने राउर की लड़ाई (७१२ ई.) में राजा दाहिर को पराजित कर उसको कत्ल कर दिया और सिन्ध में मुसलमानी राज्य की स्थापना की।

अलाउद्दीन प्रथम
दक्षिण के बहमनी वंश का पहला सुल्तान। उसका पूरा खिताब था-सुल्तान अलाउद्दीन हसन शाह अल-वली-अलबहमनी। इसके पहले वह हसन के नाम से विख्यात था। वह दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक के दरबार में एक अफगान अथवा तुर्क सरदार था। उसे जफ़र खाँ का खिताब मिला था। सुल्तान मुहम्मद-बिन तुग़लक की सनकों से तंग आकर दक्षिण के मुसलान अमीरों ने विद्रोह करके दौलताबाद के किले पर अधिकार कर लिया और हसन उर्फ जफ़र खाँ को अपना सुल्तान बनाया। उसने सुल्तान अलाउद्दीन बहमन शाह की उपाधि धारण की और १३४७ ई. में कुलवर्ग (गुलवर्ग) को अपनी राजधानी बना कर नये राजवंश की नींव डाली। इतिहासकार फरिश्ता ने हसन के सम्बन्ध में लिखा है कि वह दिल्ली के ब्राह्मण ज्योतिषी गंगू के यहाँ नौकर था, जिसे मुहम्मद बिन तुगलक बहुत मानता था। अपने ब्राह्मण मालिक का कृपापात्र होने के कारण वह तुगलक की नजर में चढ़ा। इसीलिए अपने संरक्षक गंगू ब्राह्मण के प्रति आदर भाव से उसने बहनी उपाधि धारण की। फरिश्ता की यह कहानी सही नहीं है, क्योंकि इसका समर्थन सिक्कों अथवा अन्य लेखों से नहीं होता है। उसके पहले की मुसलमानी तवारीख 'बुरहान-ए-मासिर' के अनुसार हसन बहमन वंश का था इसीलिए, उसका वंश बहमनी कहलाया। वास्तव में हसन अपने को फारस के प्रसिद्ध वीर योद्धा बहमन का वंशज मानता था। हसन भी एक सफल योद्धा था। उसने अपनी मृत्यु (फरवरी १३५८ ई.) से पूर्व अपना राज्य उत्तर में बैन-गंगा से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला लिया था। उसने अपने राज्य को चार सुबों--कुलबर्ग, दौलताबाद, बराड़ और बिदर में बाँट दिया था और शासन का उत्तम प्रबन्ध किया था। 'बुरहान-ए-मासिर' के अनुसार वह इंसाफ पसंद सुल्तान था जिसने इस्लाम के प्रचार के लिए बहुत कार्य किया।

अलाउद्दीन द्वितीय
दक्षिण के बहमनी वंश का दसवाँ सुल्तान। उसने १४३५ से १४५७ ई. तक राज्य किया और अपने पड़ोसी विजयनगर राज्य के राजा देवराय द्वितीय से युद्ध ठानकर उसे सन्धि करने को बाध्य किया। अलाउद्दीन द्वितीय इस्लाम का उत्साही प्रचारक था और अपने सहधर्मी मुसलानों के प्रति कृपालु था। उसने बहुत से मदरसे, मस्जिदें और वक्फ़ कायम किये। उसने अपनी राजधानी बीदर में एक अच्छा शफाखाना बनवाया। उसके शासनकाल में दक्खिनी मुसलमानों, जिन्हें हब्शियों का समर्थन प्राप्त था, और जो ज्यादातर सुन्नी थे, और विलायती मुसलमानों में, जो शिया थे, भयंकर प्रतिद्वन्द्विता पैदा हो गयी, जिसके कारण सुल्तान के समर्थन से बहुत से विलायती मुसलमानों-सैयदों और मुगलों को पुना के निकट चकन के किले में मौत के घाट उतार दिया गया।

अलाउद्दीन ख़िलजी
दिल्ली का सुल्तान (१२९६-१३१६ ई. तक)। वह ख़िलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन ख़िलजी का भतीजा और दामाद था। सुल्तान बनने के पहले उसे इलाहाबाद के निकट कड़ा की जागीर दी गयी थी। तभी उसने बिना सुल्तान को बताये 1295 ई. में दक्षिण पर पहला मुसलमानी हमला किया। उसने देवगिरि के यादववंशी राजा रामचन्द्रदेव पर चढ़ाई बोल दी। रामचन्द्रदेव ने दक्षिण के अन्य हिन्दू राजाओं से सहायता मांगी जो उसे नहीं मिली। अन्त में उसने सोना, चाँदी और जवाहरात देकर अलाउद्दीन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बहुत-सा धन लेकर वह १२९६ ई. में दिल्ली लौटा जहाँ उसने सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी और खुद सुल्तान बन बैठा। उसने सुल्तान जलालुद्दीन के बेटों को भी मौत के घाट उतार दिया और उसके समर्थक अमीरों को घूस देकर चुप कर दिया। इसके बावजूद अलाउद्दीन को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मंगोलों ने उसके राज्य पर बार बार हमले किये और १३९९ ई. में तो वे दिल्ली के नज़दीक तक पहुँच गये। अलाउद्दीन ने उनको हर बार खदेड़ दिया और १३०८ ई. में उनको ऐसा हराया कि उसके बाद उन्होंने हमला करना बन्द कर दिया।
जलालुद्दीन खिलजी के समय में जिन मुगलों ने हमला किया था उनमें से जो मुसलमान बन गये थे उनको दिल्ली के पास के इलाकों में बस जाने दिया गया। उनको नौमुस्लिम कहा जाता था, किन्तु उन्होंने सुल्तान के खिलाफ षड़यंत्र रचा जिसकी जानकारी मिलने पर सुल्तान ने एक दिन में उनका कत्लेआम करा दिया। इसके बाद सुलतान के कुछ रिश्तेदारों ने विद्रोह करने की कोशिश की। उनका भी निर्दयता से दमन करके मौत के घाट उतार दिया गया।
यह माना जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी के गद्दी पर बैठने के बाद दिल्ली की सल्तनत का प्रसार आरम्भ हुआ। उसके गद्दी पर बैठने के साल भर बाद उसके भाई उलूग खाँ और वजीर नसरत खाँ के नेतृत्व में उसकी सेना ने गुजरात के हिन्दू राजा कर्णदेव पर हमला किया। कर्णदेव ने अपनी लड़की देवल देवी के साथ भागकर देवगिरि के यादव राजा रामचन्द्रदेव के दरबार में शरण ली। मुसलमानी सेना गुजरात से बेशुमार दौलत लूटकर लायी। साथ में दो कौदियों को भी लायी। उनमें से एक रानी कमलादेवी थी, जिससे अलाउद्दीन ने विवाह करके उसे अपनी मलका बनाया और दूसरा काफूर नामक गुलाम था जो शीघ्र सुल्तान की निगाह में चढ़ गया। उसको मलिक नायब का पद दिया गया। इसके बाद अलाउद्दीन ने अनेक राज्यों को जीता। रणथम्भौर १३०३ ई. में, मालवा १३०५ ई. में और उसके बाद क्रमिक रीति से उज्जैन, धार, मांडू और चन्देरी को जीत लिया गया। मलिक काफूर और ख्वाजा हाजी के नेतृत्व में मुसलमानी सेना ने पुनः दक्षिण की ओर अभियान किया। १३०७ ई. में देवगिरि को दुबारा जीता गया और १३१० ई. में ओरंगल के काकतीय राज्य को ध्वस्त कर दिया गया। इसके बाद द्वार समुद्र के होमशल राज्य को भी नष्ट कर दिया गया और मुसलमानी राज्य कन्याकुमारी तक दोनों ओर के समुद्र तटों पर पहुँच गया। मुसलमानी सेना १३११ ई. में बहुत-सी लूट की दौलत के साथ दिल्ली लौटी। उस समय उसके पास ६१३ हाथी, २०,००० घोड़े और ९६,००० मन सोना और जवाहरात की अनेक पेटियाँ थीं। इसके पहले दिल्ली का कोई सुल्तान इतना अमीर और शक्तिशाली नहीं हुआ। इन विजयों के बाद अलाउद्दीन हिमालय से कन्याकुमारी तक पूरे हिन्दुस्तान का शासक बन गया।
अलाउद्दीन केवल सैनिक ही नहीं था। वह सम्भवतः पढ़ा-लिखा न था लेकिन उसकी बुद्धि पैनी थी। वह जानता था कि उसका लक्ष्य क्या है और उसे कैसे पा सकता है। मुसलमान इतिहासकार बरनी के अनुसार सुल्तान ने अनुभव किया कि उसके शासन के आरम्भ में कई विद्रोह हुए जिनसे उसके राज्य की शान्ति भंग हो गयी। उसने इन विद्रोहों के चार कारण ढूंढ़ निकाले : (१) सुल्तान का राजकाज में दिलचस्पी न लेना, (२) शराबखोरी, (३) अमीरों के आपसी गठबंधन जिसके कारण वे षड्यंत्र करने लगते थे और (४) बेशुमार धन दौलत जिसके कारण लोगों में घमंड और राजद्रोह पैदा होता था। उसने गुप्तचर संगठन बनाया और सुल्तान की इजाजत बगैर अमीरों में परस्पर शादी-विवाहकी मुमानियत कर दी। शराब पीना, बेचना और बनाना बन्द कर दिया गया। अन्त में उसने सभी निजी सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर लिया। दान और वक्फ़, सभी संपत्ति पर राज्य का अधिकार हो गया। लोगों पर भारी कर लगाये गये और करों को इतनी सख्ती से वसूल किया जाने लगा कि कर वसूलनेवाले अधिकारियों से लोग घृणा करने लगे और उनके साथ कोई अपनी बेटी व्याहना पसंद नहीं करता था। लेकिन अलाउद्दीन का लक्ष्य पूरा हो गया। षड्यंत्र और विद्रोह दबा दिये गये। अलाउद्दीन ने तलवार के बल पर अपना राज्य चलाया। उसने मुसलमानों अथवा मुल्लाओं को प्रशासन में हस्तक्षेप करने से रोक दिया और उसे अपने इच्छानुसार चलाया। उसके पास एक भारी बड़ी सेना थी जिसकी तनख्वाह सरकारी खजाने से दी जाती थी। उसकी सेना के पैदल सिपाही को २३४ रुपये वार्षिक तनख्वाह मिलती थी। अपने दो घोड़े रखने पर उसे ७८ रुपये वार्षिक और दिये जाते थे। सिपाही अपनी छोटी तनख्वाह पर गुजर बसर कर सकें, इसलिए उसने अनाज जैसी आवश्यक वस्तुओं से लेकर ऐश के साधनों-गुलामों और रखैल औरतों के निर्ख भी निशचित कर दिये। सरकार की ओर से निश्चित मूल्यों पर सामान बिकवाने का इन्तजाम किया जाता और किसी की हिम्मत सरकारी हुक्म को तोड़ने की नहीं पड़ती थी।
अलाउद्दीन ने कवियों को आश्रय दिया। अमीर खुसरू और हसन को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह इमारतें बनवाने का भी शौकीन था। उसने अनेक किले और मस्जिदें बनवायीं।
उसका बुढ़ापा दुःख में बीता। १३१२ ई. के बाद उसे कोई सफलता नहीं मिली। उसकी तन्दुरुस्ती खराब हो गयी और उसे जलोदर हो गया। उसकी बुद्धि और निर्णय लेने की क्षमता नष्ट हो गयी। उसे अपनी बीबियों और लड़कों पर भरोसा नहीं रह गया था। मलिक काफूर जिसे उसने गुलाम से सेनापति बनाया, सुल्तान के नाम पर शासन चलाता था। 2 जनवरी १३१६ ई. को अलाउद्दीन की मृत्यु के साथ उसका शासन समाप्त हो गया।

अलाउद्दीन मसूद
गुलाम वंश का सातवाँ सुल्तान (१२४२- ४६ ई.)। वह सुल्तान रुकनुद्दीन का बेटा था, जो सुल्तान इल्तुतमिश (१२११-१२३६ ई.) का दूसरा बेटा और उत्तराधिकारी था। वह सुल्ताना रज़िया (१२३६-१२४० ई.) के गद्दी से हटाये जाने के बाद सुल्तान बना। अलाउद्दीन मसूद अयोग्य शासक था जिसे १२४६ ई. में अमीरों ने तख्‍़त से उतार दिया और नासिरुद्दीन को सुल्तान बनाया।

अलाउद्दीन हुसेनशाह
१४९३ ई. से १५१८ ई. तक बंगाल का सुल्तान। उसने बंगाल में हुसेनशाही वंश की नींव डाली। वह अरब के सैयद वंश का था। बंगाल में वह सफल और लोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ। उसने अपने राज्य में आन्तरिक शांति स्थापित की, राजमहल के रक्षक सैनिकों की शक्ति घटायी, हव्शी सैनिकों को निकाल बाहर किया और अपने राज्य की सीमाएँ उड़ीसा तक बढ़ायीं। उसने बिहार को जौनपुर के शासकों से छीन लिया और कूचबिहार के कामतापुर पर भी कब्जा कर लिया। उसने अपने राज्य में, विषेशरूप से गौड़ में बहुत सी मस्जिदें और खैरातखाने बनवाये। उसने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और अपने राज्य में बहुत से हिन्दुओं को जैसे पुरन्दर खाँ, रूप और सनातन को उच्च पदों पर नियुक्त किया। उसके २४ वर्षके शासन में कहीं विप्लव अथवा विद्रोह नहीं हुआ। उसकी मृत्यु गौड़ में हुई। उसकी प्रजा और उसके पड़ोसी राजा उसका सम्मान करते थे। उसकी मृत्यु के बाद उसका बेटा नसरतशाह गद्दी पर बैठा।

अलार, जनरल
एक फ्रांसीसी, जो नेपोलियन के नेतृत्व में लड़ चुका था। बाद में उसे महाराज रजीतसिंह (१७९८-१८३९ ई.) ने अपनी सिख सेना को संगठित तथा प्रशिक्षित करने के लिए रख लिया।

अली आदिलशाह प्रथम
बीजापुर के आदिलशाही वंश का पांचवां सुल्तान (१५५७-१५८० ई.)। उसने शिया मजहब स्वीकार कर लिया था और सुन्नियों के प्रति असहिष्णु हो गया था। १५५८ ई. में उसने विजय नगर के हिन्दू-राज्य से समझौता करके अहमद नगर पर चढ़ाई की। इन दोनों राज्यों की सम्मिलित सेना ने अहमद नगर को तबाह कर दिया। अहमदनगर के मुसलमानों पर हिन्दुओं ने जो ज्यादतियाँ कीं उनके कारण शीघ्र ही सुल्तान अली आदिलशाह प्रथम और विजयनगर के राम राजा के सम्बन्ध बिगड़ गये। अंत में बीजापुर, अहमद नगर बीदर और गोलकुंडा के चारों मुसलमान सुल्तानों ने मिलकर विजयनगर को तालीकोट के युद्ध (१५६५ ई.) में हरा दिया। विजेता अली आदिल शाह विजय नगर को लूटने और सदा के लिए नष्ट करने में शामिल हो गया। इसके बाद सुल्तान अली आदिलशाह प्रथम ने १५७० ई. में अहमदनगर से समझौता करके भारत के पश्चिमी समुद्र तट से पुर्तगालियों को निकाल बाहर करने के प्रयास में एक बड़ी सेना लेकर गोआ को घेर लिया, लेकिन पुर्तगालियों ने हमला विफल कर दिया। अली आदिलशाह की शादी अहमदनगर की शाहजादी प्रसिद्ध चाँदबीबी से हुई थी जिसने अकबर के आक्रमण के समय अहमदनगर की रक्षा करने में बड़ी वीरता दिखायी। वह अपने पति की मृत्यु के बाद अहमदनगर में आकर रहने लगी थी।

अली आदिलशाह द्वितीय
बीजापुर के आदिलशाही वंश का आठवाँ सुल्तान (१६५६-७३ ई.)। जब वह तख्त पर बैठा उसकी उम्र केवल १८ वर्ष की थी। उसकी छोटी उम्र देखकर मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दक्षिण के सूबेदार अपने पुत्र औरंगजेब को उसपर आक्रमण करने का आदेश दिया। मुगलों ने बीजापुर पर हल्ला बोल दिया और युवा सुल्तान की फौजों को कई जगह पराजित कर उसे १६५७ ई. में राज्य के बीदर, कल्याणी और परेन्दा आदि क्षेत्रों को सौंप सुलह कर लेने के लिए मजबूर किया।
मुगलों से सन्धि करने के बाद सुल्तान अली आदिलशाह द्वितीय ने मराठा नेता शिवाजी का दमन करने का निश्चय किया, जिसने उसके कई किलों पर अधिकार कर लिया था। १६५९ ई. में उसने अफजलखाँ के नेतृत्व में एक बड़ी फौज शिवाजी के खिलाफ भेजी। शिवाजी ने अफजल खाँ को मार डाला और बीजापुर की सेना को पराजित कर दिया। इस प्रकार अली आदिलशाह द्वितीय को शिवाजी का दमन करने अथवा उसकी बढ़ती हुई शक्ति को रोकने में सफलता नहीं मिली और वह मुगल और मराठा शक्तियों के बीच में चक्की के दो पाटों की भाँति दब गया। वह किसी प्रकार १६७३ ई. में अपनी मृत्यु तक अपनी गद्दी बचाये रहा।

अलीगढ़
उत्तर प्रदेश का एक शहर जिसका आधुनिक भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण योग है। अलीगढ़ में एक मजबूत किला था जिसे दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में अंग्रेजों ने १८०३ ई. में मराठों से छीन लिया और इससे दिल्ली को जीतने में उन्हें बड़ी मदद मिली। सन् १८५७ के सिपाही-विद्रोह का यह मुख्य केन्द्र रहा। नगर में मुसलमानों की आबादी अधिक है। १८५७ ई. से यह नगर भारतीय मुसलमानों का सांस्कृतिक केन्द्र बन गया है जब सर सैयद अहमद खाँ के प्रयास से यहाँ एंग्लो-ओरिएंटल कालेज की सथापना की गयी। शीघ्र ही यह कालेज भारतीय मुसलमानों को अंग्रेजी शिक्षा देनेवाला प्रमुख केंद्र बन गया। १६२० ई. में अलीगढ़ कालेज को विश्वविद्यालय बना दिया गया। अलीगढ़ आन्दोलन, जिसका उद्देश्य इस्लाम की उन्नति करना, भारतीय मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा देना, सामाजिक कुरीतियाँ दूर करना और उन्हें १८८५ ई. से आरम्भ होनेवाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रभाव से दूर रखना था, उसका केन्द्रबिन्दु अलीगढ़ ही था। अलीगढ़ कालेज के संस्थापकों और वहाँ से निकले छात्रों के राष्ट्रीयता-विरोधी रवैये से अलीगढ़ प्रतिक्रियावादियों का गढ़ समझा जाने लगा। १९०६ ई. में अलीगढ़ के कुछ स्नातकों ने मुसलमानों की आकांक्षाओं को व्यक्त करने के लिए मुस्लिम लीग की स्थापना की। कुछ वर्षों तक मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिलकर भारत के लिए शासन-सुधार की माँग की, लेकिन अन्त में, वह घोर सांप्रदायिक संस्था बन गयी और उसने पाकिस्तान की माँग की। १९४७ में उसी माँग के आधार पर भारत का विभाजन हो गया।


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