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Bharatiya Itihas Kosh

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अंकोरवट
कम्बोडिया, जिसे पुराने लेखों में कम्बुज कहा गया है और भारतके प्राचीन सम्बन्धों का शानदार स्मारक। यह मंदिर अंकोरथोम नामक नगर में स्थित है जिसे प्राचीन काल में यशोधरपुर कहा जाता था और जो जयवर्मा द्वितीय के शासनकाल (११८१-१३०५ ई.) में कम्बोडिया की राजधानी था। यह अपने समय में संसार के महान् नगरों में गिना जाता था और इसका विशाल भव्य मंदिर अंकोरवट के नाम से आज भी विख्यात है। इसका निर्माण कम्बुज के राजा सूर्यवर्मा द्वितीय ( १०४९-६६ ई.) ने कराया था और यह विष्णु को समर्पित है। यह मंदिर एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है। इसमें तीन खंड हैं जिनमें से प्रत्येक में सुन्दर मूर्तियाँ हैं और प्रत्येक खंड से ऊपर के खंड तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ हैं। प्रत्येक खंड पटी हुई दीर्घिका के रूप में है। मंदिर के चार कोणों में आठ गुम्‍बजें हैं जिनमें से प्रत्येक १८० फुट ऊँची है। मुख्य मंदिर तीसरे खंड की चौड़ी छत पर है। उसका शिखर २१३ फुट ऊँचा है और पूरे क्षेत्र को गरिमा-मंडित किये हुए है। मंदिर के चारों और पत्थर की दीवार का घेरा है जो पूर्व से पश्चिम की और दो-तिहाई मील और उत्तर से दक्षिण की ओर आधे मील लम्बा है। इस दीवारके बाद ७०० फुट चौड़ी खाईं है जिसपर एक स्थान पर ३६ फूट चौड़ा पुल है। इस पुल से पक्‍की सड़क मंदिर के पहले खंड के द्वार तक चली गयी है। इस प्रकार की भव्य इमारत संसार के किसी अन्य स्थानपर नहीं मिलती है। भारत से सम्पर्क के बाद दक्षिण-पूर्वी एशिया में कला, वास्तुकला तथा स्थापत्यकला का जो विकास हुआ, उसका यह मंदिर चरमोत्कृष्ट उदाहरण है। (आर. सी. मजूमदार-कम्‍बुज देश, पृष्ठ १३५-३७)

अंग
पूर्वी बिहार का प्राचीन नाम। इसकी राजधानी गंगा के किनारे आधुनिक भागलपुर नगर के निकट चम्पा थी। ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में यह मगध राज्य में शामिल कर लिया गया, जिसमें उस समय तक पटना, गया और दक्षिणी बिहार के क्षेत्र शामिल थे। बाद में यह क्षेत्र निरन्तर मगध का भाग बना रहा और इसी का नाम बाद में बिहार पड़ा।

अंगद
सिखों के दूसरे गुरु। इनको गुरु नानक (दे.) ने ही इस पद के लिए मनोनीत किया था। नानक इनको अपने शिष्यों में सबसे अधिक मानते थे और अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर उन्होंने अंगद को ही अपना उत्तराधिकारी चुना। गुरु अंगद श्रेष्ठ चरित्रवान् व्यक्ति और सिखों के उच्चकोटि के नेता थे जिन्होंने अनुयायियों का १४ वर्ष (१५३८-५३ ई.) तक नेतृत्व किया।

अंत्तिकिनि
अंत्तिकिनि-एक यवन राजा, जिसका उल्लेख अशोक के शिलालेख (संख्या तेरह) में किया गया है। उसकी पहचान मैसिडोनिया के राजा एंटिगोनस गोंटस (ई. पू. २७७-ई. पू. २३६) से की जाती है।

अंसारी, डाक्टर (१८८०-१९३६ ई.)
अंसारी, डाक्टर (१८८०-१६३६ ई.)-एक प्रमुख मुसलमान राष्ट्रीयतावादी नेता। उनका जन्म बिहार में हुआ, एडिनबरा (ब्रिटेन) से उन्होंने डाक्टरी की पदवी प्राप्त की और दिल्ली में रहकर वे डाक्टरी करने लगे। १९१२-१३ ई. में उन्होंने भारत में एक चिकित्सक दल संगठित करके उसे तुर्की के युद्ध में सहायता कार्य के लिए भेजा। उन्होंने मुस्लिम लीग का संगठन करने में प्रमुख भाग लिया और १९३७ ई. में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा संचालित असहयोग आन्दोलन में भाग लिया तथा १९३० ई. और १९३२ ई. में ब्रिटिश शासन काल में जेल यात्राएँ कीं।

अकबर
मुगलवंश का तीसरा बादशाह, भारत में मुगल साम्राज्य और राजवंश का वास्तविक संस्थापक। अपने पिता हुमायूं की मृत्यु के बाद वह १५५६ ई. में सिंहासन पर बैठा। उस समय उसके अधीन कोई खास इलाका नहीं था। उसी वर्ष पानीपत की दूसरी लड़ाई में उसने हेमू पर विजय पायी जो अफगानों के सूर राजवंश का समर्थक था। अब वह पंजाब, दिल्ली, आगरा और पास-पड़ोस के क्षेत्र का स्वामी बन गया। अगले पाँच वर्षों में अकबर ने इस क्षेत्र में अपने राज्य को मजबूत बनाया और पूर्व में गंगा-यमुना के संगम-इलाहाबाद तक और मध्य भारत में ग्वालियर और राजस्थान में अजमेर तक अपना राज्य फैलाया। अगले २० वर्षों में अकबर ने कश्मीर, सिंध और उड़ीसा को छोड़कर पूरे उत्तर भारत को जीत लिया। १५९२ ई. तक उसने इन तीनों राज्यों को भी अपने राज्य में मिला लिया। इसके पहले १५८१ ई. में उसने अपने छोटे भाई हकीम की बगावत का दमन किया जिसने अपने को काबुल का स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर दिया था और १५८५ में उसकी मृत्यु होने पर काबुल को अपने राज्य में मिला लिया। दस वर्ष बाद उसने कंधार जीत लिया और बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया। उत्तर भारत को जीतने के बाद उसने दक्षिण भारत को जीतने की कोशिश की। १६०० में उसने अहमदनगर पर हमला किया और १६०१ ई. में खान देश के असीरगढ़ को जीता। यह उसके जीवन की अन्तिम विजय थी। चार वर्ष बाद जब उसकी मृत्यु हुई उस समय उसका साम्राज्य पश्चिम में काबुल से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे तक फैला था।
अकबर ने अपने साम्राज्य को १५ सूबों में बाँटा था : (१) काबुल, (२) लाहौर (पंजाब) जिसमें कश्मीर भी शामिल था, (३) मुल्तान-सिंध, (४) दिल्ली, (५) आगरा, (६) अवध, (७) इलाहाबाद, (८) अजमेर, (९) अहमदाबाद, (१०) मालवा, (११) बिहार, (१२) बंगाल-उड़ीसा, (१३) खानदेश, (१४) बरार और (१५) अहमदनगर।
अकबर केवल महान विजेता ही नहीं था वरन् कुशल प्रशासक और साम्राज्य का संस्थापक भी था। उसने ऐसी प्रशासन व्यवस्था की जो उसके पहले के राज्यों की व्यवस्था से उच्चकोटि की थी। उसका राजतंत्र उसके व्यक्तिगत स्वेच्छाचारी शासन और नौकरशाही पर आश्रित था। उसका उद्देश्य बादशाह के व्यक्तिगत अधिकार और राजकोष को बढ़ाना था। बादशाह के हुक्म को उसके मनसबदार पूरा करते थे। मनसबदारों की ३-३ श्रेणियाँ थी, जिनके मनसब १० से लेकर पाँच हजार तक के होते थे। इन मनसबदारों को वेतन नकद दिया जाता था। उनके ऊपर अंकुश रखने के लिए अनेक नियम बनाये गये थे, विशेष रूप से सवारों की फर्जी सूची रखने पर। हर एक सूबे में एक सूबेदार रहता था जिसको नवाब नाजिम भी कहा जाता था। उसे काफी अख्तियार रहते थे। वह भी अपना छोटा दरबार करता था जैसा कि तुर्क व अफगान सुल्तानों के राज में होता था। लेकिन अकबर ने सूबेदारों पर अंकुश लगाया और सूबे के वित्तीय मामलों की देखभाल करने के लिए 'दीवान' नामक नया अधिकारी नियुक्त किया।
राजस्व बढ़ाने के लिए राजा टोडरमल की सहायता से अकबर ने भूमि की नाप जोख और पैमाइश कराकर मालगुजाऱी की नई व्‍यवस्‍था की। रैयत और काश्‍तकारों से लगान की वसूली की सीधी व्यवस्था चलायी गयी। उपज का तिहाई हिस्सा लगान के रूपमें नकद अथवा अनाज के रूप में लिया जाता था और उसकी वसूली सरकारी अफसर करते थे।

अकबर द्वितीय
मुगलवंश का १८वां बादशाह। वह शाह आलम द्वितीय का पुत्र था और उसने १८०६-३७ ई. तक राज किया। उसके समय तक, भारत का अधिकांश राज अंग्रेजों के हाथ में चला गया था और १८०३ ई. में दिल्ली पर भी उनका कब्जा हो गया था। बादशाह शाह आलम द्वितीय (१७६९-१८०६ ई.) अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन यापन करता था। उसका पुत्र बादशह अकबर द्वितीय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कृपा के सहारे नाममात्र का बादशाह था। उससे गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स (१८१३-२३) की ओर से कहा गया कि वह कम्पनी के क्षेत्र पर अपनी बादशाहत का दावा छोड़ दे। लार्ड हेस्टिंग्स ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से मुगल बादशाह को दी जाने वाली नजर बन्द कर दी। उसका लड़का और उत्तराधिकारी बादशाह बहादुरशाह द्वितीय (१८३७-५८ ई.) भारत का अन्तिम मुगल बादशाह था।

अकबर खां
अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद का पुत्र। उसने प्रथम आंग्‍ल-अफगान युद्ध (१८४१-४३ ई.) के दौरान अफगानों को संगठित कर अंग्रेजों के हमले का मुकाबला करने में खास हिस्सा लिया था।

अकबर नामा
बादशाह अकबर के शासनकाल का इतिहास, जिसे अकबर के दोस्त और दरबारी अबुल फ़जल ने लिखा था। यह अकबर के शासनकाल में लिखा गया प्रामाणिक इतिहास है, क्योंकि लेखक को इसकी बहुत सी बातों की निजी जानकारी थी, और सरकारी कागजों तक उसकी पहुँच थी। यद्यपि इसमें अकबर के साथ कुछ पक्षपात किया गया है तथापि तिथियों और भौगोलिक जानकारी के लिए यह विश्वसनीय है।

अकबर, शाहजादा
औरंगजेब और उसकी दिलरस बानो बेगम का पुत्र। वह बादशाह औरंगजेब का तीसरा और प्यारा बेटा था और १६७९ ई. में उसने राजपूतों के विरुद्ध लड़ाई में मुगल सेना का नेतृत्व किया था। जब उसकी सेना चितौड़ में थी, तो राजपूतों ने उसपर अचानक हमला बोलकर उसे हरा दिया। उसके बाद औरंगजेब ने उसका तबादला मारवाड़ कर दिया। शाहजादा अकबर ने इसे अपनी बेइज्जती समझा और सोचा कि मैं स्वयं भी राजपूतों की सहायता से अपने बाप की जगह बादशाह बन सकता हूँ, जैसा कि औरंगजेब ने किया था। राजपूत सरदारों ने भी उसका हौसला बढ़ाया और उसे समझाया कि राजपूतों की मदद से वह हिन्दुस्तान का सच्चा बादशाह बन सकता है। शाहजादा अकबर ने अपने पिता को एक कड़ा पत्र लिखा जिसमें उसने असहिष्णुता की नीति को छोड़ने तथा शासन की दुर्व्यवस्था की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया।
अन्त में ७० हजार सैनिकों के साथ, जिनमें बहुत से राजपूत भी थे, शाहजादा अकबर अजमेर के निकट १५ जनवरी १६८१ ई. को पहुँच गया। उस समय औरंगजेबकी सेना चित्तौड़ और दूसरे स्थानों में बिखरी हुई थी। अकबर ने उस समय हमला कर दिया होता तो बादशाह मुश्किल में पड़ जाता, लेकिन शाहजादे ने ऐयाशी और नाचरंग में समय गवां दिया। इस बीच औरंगजेब को अकबर और उसके राजपूत साथियों में फूट पैदा करने का मौका मिल गया। राजपूतों ने उसका साथ छोड़ दिया। शाहजादा अकबर राजपूताने से दक्षिण की ओर भागा जहाँ उसने शिवाजी के पुत्र शम्भाजी के यहाँ शरण ली। इससे शाहजादा और मराठों के संयुक्त मोर्चे का खतरा पैदा हो गया। औरंगजेब खुद दक्षिण गया। लेकिन इस बीच शाहजादा अकबर ने अपने पिता को हराने की आशा छोड़ दी और वह हिन्दुस्तान छोड़कर फारस चला गया। १६९५ ई. में अकबर ने फारस की सहायता से हिन्दुस्तान पर हमला करने की कोशिश की। पर मुल्तान के पास उसके सबसे बड़े भाई शाहजादा मुअज्जम के नेतृत्व में मुगल सेना ने उसे पराजित कर दिया। इस पराजय के बाद निराश शहजादा अकबर फिर फारस लौट गया, जहाँ १७०४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।


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