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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अगस्त्यार्घ्‍यदान
इस व्रत में अगस्त्य को अर्घ्‍य प्रदान किया जाता है। दे. मत्स्य पुं., अ. 61; अगस्त्योत्पत्ति के लिए दे. ग. पु., भाग 1; 118, 1-6। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अगस्त्य तारा भिन्न-भिन्न कालों में उदय होता है। सूर्य के कन्या राशि में प्रवेश करने से तीन दिन और बीस घटी पूर्व अर्घ्‍य प्रदान किया जाना चाहिए। दे. भोज का राजमार्तण्ड।

अग्नायी
अग्नि की पत्नी का एक नाम, परन्तु यह प्रसिद्ध नही है।

अग्नि
(1) हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य-रूप हैं- (1) व्योम में सूर्य, (2) अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत् और (3) पृथ्वी पर साधारण अग्नि। ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित किये गये हैं। अग्नि के आदिम रूप संसार के प्रायः सभी धर्मों में पाये जाते हैं। वह 'गृहपति' है और परिवार के सभी सदस्यों से उसका स्नेहपूर्ण घनिष्‍ठ सम्बन्ध है (ऋ., 2. 1. 8; 7.15.12; 1.1.8; 4.1.8; 3.1.7)। वह अन्धकार, निशाचर, जादू-टोना, राक्षस, और रोगों को दूर करने वाला है (ऋ., 3.5.1; 1.94.5; 8.43. 32; 10.88.2)। अग्नि का यज्ञीय स्वरूप मानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है। पाचन और शक्ति-निर्माण की कल्पना इसमें निहित है। यज्ञीय अग्नि वेदिका में निवास करता है (ऋ. 1. 140.1)। वह समिधा, घृत और सोम से शक्तिमान होता है (ऋ. 3.5. 10; 1.94. 14); वह मानवों और देवों के बीच मध्यस्थ और सन्देशवाहक है (ऋ. वे. 1. 26.9; 1.94.3; 1. 59.3; 1.59.1; 8.2.1; 1.58.1; 8.2.5; 1.28.4; 3.1.17; 10.2.1; 1.12.4 आदि)। अग्नि की दिव्य उत्पत्ति का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है (ऋ. 3.9.5; 6.8.4)। अग्नि दिव्य पुरोहित है (ऋ., 2.1.2; 1.1.1; 1.94.6)। वह देवताओं का पौरोहित्य करता है। वह यज्ञों का राजा है (राजा त्वम-ध्वराणाम्; ऋ. वे. 3.1.18; 8.11.4; 2.8.3; 8.43.24 आदि)।
नैतिक तत्त्वों से भी अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। अग्नि सर्वदर्शी है। उस्की 100 अथवा 1000 आँखें हैं जिनसे वह मनुष्य के सभी कर्मों को देखता है (ऋ.10. 89.5)। उसके गुप्तचर हैं। वह मनुष्य के गुप्त जीवन को भी जानता है। वह ऋत का संरक्षक है (ऋ. 10. 8.5)। अग्नि पापों को देखता और पापियों को दण्‍ड देता है (ऋ. 4. 3. 5-8 ; 4.5. 4-5)। वह पाप को क्षमा भी करता है (ऋ. 7. 93. 7)।
अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रमणस्पति से भी की गयी है। वह मन्त्र, घी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफी प्रकाश पड़ता है।
जैमिनि ने मीमांसामूत्र के 'हविःप्रक्षेपणाधिकरण' में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं : (1) गार्हपत्य, (2) आहवनीय, (3) दक्षिणाग्नि, (4) सभ्य, (5) आवसर्थ्य और औपासन।
अग्नि' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो 'ऊपर की ओर जाता है' (अगि गतौ, अंगेर्नलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।
अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है- सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए - (1) पावक, (2) पवमान और (3) शुचि। छठे मन्वन्तर में अग्नि की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम 'पावक' है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध है :
अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते। पुंसवने चन्द्रनामा शुङ्गाकर्मणि शोभनः।। सीमन्ते मङ्गलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि। नाग्नि स्‍यात्‍प्रार्थिवो ह्मग्निः प्राश्ने व शुचिस्तथा।। सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भवः। गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्मग्निरुच्यते।। वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजकः स्मृतः। चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।। प्रायश्चिते बिधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहसः। लक्षहोमे तु विह्निः स्यात् कोटिहोमे हुताशनः।। पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा। पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।। वश्यर्थे शमनो नाम वरदानेऽभिदूषकः। कोष्ठे तु जठरो नाम क्रव्‍यादो मृतभक्षणे।। (गोभिलपुत्रकृत संग्रह)
[गर्भाधान में अग्नि को 'मारुत' कहते हैं। पुंसवन में 'चन्द्रमा', शुङ्गाकर्म में 'शोभन', सीमन्त में 'मङ्गल', जात-कर्म में 'प्रगल्भ', नामकरण में 'पार्थिव', अन्नप्राशन में 'शुचि', चूड़ार्म में 'सत्य', 'समुद्भव', गोदान में 'सूर्य', केशान्त (समावर्तन) में 'अग्नि', विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में 'वैश्वानर', विवाह में 'योजक', चतुर्थी में 'शिखी', धृति में 'अग्नि', प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्‍तात्‍मक महाव्याहृति होम) में 'विधु', पाकयज्ञ (अर्थात् पाकाङ्ग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस', लक्षहोम में 'वह्नि', कोटिहोम में 'हुताशन', पूर्णाहुति में 'मृड', शान्ति में 'वरद', पौष्टिक में 'बलद', आभिचारिक में 'क्रोधाग्नि'., वशीकरण में 'शमन', वरदान में 'अभिदूषक', कोष्ठ में 'जठर' और मृत-भक्षण में 'क्रव्याद' कहा गया है।]
अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है :, पिङ्गभ्रूश्मश्रुकेशाक्षः पीनाङ्गजठरोऽरुणः। छागस्थः साक्षमूत्रोऽग्निः सप्ताचिः शक्तिधारकः।। (आदित्यपुराण)
[भौंहें, दाढ़ी, केश और आँखे पीली है, अङ्ग स्थूल है और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ है, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।]
होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं : अर्चिष्मान् पिण्डितशिखः सर्पिःकाञ्चनसन्निभः। स्निग्धः प्रदक्षिणश्चैव वह्निः स्यात् कार्यसिद्धये।। (वायुपुराण.)
[ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है।]
देहजन्‍य अग्नि में शब्द-उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि 'सङ्गीतदर्पण' में कहा है :
आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम्। ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावकः।। पावकप्रेरितः सोऽथ क्रमादूर्ध्वपथे चरन्। अतिसूक्ष्मध्वनिं नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुनः।। पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्ज कृत्रिमं वदने तथा। आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधैः।। नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः। जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते।।
[आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्राणवायु को वह अग्नि प्रेरित करता है। अग्नि के द्वारा प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है। विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है।]
सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के सर्वप्रथम मन्त्र ``अग्निमीले पुरोहितम्`` से प्रकट होता है।
(2) योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी 'अग्नि' का प्रयोग होता है। गीता में कथन है : 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।' 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।'

अग्नितीर्थ
श्री बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से 4-5 सीढ़ी उतरकर शङ्गराचार्य मन्दिर है। इसमें लिङ्गमूर्ति है। उससे 3-4 सीढ़ी नीचे आदि केदार का मन्दिर है। केदारनाथ से नीचे तप्तकुण्ड है। उसे 'अग्नितीर्थ' कहा जाता है।

अग्निदग्ध
अग्नि से जला हुआ। यह संज्ञा उनकी है जो मृतक चिता पर जलाये जाते हैं। साधारणतः शव की विसर्जन क्रिया में मृतकों के दो प्रकार थे, पहला अग्निदग्ध, दूसरा अनग्निदग्ध (जो अग्नि में न जलाया गया हो)। अथर्ववेद दो और प्रकार प्रस्तुत करता है, यथा (1) परोप्त (फेंका हुआ) तथा (2) उद्धृत (लटकाया हुआ)। इनका ठीक अर्थ बोधगम्य नहीं है। जिमर प्रथम का अर्थ उस ईरानी प्रणाली के सदृश बतलाता है, जिसमें शव को पशु-पक्षियों के भोज्यार्थ फेंक दिया जाता था तथा दूसरे के लिए उसका कथन है कि वृद्ध व्यक्ति असहाय होने पर वैसे ही छोड़ दिये जाते थे। किन्तु दूसरे के लिए ह्विटने का मत है कि मृतक को किसी प्रकार के चबूतरे पर छोड़ दिया जाता था।
ऋग्वेद-काल में शव को भूगर्भ में गाड़ने की भी प्रथा थी। एक पूरे मन्त्र में इसकी विधि का वर्णन है। अग्नि-दाह का भी समान रूप से प्रचार था। यह प्रणाली दिनों-दिन बढ़ती ही गयी। छान्दोग्य उपनिषद् में मृतक के शरीर की सजावट के उपादान आमिक्षा (दही), वस्त्र एवं आभूषण को, जो पूर्ववर्ती काल में स्वर्ग प्राप्ति के साधन समझे जाते थे, व्यर्थ बतलाया गया है। वाजसनेयी संहिता में दाह क्रिया के मन्त्रों में केवल अग्निदाह को प्रधानता दी गयी है एवं शव की राख को श्मशान भूमि में गाड़ने को कहा गया है। ऋग्वेद में मृतक शरीर पर घी लेपने एवं मृतक के साथ एक छाग (बकरे) को जलाने का वर्णन है, जो दूसरे लोक का पथप्रदर्शक समझा जाता था। अथर्ववेद में एक बोझ ढोने वाले बैल के जलाने का वर्णन है, जो दूसरे लोक में सवारी के काम आ सके। यह आशा की जाती थी कि मृतक अपने सम्पूर्ण शरीर, सभी अङ्गों से युक्त (सर्वतनुसङ्ग) पुनर्जन्म ग्रहण करेगा, यद्यपि यह भी कहा गया है कि आँख सूर्य में, श्वास पवन में चले जाते हैं। गाड़ने या जलाने के पूर्व शव को नहलाया जाता था तथा पैर में कूड़ी बाँध दी जाती थी ताकि मृतक फिर लौटकर पृथ्वी पर न आ जाय।

अग्निपुराण
विष्णुपुराण में पुराणों की जो सूची पायी जाती है उसमें अग्निपुराण आठवाँ है। अग्नि की महिमा का इसमें विशेष रूप से वर्णन है, और अग्नि ही इसके वक्ता हैं। अतः इसका नाम अग्निपुराण पड़ा। इसमें सब मिलाकर 383 अध्याय हैं। अठारह विद्याओं का इसमें संक्षेप रूप से वर्णन है। रामायण, महाभारत, हरिवंश आदि ग्रन्थों का सार इसमें संगृहीत है। इसमें वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष) तथा उपवेदों (अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा आयुर्वेद) का वर्णन भी पाया जाता है। दर्शनों के विषय भी इसमें विवेचित हुए हैं। काव्यशास्त्र का भी समावेश है। कौमार-व्याकरण, एकाक्षर कोश तथा नामलिङ्गानुशासन भी इसमें समाविष्ट हैं। पुराण के पञ्चलक्षणों (सर्ग, प्रति-सर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित) के अतिरिक्त इसमें विविध सांस्कृतिक विषयों का भी वर्णन है। अतः यह पुराण एक प्रकार का विश्वकोश बन गया है। अन्य पुराणों में इसकी श्लोकसंख्या पन्द्रह सहस्त्र बतायी गयी है और वास्तव में है भी पन्द्रह सहस्र से कुछ अधिक। इस पुराण का दावा है : 'आग्नेये हि पुराणेऽअस्मिन सर्वा विद्याः प्रदर्शिताः' अर्थात् इस अग्निपुराण में समस्त विद्याएँ प्रदर्शित हैं।
अग्निपुराण का एक दूसरा नाम 'विह्नपुराण' भी है। डॉ० हाजरा को इसकी एक प्रति मिली थी। निबन्ध ग्रन्थों में अग्निपुराण के नाम से जो वचन उद्धृत किये गये हैं वे प्रायः सब इसमें पाये जाते हैं, जबकि 'अग्नि पुराण' के नाम से मुद्रित संस्करणों में वे नहीं मिलते। इसलिए कतिपय विद्वान् 'वह्निपुराण' को ही मूल अग्निपुराण मानते हैं। वह्निपुराण नामक संस्करण में शिव की जितनी महिमा गायी गयी है उतनी अग्निपुराण नामक संस्करण में नहीं। इस कारण भी वह्निपुराण प्राचीन माना जाता है।

अग्निवंश्यायन
एक आचार्य, जिनका उल्लेख यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में मिलता है।

अग्निव्रत
इस व्रत में फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को उपवास करना चाहिए। इसमें एक वर्ष तक वासुदेव-पूजा नियमित रूप से करने का विधान है। दें. विष्णुधर्मोत्तर, जिल्द 3, पृ. 143।

अग्निशाला
यज्ञ मण्डप का एक भाग, जिसका अर्थ अथर्ववेद में साधारण गृह का एक भाग, विशेष कर मध्य का बड़ा कक्ष किया गया है। यहाँ अग्निकुण्ड होता था।

अग्निष्टोम
एक विशिष्ट यज्ञ। स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिए। ज्योतिष्टोम यज्ञ का विस्तार अग्निष्टोम है। इसका समय वसन्त ऋतु है। नित्य अग्निहोत्रकर्ता इस यज्ञ के अधिकारी हैं। इसमें सोम मुख्य द्रव्य और इन्द्र, वायु आदि देवता है। 16 ऋत्विजों के चार गण होते हैं - (1) होतृगण, (2) अधवर्युगण, (3) ब्रह्मगण और (4) उद्गातृगण। प्रत्येक गण में चार-चार व्यक्ति होते हैं : होतृगण में (1) होता, (2) प्रशास्ता, (3) अच्छावाक् (4) ग्रावस्तोता। अध्वर्युगण में (1) अध्वर्यु, (2) प्रतिप्रस्थाता, (3) नेष्ठा, (4) उन्नेता। ब्रह्मगण में (1) ब्रह्मा, (2) ब्राह्मणाच्छशी, (3) आग्नीध्र और (4) होता। उद्गातृगण में (1) उद्गाता (2) प्रस्तोता, (3) प्रतिहर्ता और (4) सुब्रह्मण्य। यह यज्ञ पाँच दिनों में समाप्त होता था।
प्रथम दिन दीक्षा, उसके दीक्षणीय आदि अङ्गों का अनुष्ठान; दूसरे दिन प्रायणीय याग और सोमलता का क्रय; तीसरे एवं चौथे दिनों में प्रातः काल और सायं काल में प्रवर्ग्‍थ उपसन्‍न नामक यज्ञ का अनुष्‍ठान और चौथे दिन में प्रवर्ग्‍य उद्वासन के अनन्तर अग्निषोमीय पशुयज्ञ का अनुष्ठान किया जाता था। जिस यजमान के घर में पिता, पितामह और प्रपितामह से किसी ने वेद का अध्ययन नहीं किया अथवा अग्निष्टोम याग भी नहीं किया हो उसे इस यज्ञ में दुब्रार्ह्मण कहा जाता था। जिस यजमान के पिता, पितामह अथवा प्रपितामह में से किसी ने सोमपान नहीं किया हो तो इस दोष के परिहारार्थ ऐन्द्राग्न्य पशुयज्ञ करना चाहिए। तीनों पशुओं को एक साथ मारने के लिए एक ही स्तम्भ में तीनों को बांधना चाहिए ।
चौथे दिन अथवा तीसरी रात्रि के भोर में तीसरे पहर उठकर प्रयोग का आरम्भ करना चाहिए। वहाँ पर पात्रों को फैलाना चाहिए। यज्ञ में ग्रहपात्र वितस्तिमात्र उलूखल के आकार का होना चाहिए। ऊर्ध्वपात्र चमस पात्र परिमिति मात्रा में एवं तिरछे आकार के होने चाहिए। ये चार कोणयुक्त एवं पकड़ने के लिए दण्ड युक्त होने चाहिये। थाली मिट्टी की बनी हुई होनी चाहिए। आरम्भ में सोमलता के डंठलों से रस निकाल कर ग्रह और चमसों के द्वारा होम करना चाहिए। सूर्योदय के पश्चात आग्नेय पशुयाग करना चाहिए। इस प्रकार सामगान करने के अनन्तर प्रातःसवन की समाप्ति होती है। इसके पश्चात् मध्याह्न का सवन होता है, तब दक्षिणा दी जाती है। दक्षिणा में एक सौ बारह गायें होती हैं। फिर तीसरा सवन होता है। इस प्रकार प्रातः सवन, मध्यन्दिन सवन, तृतीय (सायं) सवन रूप सवनत्रयात्मक अग्निष्टोम नामक प्रधान याग करना चाहिए।
दूसरे यज्ञ इसके अङ्ग हैं। तृतीय सवन की समाप्ति के पश्चात् अवभृथ नामक याग होता है। जल में वरुण देवता के लिए पुरोडाश का होम किया जाता है। इसके पश्चात् अनुबन्ध्य नामक पशुयज्ञ किया जाता है। वहाँ गाय को ही पशु माना जाता है। किन्तु कलियुग में गोबलि का निषेध होने के कारण यज्ञ के नाम से गाय को छोड़ दिया जाता है। इसके अनन्तर उदयनीय और उदवसनीय (41) कार्य किये जाते हैं। इन्हें पाँचवें दिन पूरी रात्रि तक करना चाहिए। इनके समाप्त होने पर अग्निष्टोम याग की भी समाप्ति हो जाती है।


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