भक्तिमार्ग के सिद्धान्तानुसार भक्त उसे कहते हैं जिसने ईश्वर के भजन में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया हो। साधारण आत्माओं को चार भागों में विभक्त किया गया है : (1) बद्ध, जो इस जीवन की समस्याओं से बँधा है। (2) मुमुक्ष्रु, जिसमें मुक्ति की चेतना जागृत हो, किन्तु उसके योग्य अभी नहीं है। (3) अथवा केवली, जो मात्र ईश्वर की ही उपासना में लीन हो, पवित्र हृदय का हो और जो भक्ति गुण के कारण मुक्ति के मार्ग पर चल रहा हो और (4) मुक्त, जो भगवत्-पद को प्राप्त कर चुका हो।
भकत
(1) संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश, जो अशिक्षित ग्रामीण जनों में धार्मिक उपासक के लिए प्रयुक्त होता है। यथा असम प्रदेश के गृहस्थ वैष्णवों का सम्बन्ध किसी न किसी देवस्थान से होता है, जिसके गुसाई उनको धर्मशिक्षा दिया करते हैं। इन गुसाँइयों को 'भकत' कहते हैं। 'भकत' लोग यदा-कदा शिष्यों के घर जाते हैं तथा उनसे कुछ दक्षिणा या दण्ड वसूल करते हैं। यही इस सम्प्रदाय की जीविका होती है। (2) दुसाध नामक निम्न श्रेणी की जाति उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में पायी जाती है। ये लोग राहु की पूजा करते हैं तथा वर्ष में एक बार राहु की प्रसन्नता के लिए यज्ञ करते हैं। राहुपूजा बीमारियों से मुक्ति या किसी मनोरथ की सिद्धि के लिए की जाती है। इस यज्ञ के पुरोहित को 'भकत' कहते हैं, जो उनकी जाति का ही होता है। उसे 'चतिया' भी कहते हैं।
भकतसेवा
असम प्रदेश के वैष्णवों में महात्मा हरिदास को उनके अनुयायी कृष्ण का अवतार मानते हैं, किन्तु इसके साथ ही वे अन्य महात्मा शंकरदेव को भी विष्णु का अवतार मानते हैं। उनमें 'भकतसेवा' की प्रथा है जिसके अनुसार ब्राह्मण अपने यजमानों अथवा शिष्यों से सब प्रकार का दान ग्रहण करते हैं।
भक्तमाल
विष्णुभक्तों का चरित्र वर्णन करने वाले भाषा ग्रन्थों में भक्तमाल (वैष्णवभक्तों की माला) महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक रचना है। यह साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं है। चारों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं की महान् विभूतियों के जीवन की झाँकियाँ इसमें उदारतापूर्वक प्रस्तुत हुई हैं। इसके रचयिता संत नारायणदास उपनाम नाभाजी स्वयं रामानन्दी वैष्णव थे। ये जयपुर के तीर्थस्थल गलताजी के महात्मा कवि अग्रदासजी के शिष्य थे और उन्हीं की आज्ञा से इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी। नाभाजी उस समय हुए थे, जब तुलसीदास जीवित थे, प्रायः 1585 तथा 1623 ई० के मध्य।
भक्तमाल व्रजभाषा के छप्पय छन्दों में रचित है, किन्तु बिना भाष्य के यह समझा नहीं जा सकता। इस पर लगभग एक सौ तिलक (टीका) ग्रन्थ हैं। इनमे गौडीय संत प्रियादासजी की पद्य टीका एवं अयोध्या के महात्मा रूपकलाजी की टीका प्रसिद्ध है। भक्तमाल में दो सौ भक्तों का चमत्कारपूर्ण जीवनचरित्र 316 छप्पय छन्दों में वर्णित है। भक्तों का पूरा जीवनवृत्त इसमें नहीं दिया गया है, केवल उतना ही अंश है, जिससे भक्ति की महिमा प्रकट हो।
भक्तलीलामृत
भक्तिविषयक मराठी ग्रन्थों में महीपति द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके ग्रन्थों में से 'भक्तलीलामृत' की रचना 1774 ई० में हुई, जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है। यह 'भक्तमाल' के ढंग की ही रचना है।
भक्तविजय
महीपतिरचित मराठी भाषा का भक्तिविषयक ग्रन्थ। रचनाकाल 1762 ई० है।
भक्ति
भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ सेवा करना या भजना है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्टदेव के प्रति आसक्ति। नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है; इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है। देवों के रूपदर्शन, उनकी स्तुति के गायन, उनके साहचर्य के लिए उत्सुकता, उनके प्रति समर्पण आदि में आनन्द का अनुभव--ये सभी उपादान वेदों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। ऋग्वेद के विष्णुसूक्त और वरुणसूक्त में भक्ति के मूल तत्त्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। वैष्णवभक्ति की गंगोत्तरी विष्णुसक्त ही है। ब्राह्मण साहित्य में कर्मकाण्ड के प्रसार के कारण भक्ति का स्वर कुछ मन्द पड़ जाता है, किन्तु उपनिषदों में उपासना की प्रधानता से निर्गुण भक्ति और कहीं-कहीं प्रतिकोपासना पुनः जागृत हो उठती है। छान्दोग्योपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद् आदि में विष्णु, शिव, रुद्र, अच्युत, नारायण, सूर्य आदि की भक्ति और उपासना के पर्याप्त संकेत पाये जाते हैं।
वैदिक भक्ति की पयस्विनी महाभारत काल तक आते-आते विस्तृत होने लगी। वैष्णव भक्ति की भागवतधारा का विकास इसी काल में हुआ। यादवों की सात्वत शाखा में प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म का उत्कर्ष हुआ। सात्वतों ने ही मथुरा-वृन्दावन से लेकर मध्य भारत, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक होते हुए तमिल (द्रविड़) प्रदेश तक प्रवृत्तिमूलक, रागात्मक भागवत धर्म का प्रचार किया। अभी तक वैष्णव अथवा शैव भक्ति के उपास्य देवगण अथवा परमेश्वर ही थे। महाभारत काल में वैष्णव भागवत धर्म को एक ऐतिहासिक उपास्य का आधार कृष्ण वासुदेव के व्यक्तित्व में मिला। कृष्ण विष्णु के अवतार माने गये और धीरे-धीरे ब्रह्म से उनका तादात्म्य हो गया। इस प्रकार नर देहधारी विष्णु की भक्ति जनसाधारण के लिए सुलभ हो गयी। इससे पूर्व यह धर्म ऐकान्तिक, नारायणीय, सात्वत आदि नामों से पुकारा जाता था। कृष्णवासुदेव भक्ति के उदय के पश्चात् यह भागवत धर्म कहलाने लगा। भागवत धर्म के इस रूप के उदय का काल लगभग 1400 ई० पू० है। तब से लेकर लगभग छठीसातवीं शताब्दी तक यह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। बीच में शैव-शाक्त सम्प्रदायों तथा शाङ्कर वेदान्त के प्रचार से भागवत धर्म का प्रचार कुछ मन्द पड़ गया। परन्तु पूर्व-मध्य युग में इसका पुनरुत्थान हुआ। भागवत धर्म का नवोदित रूप इसका प्रमाण है। रामानुज, मध्व आदि ने भागवत धर्म को और पल्लवित किया और आगे चलकर एकनाथ, रामानन्द, चैतन्य, वल्लभाचार्य आदि ने भक्तिमार्ग का जनसामान्य तक व्यापक प्रसार किया। मध्ययुग में सभी प्रदेशों के सन्त और भक्त कवियों ने भक्ति के सार्वजनिक प्रचार में प्रभूत योग दिया।
मध्ययुग में भागवत भक्ति के चार प्रमुख सम्प्रदाय प्रवर्तित हुए--(1) श्रीसम्प्रदाय (रामानुजाचार्य द्वारा प्रचलित) (2) ब्रह्मसम्प्रदाय (मध्वाचार्य द्वारा प्रचलित) (3) रुद्रसम्प्रदाय (विष्णु स्वामी द्वारा प्रचलित) और (4) सनकादिकसम्प्रदाय (निम्बार्काचार्य द्वारा स्थापित)। इन सभी सम्प्रदायों ने अद्वैतवाद, मायावाद तथा कर्मसंन्यास का खण्डन कर भगवान् की सगुण उपासना का प्रचार किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि इस रागात्मिका भक्ति के प्रवर्तक सभी आचार्य सुदूर दक्षिण देश में ही प्रकट हुए। मध्ययुगीन भक्ति की उत्पत्ति और विकास का इतिहास भागवत पुराण के माहात्म्य में इस प्रकार दिया हुआ है :
उत्पन्न द्रविडे साहं वृद्धि कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचिन् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता।। तत्र घोरकलेर्योगात् पाखण्डै: खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्।। वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्।। (1.48-50)
[मैं वही (जो मूलतः यादवों की एक शाखा के वंशज सात्वतों द्वारा लायी गयी थी) द्रविड़ प्रदेश में (रागात्मक भक्ति के रूप में) उत्पन्न हुई। कर्नाटक में बड़ी हुई। महाराष्ट्र में कुछ-कुछ (पोषण) हुआ। गुजरात में बृद्धा हो गयी। वहाँ घोर कलियुग (म्लेच्छ-आक्रमण) के सम्पर्क से पाखण्डों द्वारा खण्डित अङ्गवाली मैं दुर्बल होकर बहुत दिनों तक पुत्रों (ज्ञान-वैराग्य) के साथ मन्दता को प्राप्त हो गयी। फिर वृन्दावन (कृष्ण की लीलाभूमि) पहुँचकर सम्प्रति नवीना, सुरूपिणी, युवती और सम्यक् प्रकार से सुन्दर हो गयी हूँ।] इसमें सन्देह नहीं कि मध्ययुगीन रागात्मिका भक्ति का उदय तमिल प्रदेश में हुआ। परन्तु उसके पूर्ण संस्कृत रूप का विकास भागवत धर्म के मूल स्थल वृन्दावन में ही हुआ, जिसको दक्षिण के कई सन्त आचार्यों ने अपनी उपासनाभूमि बनाया।
भागवत धर्म के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं : सृष्टि के उत्पादक एक मात्र भगवान् हैं। इनके अनेक नाम हैं, जिनमें विष्णु, नारायण, वासुदेव, जनार्दन आदि मुख्य हैं। वे अपनी योगमाया प्रकृति से समस्त जगत की उत्पत्ति करते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, शिव आदि अन्य देवता प्रादुर्भूत होते हैं। जीवात्मा उन्हीं का अंश है, जिसको भगवान् का सायुज्य अथवा तादात्म्य होने पर पूर्णता प्राप्त होता है। समय-समय पर जब संसार पर संकट आता है तब भगवान् अवतार धारण कर उसे दूर करते हैं। उनके दस प्रमुख अवतार हैं जिनमें राम और कृष्ण प्रधान हैं। महाभारत में भगवान् के चतुर्व्यूह की कल्पना का विकास हुआ। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, और अनिरुद्ध चार तत्त्व चतुर्व्यूह हैं, जिनकी उपासना भक्त क्रमशः करता है। वह अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण और वासुदेव में क्रमशः उत्तरोत्तर लीन होता है, परन्तु वासुदेव नहीं बनता; उन्हीं का अंश होने के नाते उनके सायुज्य में सुख मानता है। निष्काम कर्म से चित्त की शुद्धि और उससे भाव की शुद्धि होती है। भक्ति ही एक मात्र मोक्ष का साधन है। भगवान् के सम्मुख पूर्ण प्रपत्ति ही मोक्ष है।
भागवत उपासनापद्धति का प्रथम उल्लेख ब्रह्मसूत्र के शाङ्कर भाष्य (2.42) में पाया जाता है। इसके अनुसार अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग से उपासना करते हुए भक्त भगवान् को प्राप्त करता है। 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति बतलायी गयी है-- (1) स्मरण (2) कीर्तन (3) वन्दन (4) पादसेवन (5) अर्चन और (6) आत्मनिवेदन। भागवत पुराण (7.5.23-24) में नवधा भक्ति का वर्णन है। उपर्युक्त छः में तीन-- श्रवण, दास्य और सख्य और जोड़ दिये गये हैं। पाञ्चरात्र संहिताओं के अनुसार सम्पूर्ण भागवतधर्म चार खण्डों में विभक्त है : (1) ज्ञानपाद (दर्शन और धर्मविज्ञान) (2) योगपाद (यौगसिद्धान्त और अभ्यास) (3) क्रियापाद (मन्दिर निर्माण और मूर्तिस्थापना) (4) चर्यापाद (धार्मिक क्रियाएँ)।
भक्ति के ऊपर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। इस पर सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है श्रीमदभागवत पुराण। इसके अतिरिक्त महाभारत का शान्तिपर्व, भगवद्गीता, पाञ्चरात्रसंहिता, सात्वतसंहिता, शाण्डिल्यसूत्र, नारदीय भक्तिसूत्र, नारपञ्चरात्र, हरिवंश, पद्मसंहिता, विष्णुतत्त्व संहिता; रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, वल्लभाचार्य आदि के ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।
भक्तिमार्ग
सगुण-साकार रूप में भगवान् का भजन-पूजन करना। मोक्ष के तीन साधन हैं; ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग। इन मार्गों में भगवद्गीता भक्तिमार्ग को सर्वोत्तम कहती है। इसका सरल अर्थ यह है कि सच्चे हृदय से संपादित भगवान् की भक्ति पुनर्जन्म से उसी प्रकार मोक्ष दिलाती है, जैसे दार्शनिक ज्ञान एवं निष्कामयोग दिलाते हैं। गीता (12.6-7) में श्रीकृष्ण का कथन है : `मुझ पर आश्रित होकर जो लोग सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अपर्ण करते हुए मुझ परमेश्वर को ही अनन्य भाव के साथ ध्यानयोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, मुझमें चित्त लगाने वाले ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-सागर से उद्धार कर देता हूँ।`
बहुत से अनन्य प्रेमी भक्तिमार्गी शुष्क मोक्ष चाहते ही नहीं। वे भक्ति करते रहने को मोक्ष से बढ़कर मानते हैं। उनके अनुसार परम मोक्ष के समान परा भक्ति स्वयं फलरूपा है, वह किसी दूसरे फल का साधन नहीं करती है।
भक्तिरत्नाकर
अठारहवीं शती के प्रारम्भ में नरहरि चक्रवर्ती ने चैतन्य सम्प्रदाय का इतिहास लिखा था, जिसका नाम भक्तिरत्नाकर है।