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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

व्यञ्जन वर्णों के अन्तर्गत कवर्ग का द्वितीय अक्षर। वर्णाभिधानतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है:
ख: प्रचण्डः कामरूपी शुद्धिर्वह्निः सरस्वती। आकाश इन्द्रियं दुर्गा चण्डी सन्तापिनी गुरुः।। शिखण्डी दन्तों जातीशः कफोणिर्गरुडो गदी। शून्यं कपाली कल्याणी सूर्पकर्णोऽजरामरः।। शुभाग्नेयश्चण्डलिंगे जनो झंकारखड्गकौ।।
वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है :
बन्धूकपुष्पसंकाशां रत्नालङ्कारभूषिताम्। वराभयकरी नित्यां ईषद्हास्यमुखी पराम्। एवं ध्यात्वा खस्वरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत्।।
मातृकान्यास में यह अक्षर बाहु में स्थापित किया जाता है।
ख के अर्थ हैं इन्द्रिय, शून्य, आकाश, सूर्य, परमात्मा।

खखोल्क
काशीपुरी में स्थित एक सूर्य देवता। इनका माहात्म्य काशीखण्ड में वर्णित है।
काशीवासिजनानेकरूपपापक्षयंकरः........................। विनतादित्य इत्याख्यः खखोल्कस्तत्र संस्थितः.। काश्यां पैलंगिले तीर्थे खखोल्कस्य विलोकनात्। नरश्चिन्तितमाप्नोति नीरोगो जायते क्षणात्।।
कहते हैं कि नागमाता कद्रू और गरुडमाता विनता (दोनों सौतें) लड़ती हुई सूर्य की ओर गयीं तो कद्रू ने घबड़ाहट में सूर्य को उल्का समझा और 'ख, ख, उल्का' ऐसा कह दिया। विनता ने इसी को सूर्य का नाम मानकर प्रतिष्ठित कर दिया।

खगासन
खग= गरुड है आसन जिसका, विष्णु। विष्णु का आसन गरुड कैसे हुआ, इसका वर्णन महाभारत (1.33.12-18) में पाया जाता है:
तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम्। स वव्रे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरीक्षगः।। उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः। अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम्।। एवमस्तिवति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम्। प्रतिगृह्य वरौ तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत्।। भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपिं। तं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्।। ध्वजञ्च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम्। एवमत्सिवति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः। वव्राज तरसा वेगाद् वायुं स्पर्द्धन् महाजवः।।
[भगवान् (विष्णु) ने आकाश में उड़ने वाले गरुड़ से कहा, मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। आकाशगामी गरुड़ ने वर माँगते हुए कहा, आपके ऊपर मैं बैठूँ। उसने फिर नारायण से यह वचन कहा, अमृत के विना मैं अजर और अमर हो जाऊँ। विष्णु ने गरुड़ से कहा, ऐसा ही हो। उन दोनों वरों को ग्रहण कर गरुड़ ने विष्णु से कहा, मैं आपको वर देना चाहूँगा, वरण कीजिए। विष्णु ने कहा, मैं तुम्हें वाहनरूप में ग्रहण करता हूँ। उन्होंने ध्वज बनाया और कहा, तुम इसके ऊपर स्थित होगे। गरुड़ ने भगवान् नारायण से कहा, ऐसा होगा। इसके पश्चात् अत्यन्त गति वाला गरुड़ वायु से स्पर्द्धा करता हुआ अत्यन्त वेग से प्रस्थान कर गया।] दे० 'विष्णु' और 'गरुड़'।

खगेन्द्र
खग (पक्षियों) का इन्द्र (राजा), गरुड़। महाभारत (1.31.31) में कथन है :
पतत्रिणाञ्च गरुड़ इन्द्रत्वेनाभ्यषिच्यत।'
[गरुड़ का पक्षियों के इन्द्र के रूप में अभिषेक हुआ।] दे० 'गरुड़'।

खजुराहो (खर्जूरवाह)
यह स्नान मध्य प्रदेश में छतरपुर के पास स्थित है। प्राचीन काल में चन्देल राजाओं की यहाँ राजधानी थी। अपने समय में यह तीर्थस्थल था। आर्य शैली (नागर शैली) के मन्दिरों में भारतीय वास्तुकला का सुन्दरतम विकास खजुराहो के मन्दिरों में पाया जाता है। इनका निर्माण चन्देल राजाओं के संरक्षण में 950 ई० से 1050 ई० के मध्य हुआ, जो संख्या में लगभग 30 हैं तथा वैष्णव, शैव और जैन मतों से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक मन्दिर लगभग एक वर्गमील के क्षेत्रफल में स्थित है। कन्दरीय महादेव का मन्दिर इस समुदाय में सर्वश्रेष्ठ है। मन्दिरों में गर्भगृह, मण्डप, अर्द्धमण्डप, अन्तराल एवं महामण्डप पाये जाते हैं। गर्भगृह के चतुर्दिक् प्रदक्षिणापथ भी है। वैष्णव तथा शैव मन्दिरों की बाहरी दीवारों पर मिथुन मूर्तियों का अङ्कन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो शिव-शक्ति के ऐक्य अथवा शिव-शक्ति के योग से सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक है। यहाँ पर चौंसठ योगिनियों का एक मन्दिर भी था जो अब भग्नावस्था में है।
अध्यात्म उपदेश सम्बन्धी संस्कृत नाटक 'प्रबोधचन्द्रोदय' की रचना कृष्णमिश्र नामक एक ज्ञानी पंडित द्वारा यहीं पर 1065 ईं० में सम्पन्न हुई, जो कीर्तिवर्मा नामक चन्देल राजा की सभा में अभिनीत हुआ था। इस नाटक से तत्कालीन धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों पर प्रकाश पड़ता है। दे० 'प्रबोधचन्द्रोदय' तथा 'कृष्णमिश्र'।

खट्वाङ्ग
शिव का विशेष शस्त्र। इसकी आकृति खट्वा (चारपाई) के अङ्ग (पाये) के समान होती थी। यह दुर्लङ्गय और अमोघ होत है। महिम्नस्तोत्र में वर्णन है :
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुजिनं भस्म फणिनः। कपालं चेतीयत्त्व वरद तन्त्रोपकरणम्।
[बूढ़ा बैल, खाट का पाया, फरसा, चमड़ा, राख, साँप और खोपड़ी---वरदाता प्रभु की यही साधनसामग्री है।]
एक इक्ष्वाकुवंशज राजर्षि, जो मृत्यु सन्निकट जानकर केवल घड़ी भर ध्यान करते हुए मोक्ष पा गये।

खङ्गधाराव्रत
दे० असिधाराव्रत, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.218.23-25।

खङ्गसप्तमी
वैशाख शुक्ल सप्तमी को गङ्गासप्तमी कहते हैं। इस व्रत में गंगापूजन होता है। कहा जाता है कि जह्नु ऋषि क्रोध में आकर गङ्गाजी को पी गये थे तथा इसी दिन उन्होंने अपने दाहिने कान से गङ्गाजी को बाहर निकाला था।

खण्डदेव
प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान्। पूर्वमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों में खण्डदेव (मृत्युकाल 1665 ई०) द्वारा रचित 'भट्टदीपिका' का बहुत सम्मानित स्थान है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण इसकी तार्किकता है। यह ग्रन्थ कुमारिल भट्ट के सिद्धान्तों का पोषक है।

खदिर
यज्ञोपयोगी पवित्र वृक्ष। इसका यज्ञयूप (यज्ञस्तम्भ) बनता है। इसकी शाखाओं में छोटे-छोटे चने जैसे काँटे भरे रहते हैं और लकड़ी दृढ़ होती है। इसमें से कत्था भी निकलता है।


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