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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

व्यञ्जनों के कवर्ग का तृतीय वर्ण। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है :
गकारं परमेशानि पञ्चदेवात्मकं सदा। निर्गुण त्रिगुणोपेतं निरीहं निर्मलं सदा।। पञ्चप्राणमयं वर्णं सर्वशक्त्यात्मकं प्रिये।। अरुणादित्यसंकाशां कुण्डलीं प्रणमाम्यहम्।।
[ हे परमेश्वरी देवी! ग वर्ण सदा पञ्चदेवात्मक है। तीन गुणों से संयुक्त होते हुए भी सदा निर्गुण, निरीह और निर्मल है। यह वर्ण पञ्च प्राणों से युक्त और सभी शक्तियों से संपन्न है। लालवर्ण सूर्य के समान शोभा वाले कुण्डलिनीशक्ति स्वरूप इस वर्ण को प्रणाम करता हूँ।]
वर्णोद्धारतन्त्र के अनुसार इसके ध्यान की विधि इस प्रकार है :
ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व वरवर्णिनी। दाडिमीपुष्पसंकाशां चतुर्बाहुसमन्विताम्।। रक्ताम्बरधरां नित्यां रत्नालङ्कारभूषिताम्। एवं ध्यात्वा ब्रह्मरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत्।।
तन्त्रों में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते हैं :
गो-गौरी गौरवो गङ्गा गणेशो गोकुलेश्वरः। शार्ङ्गी पञ्चात्मको गाथा गन्धर्मवः सर्वगः स्मृतिः।। सर्वसिद्धिः प्रभा धूम्रा द्विजाख्यः शिवदर्शनः। विश्वात्मा गौः पृथग्‍ग्‍रूप बालबन्धुस्त्रिलोचनः।। गीतं सरस्वती विद्या भोगिनी नन्दिनी धरा। भोगवती च हृदयं ज्ञानं जालन्धरी लवः।।

गङ्गा
भारत की सर्वाधिक पवित्र पुण्यसलिला नदी। राजा भगीरथ तपस्या करके गङ्गा को पृथ्वी पर लाये थे। यह कथा भागवत पुराण में विस्तार से है। आदित्य पुराण के अनुसार पृथ्वी पर गङ्गावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से गङ्गानिर्गमन ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (गङ्गादशहरा) को हुआ था। इसको दशहरा इसलिए कहते हैं कि इस दिन का गङ्गास्नान दस पापों को हरता है। कई प्रमुख तीर्थस्थान-हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, सोरों, प्रयाग, काशी आदि इसी के तट पर स्थित हैं। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10.75.5-6) के अनुसार गङ्गा भारत की कई प्रसिद्ध नदियों में से सर्वप्रथम है। महाभारत तथा पद्मपुराणादि में गङ्गा की महिमा तथा पवित्र करनेवाली शक्तियों की विस्तारपूर्वक प्रशंसा की गयी है। स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (अध्याय 29) में इसके सहस्र नामों का उल्लेख है। इसके भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों रूपों की ओर विद्वानों ने संकेत किये हैं। अतः गङ्गा का भौतिक रूपों की ओर विद्वानों ने संकेत किये हैं। अतः गङ्गा का भौतिक रूप के साथ एक पारमार्थिक रूप भी है। वनपर्व के अनुसार यद्यपि कुरुक्षेत्र में स्नान करके मनुष्य पुण्य को प्राप्त कर सकता है, पर कनखल और प्रयाग के स्नान में अपेक्षाकृत अधिक विशेषता है। प्रयाग के स्नान को सबसे अधिक पवित्र माना गया है। यदि कोई व्यक्ति सैकड़ों पाप करके भी गङ्गा (प्रयाग) में स्नान कर ले तो उसके सभी पाप धुल जाते हैं। इसमें स्नान करने या इसका जल पीने से पूर्वजों की सातवीं पीढ़ी तक पवित्र हो जाती है। गङ्गाजल मनुष्य की अस्थियों को जितनी ही देर तक स्पर्श करता है उसे उतनी ही अधिक स्वर्ग में प्रसन्नता या प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। जिन-जिन स्थानों से होकर गङ्गा बहती है उन स्थानों को इससे संबद्ध होने के कारण पूर्ण पवित्र माना गया है।
गीता (10.31) में भगवान् कृष्ण ने अपने को नदियों में गङ्गा कहा है। मनुस्मृति (8.92) में गङ्गा और कुरुक्षेत्र को सबसे अधिक पवित्र स्थान माना गया है। कुछ पुराणों में गङ्गा की तीन धाराओं का उल्लेख है--- स्वर्गङ्गा (मन्दाकिनी), भूगङ्गा (भागीरथी) और पातालगङ्गा (भोगवती)। पुराणों में भगवान् विष्णु के बायें चरण के अँगूठे के नख से गङ्गा का जन्म और भगवान् शङ्कर की जटाओं में उसका विलयन बताया गया है।
विष्णुपुराण (2.8.120-121) में लिखा है कि गङ्गा का नाम लेने, सुनने, उसे देखने, उसका जल पीने, स्पर्श करने, उसमें स्नान करने तथा सौ योजन से भी 'गङ्गा' नाम का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के तीन जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। भविष्यपुराण (पृष्ठ 9, 12 तथा 198) में भी यही कहा है। मत्स्य, गरुड और पद्मपुराणों के अनुसार हरिद्वार, प्रयाग और गङ्गा के समुद्र संगम में स्नान करने से मनुष्य मरने पर स्वर्ग पहुँच जाता है और फिर कभी उत्पन्न नहीं होता। उसे निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। मनुष्य गङ्गा के महत्त्व को मानता हो या न मानता हो यदि वह गङ्गा के समीप लाया जाय और वहीं मृत्यु को प्राप्त हो तो भी वह स्वर्ग को जाता है और नरक नहीं देखता। वराहपुराण (अध्याय 82) में गङ्गा के नाम को 'गाम् गता' (जो पृथ्वी को चली गयी है) के रूप में विवेचित किया गया है।
पद्मपुराण (सृष्टिखँड, 60.35) के अनुसार गङ्गा सभी प्रकार के पतितों का उद्धार कर देती है। कहा जाता है कि गङ्गा में स्नान करते समय व्यक्ति को गङ्गा के सभी नामों का उच्चारण करना चाहिए। उसे जल तथा मिट्टी लेकर गङ्गा से याचना करनी चाहिए कि आप मेरे पापों को दूर कर तीनों लोकों का उत्तम मार्ग प्रशस्त करें। बुद्धिमान् व्यक्ति हाथ में दर्भ लेकर पितरों की सन्तुष्टि के लिए गङ्गा से प्रार्थना करे। इसके बाद उसे श्रद्धा के साथ सूर्य भगवान् को कमल के फूल तथा अक्षत इत्यादि समपर्ण करना चाहिए। उसे यह भी कहना चाहिए कि वे उसके दोषों को दूर करें।
काशीखण्ड (27.80) में कहा गया है कि जो लोग गङ्गा के तट पर खड़े होकर दूसरे तीर्थों की प्रशंसा करते हैं और अपने मन में उच्च विचार नहीं रखते, वे नरक में जाते हैं। काशीखण्ड (27.129-131) में यह भी कहा गया है कि शुक्ल प्रतिपदा को गङ्गास्नान नित्यस्नान से सौगुना, संक्रान्ति का स्नान सहस्रगुना, चन्द्र-सूर्यग्रहण का स्नान लाखगुना लाभदायक है। चन्द्रग्रहण सोमवार को तथा सूर्यग्रहण रविवार को पड़ने पर उस दिन का गङ्गास्नान असंख्यगुना पुण्यकारक है।
भविष्यपुराण में गङ्गा के निम्नांकित रूप का ध्यान करने का विधान है :
सितरमकरनिषण्णां शुक्लवर्णां त्रिनेत्राम् करधृतकमलोद्यत्सूत्पलाऽभीत्यभीष्टाम्। विधिहरिहररूपां सेन्दुकोटीरचूडाम्, कलितसितदुकूलां जाह्नवीं तां नमामि।।
गङ्गा के स्मरण और दर्शन का बहुत बड़ा फल बतलाया गया है :
दृष्टा तु हरते पापं स्पृष्टा तु त्रिदिवं नयेत्। प्रसङ्गेनापि या गङ्गा मोक्षदा त्ववगाहिता।।

गङ्गाजयन्ती
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गङ्गाजयन्ती मनायी जाती है। इस तिथि को गङ्गाशहरा भी कहते हैं। इस दिन गङ्गास्नान का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसी दिन हिमालय से गङ्गा का निर्गमन हुआ था। इस तिथि का गङ्गास्नान दसों प्रकार के पापों का हरण करता है। दस पापों में तीन मानसिक, तीन वाचिक और चार कायिक हैं।

गङ्गादास सेन
महाभारत ग्रन्थ को उड़िया भाषा में अनूदित करने वालों में गङ्गादास सेन भी एक हैं। उत्कल प्रदेश में इनका महाभारत बहुत लोकप्रिय है।

गङ्गाधर
शिव का एक पर्याय। शिवजी गङ्गा को अपने सिर पर धारण करते हैं, इसलिए इनका यह नाम पड़ा। वाल्मीकि रामायण (1.43.1-11) में शिव द्वारा गङ्गा धारण की कथा दी हुई है।

गङ्गाधर (भाष्यकार)
कात्यायनसूत्र (यजुर्वेदीय) के भाष्यकारों में गङ्गाधर का भी नाम उल्लेखनीय है।

गङ्गाधर (कवि)
ऐतिहासिक गया अभिलेख के रचयिता, जिनका समय 1137 ई० है। गङ्गाधर नामक गीतगोविन्दकार जयदेव के प्रतिस्पर्धी एक कवि भी थे।

गङ्गासागर
वह तीर्थ, जहाँ गङ्गा नदी सागर में मिलती है (गङ्गा और सागर का संगम)। सभी संगम पवित्र माने जाते हैं, यह संगम औरों से विशेष पवित्र है।
यात्री कलकत्ता से प्रायः जहाज द्वारा गंगासागर जाते हैं। कलकत्ता से 38 मील दक्षिण 'डायमण्ड हारबर' है, वहाँ से लगभग 90 मील गंगासागर के लिए नाव या जहाज द्वारा जाना होता है। द्वीप में थोड़े से साधु रहते हैं, वह अब वन से ढका तथा प्रायः जनहीन है। जहाँ गंगासागर का मेला होता है, वहाँ से उत्तर वामनखल स्थान में एक प्राचीन मन्दिर है। उसके पास चन्दनपीड़ि वन में एक जीर्ण मन्दिर और बुड-बुडीर तट पर विशालाक्षी का मन्दिर है। इस समय गङ्गासागर का मेला जहाँ लगता है पहले वहाँ पूरी गङ्गा समुद्र में मिलती थी। अब सागरद्वीप के पास एक छोटी धारा समुद्र में मिलती है। यहाँ कपिल मुनि का आश्रम था, जिनके शाप से राजा सगर के साठ हजार पुत्र जल गये थे और जिनको तारने के लिए भगीरथ गङ्गा को यहाँ लाये। संक्रान्ति के दिन समुद्र की प्रार्थना की जाती है, प्रसाद चढ़ाया जाता है और स्नान किया जाता है। दोपहर को फिर स्नान तथा मुण्डन कर्म होता है। श्राद्ध, पिण्डदान भी किया जाता है। मीठे जल का कच्चा सरोवर है जिसका जल पीकर लोग अपने को पवित्र मानते हैं।

गङ्गेश उपाध्याय
न्यायादर्शन के एक नवीन शैली प्रवर्तक आचार्य। इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्त्वचिन्तामणि' त्रयोदश शताब्दी में रचा गया था। ये मिथिला के निवासी थे। जब मैथिलों ने नवद्वीप विद्यापीठ के पक्षधर पण्डित को उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि नहीं करने दी, तब उन्होंने सुनकर ही उसे पूरा कण्ठस्थ कर लिया और नवद्वीप के प्रकाण्ड विद्वान् जगदीश तर्कालंकार, मथुरानाथ भट्टाचार्य आदि को पढ़ाकर नव्य न्याय का दिगन्त में प्रसार किया।

गङ्गोत्तरी
गङ्गाजी का उद्गम तो हिममण्डित गोमुख तीर्थ से हुआ है, किन्तु गंगोत्तरी धाम उससे 18 मील नीचे है। गंगोत्तरी में स्नान के पश्चात् गंगाजी का पूजन करके गंगाजल लेकर यात्री नीचे उतरते हैं। यह स्थान समुद्रस्तर से 10, 020 फुट की ऊँचाई पर गंगा के दक्षिण तट पर है। आस-पास देवदारु तथा चीड़ के वन हैं। यहाँ मुख्य मन्दिर गङ्गाजी का है। शीत काल में यह स्थान हिमाच्छादित हो जाता है। गङ्गोत्तरी से नीचे केदारगंगा का संगम है। वहाँ से एक फर्लांग पर बड़ी ऊँचाई से गंगाजी शिवाकार गोल शिलाखण्ड के ऊपर गिरती हैं। इस स्थान को गौरीकुण्ड कहते हैं।


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