स्वर वर्ण का चतुर्दश अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य इस प्रकार दिया हुआ है :
रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम्। अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये।। पञ्चप्राणमयं वर्णं सदाशिवमयं सदा। सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम्।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं : औकारः शक्तिको नादस्तेजसो वामजङ्घकः। मनुरर्द्धग्रहेशश्च शङ्कुकर्णः सदाशिवः।। अधोदन्तश्च कण्ठ्योष्ठ्यौ सङ्कर्षणः सरस्वती। आज्ञा चोर्ध्वमुखी शान्तो व्यापिनी प्रकृतः पयः।। अनन्ता ज्वालिनी व्योमा चतुर्दशी रतिप्रियः। नेत्रमात्मकर्षिणी च ज्वाला मालिनिका भृगुः।।
औघड़
प्राचीन पाशुपत सम्प्रदाय प्रायः लुप्त हो गया है। उसके कुछ विकृत अनुयायी अघोरी अवश्य देखे जाते हैं। वे पुराने कापालिक हैं एवं गोरख और कबीर के प्रभाव से परिवर्तित रूप में दीख पड़ते हैं।
तान्त्रिक एवं कापालिक भावों का मिश्रण इनकी चर्या में देखा जाता है, अतः ये किसी बन्धन या नियम से अवघटित--अघंटित (नहीं गढ़े हुए) मस्त, फक्कड़ पड़े रहते हैं, इसी से ये औघड़ कहलाते हैं। दे० 'अघोर पंथ'।
औडुलोमि
एक पुरातन वेदान्ताचार्य। वेदान्ती दार्शनिक आत्मा एवं ब्रह्म के सम्बन्ध की प्रायः तीन प्रकार से व्याख्या करते हैं। आश्मरथ्य के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से भिन्न है न अभिन्न। इनके सिद्धान्त को भेदाभेदवाद कहते हैं। दूसरे विचारक औडुलोमि हैं। इनका कथन है कि आत्मा ब्रह्म से तब तक भिन्न है, जब तक यह मोक्ष पाकर ब्रह्म में मिल नहीं जाता। इनके सिद्धान्त को सत्यभेद या द्वैत सिद्धान्त कहते हैं। तीसरे विचारक काशकृत्स्न हैं। इनके उनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल अभिन्न है। इनका सिद्धान्त अद्वैतवाद है।
आचार्य औङुलोमि का नाम केवल वेदान्तसूत्र (1.4.21; 3.4.45; 4.4.6) में ही मिलता है, मीमांसासूत्र में नहीं मिलता। ये भी बादरायण के पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं। ये वेदान्त के आचार्य और आत्मा-ब्रह्म भेदवाद के समर्थक थे।
औद्गात्रसारसंग्रह
सामवेदी विधियों का संग्रहरूप एक निबन्धग्रन्थ है। सामवेद का अन्य श्रौतसूत्र 'द्राह्यायण' है। 'लाट्यायन श्रौतसूत्र' से इसका बहुत थोड़ा भेद है। यह सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है। मध्वस्वामी ने इसका भाष्य लिखा है तथा रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'औद्गात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध में उस भाष्य का संस्कार किया है।
और्ध्वदेहिक
शरीर त्याग के बाद आत्मा की सद्गति के लिए किया हुआ कर्म। मृत शरीर के लिए उस दिन प्रदत्त दान और संस्कार का नाम भी यही है। जिस दिन व्यक्ति मरा हो उस दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व तक प्रेत की तृप्ति के लिए जो पिण्ड आदि दिया जाता है, वह सब और्ध्वदेहिक कहलता है। दे० 'अन्त्येष्टि'। मनु (11.10) में कहा गया है :
[अपने आश्रित रहने वालों को कष्ट देकर जो मृतात्मा के लिए दान आदि देता है वह दान जीवन में तथा मरने के पश्चात् भी दुःखकारक होता है।]
और्णनाभ
ऋग्वेद (10.120.6) में दनु के सात पुत्र दानवों के नाम आते हैं। ये अनावृष्टि (सूखा) के दानव हैं और सूखे मौसम में आकाश की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें वृत्र आकाशीय जल को अवरुद्ध करने वाला है जो सारे आकाश में छाया रहता है। दूसरा शुश्न है जो सस्य को नष्ट करता है। यह वर्षा (मानसून) के पहले पड़ने वाली प्रचंड गर्मी का प्रतिनिधि है। तीसरा और्णनाभ (मकड़ी का पुत्र) है। कदाचित् इसका ऐसा नाम इसलिए पड़ा कि सूखे मौसम में आकाश का दृश्य फैले हुए ऊन या मकड़े जैसा हो जाता है।
औरस
अपने अंश से धर्मपत्नी के द्वारा उत्पन्न सन्तान। याज्ञवल्क्य के अनुसार :