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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

व्यञ्जनवर्ण के कवर्ग का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका प्रतीकात्मक रहस्य निम्नलिखित बतलाया गया है :
अधुना संप्रवक्ष्यामि ककारतत्त्वमुत्तमम्। रहस्यं परमाश्चर्यं त्रैलोक्यानाञ्च संश्रृणु।। वामरेखा भवेद् ब्रह्मा विष्णुर्दक्षिणरेखिका। अधोरेखा भवेद् रुद्रो मात्रा साक्षात्सरस्वती।। कुण्डली अंकुशाकारा मध्ये शून्यः सदाशिवः। जवायावकसंकाशा वामरेखा वरानने।। शरच्चन्द्रप्रतीकाशा दक्षरेखा चं मूर्तिमान्। अधोरेखा वरारोहे महामरकतद्युतिः।। शङ्खकुन्दसमा कीर्तिर्मात्रा साक्षात् सरस्वती। कुण्डली अङ्कुशा या तु कोटिविद्युल्लताकृतिः।। कोटिचन्द्रप्रतीकाशो मध्ये शून्यः सदाशिवः। शून्यगर्भे स्थिता काली कैवल्यपददायिनी।। ककाराज्जायते सर्वं कामं कैवल्यमेव च। अर्थश्च जायते देवि तथा धर्मश्च नान्यथा।। ककारः सर्ववर्णानां मूलप्रकृतिरेव च। ककारः कामदा कामरूपिणी स्फुरदव्यया।। कमनीया महेशानि स्वयं प्रकृति सुन्दरी। माता सा सर्वदेवानां कैवल्य पददायिनी।। ऊर्ध्वकोणे स्थिता कामा ब्रह्मशक्तिरितीरिता। वामकोणे स्थिता ज्येष्ठा विष्णुशक्तिरितीरिता।। दक्षकोणे स्थिता बिन्दु रौद्री संहाररूपिणी। ज्ञानात्मा स तु चार्व्वङ्गि कलाचतुष्टयात्मकः।। इच्छाशक्तिर्भवेद् ब्रह्मा विष्णुश्च ज्ञानशक्तिमान्। क्रियाशक्तिर्भवेद् रुद्रः सर्वप्रकृतिमूर्तिमान्।। आत्मविद्या शिवस्तत्र सदा मन्त्रः प्रतिष्ठितः। आसनं त्रिपुरादेव्याः ककारं पञ्चदैवतम्।। ईश्वरो यस्तु देवेशि त्रिकोणे तस्य संस्थितिः। त्रिकोणमेतत् कथितं योनिमण्डलमुत्तमम्।। केवलं प्रपदे यस्याः कामिनी सा प्रकीर्तिता। जवायावकसिन्दूर सदृशीं कामिनीं पराम्।। चतुर्भुजां त्रिनेत्राञ्च बाहुवल्ली विराजिताम्। कदम् कोरकाकारस्तनद्वय विभूषिताम्।।
तन्त्रिक क्रियाओं में इस अक्षर का बड़ा उपयोग होता है।

कक्षीवान्
ऋचाओं के द्रष्टा एक ऋषि। ऋग्वेद (1.18,1;51,13; 112,16; 116,7; 117,6; 126,3; 4.26,1; 8.9,10; 9.74, 8; 10.25,10; 61,16)में अनेकों बार कक्षीवान् ऋषि का नाम उद्धृत है। वे उशिज नामक दासी के पुत्र और परिवार से 'पज्र' थे, क्योंकि उनकी एक उपाधि पज्रिय (ऋ०वे० 1.116,7; 117,6) है। ऋग्वेद (1.126) में उन्होंने सिंधुतट पर निवास करने वाले स्वनय भाव्य नामक राजकुमार की प्रशंसा की है, जिसने उनको सुन्दर दान दिया था। वृद्धावस्था में उन्होंने वृचया नामक कुमारी की पत्नी रूप में प्राप्त किया। वे दीर्घजीवी थे। ऋग्वेद (4. 26,1) में पुराकथित कुत्स एवं उशना के साथ इनका नाम आता है। परवर्ती साहित्य में इन्हें आचार्य माना गया है।
इनका नाम ऋग्वेद के कतिपय सूक्तों के संकलनकार नौ ऋषियों की तालिका में आता है। ये नौ ऋषि हैं-- सव्य नोधस, पराशर, गोतम, कुत्स, कक्षीवान्, परुच्छेप, दीर्घतमा एवं अगस्त्य। ये पूर्ववर्त्ती छः ऋषियों से या उनके कुलों से भिन्न हैं।

कङ्कतीय
शतपथ ब्राह्मण में उद्धृत एक परिवार का नाम, जिसने शाण्डिल्य से 'अग्निचयन' सीखा था। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में 'कङ्कतिब्राह्मण' ग्रन्थ का उद्धरण है। बौधायनश्रौतसूत्र में उद्धृत छागलेयब्राह्मण एवं कङ्कतिब्राह्मण सम्भवतः एक ही ग्रन्थ के दो नाम हैं।

कंस
पुराणों के अनुसार यह अन्धक-वृष्णि संघ के गणमुख्य उग्रसेन का पुत्र था। इसमें स्वच्छन्द शासकीय या अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ जागृत हुई और पिता को अपदस्थ करके यह स्वयं राजा बन बैठा। इसकी बहिन देवकी और बहनोई वसुदेव थे। इनको भी इसने कारागार में डाल दिया। यहीं पर इनसे कृष्ण का जन्म हुआ अतः कृष्ण के साथ उसका विरोध स्वाभाविक था। कृष्ण ने उसका वध कर दिया। अपनी निरंकुश प्रवृत्तियों के कारण कंस का चित्रण राक्षस के रूप में हुआ है।

कच्छ
शीघ्र गति और सन्नद्धता के लिए पहना गया जाँघिया, जो सिक्खों के लिए आवश्यक है। गुरु गोविन्दसिंह ने मुगल साम्राज्य से युद्ध करने के लिए एक शक्तिशाली सेना बनायी। अपने सैनिकों पर पूर्णरूप से धार्मिक प्रभाव डालने के लिए उन्होंने अपने हाथ से उन्हें 'खड्ग दी पहुल' तलवार का धर्म दिया तथा उनसे बहुत सी प्रतिज्ञाएँ करायीं। इन प्रतिज्ञाओं में 'क' से प्रारम्भ होने वाले पाँच पहनावों का ग्रहण करना भी था। कच्छ (कच्छा) उन पाँचों में से एक है। पाँच पहनावे हैं-- कच्छ, कड़ा, कृपाण, केश एवं कंघा।

कज्जली
भाद्र कृष्ण तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विष्णुपूजा का विधान है। निर्णयसिन्धु के अनुसार यह मध्य देश (बनारस, प्रयाग आदि) में अत्‍यन्त प्रसिद्ध है।

कठरुद्रोपनिषद्
उत्तरकालीन एक उपनिषद्। जैसा कि नाम से प्रकट है, यह कठशाखा तथा रुद्र देवता से सम्बद्ध उपनिषद् है। इसमें रुद्र की महिमा तथा आराधाना बतलायी गयी है।

कठश्रुति उपनिषद्
यह संन्यासमार्गीय एक उपनिषद् है। इसका रचनाकाल मैत्रायणी उपनिषद् के लगभग है।

कठोपनिषद्
कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा के अन्तर्गत यह उपनिषद् है। इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं। इसके विषय का प्रारम्भ उद्दालकपुत्र वाजश्रवस ऋषि के विश्वजित् यज्ञ के साथ होता है। इसमें नचिकेता की प्रसिद्ध कथा है, जिसमें श्रेय और प्रेय का विवेचन किया गया है। नचिकेता ने यमराज से तीन वर माँगे थे, जिनमें तीसरा ब्रह्मज्ञान का वर था। यमराज द्वारा नचिकेता के प्रति वर्णित ब्रह्मविद्या का उपदेश इसका प्रतिपाद्य मुख्य विषय है।

कण्टकोद्धार
आचार्य रामानुज (विक्रमाब्द प्रायः 1194) ने अपने मत की पुष्टि, प्रचार एवं शाङ्करमत के खण्डन के लिए अनेकों ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से 'कण्टकोद्धार' भी एक है। इसमें अद्वैतमत का निराकरण करके विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया गया है।


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