व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का तृतीय अक्षर। इसके स्वरूप का वर्णन कामधेनुतन्त्र में निम्नांकित है :
डकारं चञ्चलापाङ्गि सदा त्रिगुण संयुतम्। पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा।। त्रिशक्ति सहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा। चतुर्ज्ञानमयं वर्ण आत्मादितत्त्व संयुतम्।। पीतविद्युल्लताकारं डकारं प्रणमाम्यहम्।। तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम पाये जाते हैं :
भगवान् शिव का वाद्य मूल नाद (स्वर) का प्रतीक। यह 'आनद्ध' वर्ग का वाद्य है, जिसे कापालिक भी धारण करते हैं। 'सारसुन्दरी' (द्वितीय परिच्छेद) के अनुसार यह मध्य में क्षीण तथा दो गुटिकाओं पर आलम्बित होता है (क्षीणमध्यो गुटिकाद्वयालम्बितः)। सुप्रसिद्ध पाणिनीय व्याकरण के आरम्भिक चतुर्दश सूत्र शंकर के चौदह बार किये गये डमरुवादन से ही निकले माने जाते हैं। भगवान् की कृपा से पाणिनि मुनि को वह ध्वनि व्यक्त अक्षरों के रूप में सुनाई पड़ी थी।
डाकिनी
काली माता की गण-देवियाँ। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृति खण्ड) में कथन है :
सार्द्धञ्च डाकिनीनाञ्च विकटानां त्रिकोटिभिः।'
डाकिनी का शाब्दिक अर्थ है 'ड= भय उत्पन्न करने के लिए, अकिनी= वक्र गति से चलती है।'
डामर
भगवान् शिव द्वारा प्रणीत शास्त्रों में एक डामर (तन्त्र) भी है। इसका शाब्दिक अर्थ हैं `चमत्कार।` इसमें भूतों के चमत्कार का वर्णन है। काशीखण्ड (29.70) में इसका उल्लेख है : `डामरो डामरकल्पो नवाक्षरदेवीमन्त्रस्य प्रतिपादकों ग्रन्थः।` [दुर्गा देवी के नौ अक्षर वाले मन्त्र का रहस्यविस्तारक ग्रन्थ डामर कहलाता है।] वाराहीतन्त्र में इसकी टीका मिलती है। इसके अनुसार डामर छः प्रकार का है :
(1) योग डामर, (2) शिव डामर, (3) दुर्गा डामर (4) सारस्वत डामर (5) ब्रह्म डामर और (6) गन्धर्व डामर।
कोटचक्र विशेष का नाम भी डामर है। 'समयामृत' ग्रन्थ में आठ प्रकार के कोटचक्रों का वर्णन हैं, जिनमें डामर भी एक है। दे० 'चक्र'।