एक जलचर प्राणी, जो स्थापत्य एवं मूर्तिकला में श्रृंगारोपादान माना गया है। यजुर्वेद संहिता (तै० 5.5,13,1; मैत्रा० 3.14,16; वाज० 24.36) में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ के बलिपशुओं की सूची में मकर भी उल्लिखित है। मकर गङ्गा का वाहन है---यह अत्यन्त कामुक प्राणी है, इसलिए कामदेव की ध्वजा पर काम के प्रतीक रूप में इसका अङ्कन होता है और कामदेव का विरुद 'मकरध्वज' है।
मकरसंक्रान्ति
धार्मिक अनुष्ठानों एवं त्योहारों में मकरसंक्रान्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण पर्व है। 70 वर्ष पहले यह 12 या 13 जनवरी को होती थी किन्तु अब कुछ वर्षों से 13 या 14 जनवरी को होने लगी है। संक्रान्ति का अर्थ है एक राशि से उसकी अग्रिम राशि में सूर्य का प्रवेश। इस प्रकार जब धनु राशि से सूर्य मकर में प्रवेश करता है तो मकरसक्रान्ति होती है। इस प्रकार 12 राशियों की 12 संक्रान्तियाँ हैं। ये सभी पवित्र मानी गयी हैं। मकरसंक्रान्ति से उत्तरायण आरम्भ होने के कारण इस संक्रान्ति का पुण्यफल विशेष माना गया है।
मत्स्यपुराण के अनुसार संक्रान्ति के पहले दिन दोपहर को केवल एक बार भोजन करना चाहिए। संक्रान्ति के दिन दाँतों को शुद्धकर तिलमिश्रित जल में स्नान करना चाहिए। फिर पवित्र एवं संयमी ब्राह्मण को तीन पात्र (भोजनीय पदार्थों से भरकर) तथा एक गौ यम, रुद्र एवं धर्म के निमित्त दान करना चाहिए। धनवान् व्यक्ति को वस्त्र, आभूषण, स्वर्णघट आदि भी देना चाहिए। निर्धन को केवल फल-दान करना चाहिए। तदनन्तर औरों को भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए।
इस पर्व पर गङ्गा स्नान का बड़ा माहात्म्य है। संक्रान्ति पर देवों तथा पितरों को दिये हुए दान को भगवान् सूर्य दाता को अनेक भावी जन्मों में लौटाते रहते हैं।
स्कन्दपुराण मकरसंक्रान्ति पर तिलदान एवं गोदान को अधिक महत्त्व प्रदान करता है।
मकुट आगम
यह एक रौद्रिक आगम है।
मख
ऋग्वेद के सन्दर्भों में (9.101,13) मख व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में प्रयुक्त है, किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि वह कौन व्यक्ति था। सम्भवतः यह किसी दैत्य का बोधक है। अन्य संहिताओं में भी मखाध्यक्ष के रूप में यह उद्धृत है। इस का अर्थ ब्राह्मणों में भी स्पष्ट नहीं है (शत० ब्रा० 14.1,2,17)। परवर्त्ती साहित्य में मख यज्ञ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता रहा है।
मग
विष्णुपुराण (भाग 2.4,69-70) के अनुसार शाकद्वीपी ब्राह्मणों का उपनाम। पूर्वकाल में सीथिया या ईरान के पुरोहित 'मगी' कहलाते थे। भविष्यपुराण के ब्राह्पर्व में कथित है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब, जो कुष्ठरोग से ग्रस्त थे, सूर्य की उपासना से स्वस्थ हुए थे। कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उन्होंने मुलतान में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। नारद के परामर्श से उन्होंने शकद्वीप की यात्री की तथा वहाँ से सूर्यमन्दिर में पूजा करने के लिए वे मग पुरोहित ले आये। तदनन्तर यह नियम बनाया गया कि सूर्यप्रतिमा की स्थापना एवं पूजा मग पुरोहितों द्वारा ही होनी चाहिए। इस प्रकार प्रकट है कि मग शाकद्वीपी और सूर्योपासक ब्राह्मण थे। उन्हीं के द्वारा भारत में सूर्यदेव की मूर्तिपूजा का प्रचार बढ़ा। इनकी मूल भूमि के सम्बन्ध में दे० 'मगध'।
मगध
ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः मगध में बसनेवाली आर्यशाखा मग थी। इसीलिए इस जनपद का नाम 'मगध' (मगों को धारण करनेवाला प्रदेश) पड़ा। इन्हीं की शाखा ईरान में गयी और वहाँ से शकों के साथ पुनः भारत वापस आयी। यदि मग मूलतः विदेशी होते तो भारत का पूर्वदिशा स्थित प्रदेश उनके नाम पर अति प्राचीन काल से मगध नहीं कहलाता।
यह एक जाति का नाम है, जिसको वैदिक साहित्य में नगण्य महत्त्व प्राप्त है। अथर्ववेद (4.22,14) में यह उद्धृत है, जहाँ ज्वर को गन्धार, मूजवन्त (उत्तरी जातियों) तथा अङ्ग और मगध (पूर्वी जातियों) में भेजा गया है। यजुर्वेदीय पुरुषमेध की तालिका में अतिक्रुष्ट (हल्ला करने वाली) जातियों में मगध भी है।
मगध को व्रात्यों (पतितों) का देश भी कहा गया है। स्मृतियों में 'मागध' का अर्थ मगध का वासी नहीं बल्कि वैश्य (पिता) तथा क्षत्रिय (माता) की सन्तान को मागध कहा गया है। ऋग्वेद में मगध देश के प्रति जो घृणा का भाव पाया जाता है वह सम्भवतः मगधों का प्राचीन रूप कीकट होने के कारण है। ओल्डेनवर्ग का मत है कि मगध देश में ब्राह्मधर्म का प्रभाव नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में भी यही कहा गया है कि कोसल और विदेह में ब्राह्मणधर्म मान्य नहीं था तथा मगध में इनसे भी कम मान्य था। वेबर ने उपर्युक्त घृणा के दो कारण बतलाये हैं; (1) मगध में आदिवासियों के रक्त की अधिकता (2) बौद्धधर्म का प्रचार। दूसरा कारण यजुर्वेद या अथर्ववेद के काल में असम्भव जान पड़ता है, क्योंकि उस समय में बौद्ध धर्म प्रचलित नहीं था। इस प्रकार ओल्डेनवर्ग का मत ही मान्य ठहरता है कि वहाँ ब्राह्मणधर्म अपूर्ण रूप में प्रचलित था।
यह संभव जान पड़ता है कि कृष्णपुत्र साम्ब के समय में अथवा तत्पश्चात् आने वाले कुछ मग ईरान अथवा पार्थिया से भारत में आये हों। परन्तु मगध को अत्यन्त प्राचीन काल में यह नाम देने वाले मग जन ईरान से नहीं आये थे, वे तो प्राचीन भारत के जनों में से थे। लगता है कि उनकी एक बड़ी संख्या किसी ऐतिहासिक कारण से ईरान और पश्चिमी एशिया में पहुँची, परन्तु वहाँ भी उसका मूल भारतीय नाम मग 'मगी' के रूप में सुरक्षित रहा। आज भी गया के आस-पास मग ब्राह्मणों का जमाव है, जहाँ शकों का प्रभाव नहीं के बराबर था।
मङ्गल
(1) 'आथर्वण परिशिष्ट' द्वारा निर्दिष्ट तथा हेमाद्रि, 2.626 द्वारा उद्धृत आठ मांगलिक वस्तुएँ, यथा ब्राह्मण, गौ, अग्नि, सर्षप, शुद्ध नवनीत, शमी वृक्ष, अक्षत तथा यव। महा०, द्रोणपर्व (82.20-22) में माङ्गलिक वस्तुओं की लम्बी सूची प्रस्तुत की गयी है। वायुपुराण (14.36--37) में कतिपय माङ्गलिक वस्तुओं का परिगणन किया गया है, जिनका यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व स्पर्श करने का विधान है--यथा दूर्वा, शुद्ध नवनीत दधि, जलपूर्ण कलश, सवत्सा गौ, वृषभ, सुवर्ण, मृत्तिका, गाय का गोबर, स्वास्तिक, अष्ट धान्य, तैल, मधु, ब्राह्मण कन्याएँ, श्वेत पुष्प, शमी वृक्ष, अग्नि, सूर्यमण्डल, चन्दन तथा पीपल वृक्ष।
(2) मङ्गल एक ग्रह का नाम है। तत्सम्बन्धी व्रत के लिए दे० 'भौमव्रत'।
मङ्गलचण्डिकापूजा
वर्षकृत्यकौमुदी (552.558) में इस व्रत की विस्तृत विधि प्रस्तुत की गयी है। मङ्गल चण्डिका' को ललितकान्ता भी कहा जाता है। उसकी पूजा का मन्त्र (ललितगायत्री) है :
अष्टमी तथा नवमी को देवी का पूजन होना चाहिए। वस्त्र के टुकड़े अथवा कलश पर पूजा की जाती है। जो मङ्गलवार को इसकी पूजा करता है उसकी समस्त मनोवाच्छाएँ पूरी होती हैं।
मङ्गलचण्डी
मङ्गलवार के दिन चण्डी का पूजन होना चाहिए, क्योंकि सर्वप्रथम शिवजी ने और मङ्गल ने इनकी पूजा की थी। सुन्दरी नारियाँ मङ्गलवार को सर्वप्रथम इनकी पूजा करती हैं बाद में सौभाग्येच्छु सर्व साधारण चण्डी का पूजन करते हैं।