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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

सगुणोपासना
ब्रह्म के दो रूप हैं---निर्गुण और सगुण। निर्गुण अव्यक्त और केवल ज्ञानगम्य है। सगुण गुणों से संयुक्त होने के कारण सुगम और इन्द्रियगोचर है। श्रीमद्भगवद्गीता में यह प्रश्न किया गया है कि दोनों रूपों में से किसकी उपासना सरल है। उत्तर में कहा गया है कि निर्गुण अथवा अव्यक्त की उपासना क्लिष्ट (कठिन) है। सगुण की उपासना सरल है। सगुण उपासना में पहले प्रतीकों--प्रणव आदि की उपासना और आगे चलकर अवतारों की उपासना प्रचलित हुई। गीता में कहा गया है कि वृष्णिलोगों में वासुदेव (कृष्ण) और रुद्रों में शङ्कर (शिव) 'मैं' हूँ। इस प्रकार वैष्णव और शैव सम्प्रदायों और उनके अनेक उपसम्प्रदायों में सगुणोपासना का प्रचार हुआ।

सगोत्र
एक ही गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति। अमरकोश में सगोत्र, बान्धव, ज्ञाति, बन्धु और स्वजन को समान बतलाया गया है। किन्तु इनमें तारतम्य है।

सङ्कर
भिन्न वर्ण के माता-पिता से उत्पन्न सन्तान। हिन्दू समाज मुख्यतः चार वर्णों में विभक्त है। विवाहसम्बन्ध प्रायः सवर्णों में ही होता आया है। कभी-कभी अनुलोम के अनुसार संतति पिता के वर्ण की मानी जाती थी। परन्तु आगे चलकर वर्णान्तर विवाह वर्जित और निषिद्ध होने लगे। इस प्रकार के विवाहों से उत्पन्न संतति मिश्र (संङ्कर) और निन्दनीय मानी जाने लगी। मनुस्मृति में वर्णसङ्कर जातियों का विस्तार से वर्णन पाया जाता है। दे० 'वर्ण'।

सङ्कर्षण
पाञ्चरात्र वैष्णव मत के अनुसार पाँच के व्यूह में से दूसरे व्यक्ति। व्यूह के सिद्धान्त के अनुसार वासुदेव से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध और अनिरुद्ध से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। वासुदेव परमतत्त्व (ब्रह्म) हैं। संकर्षण प्रकृति अथवा महत् है। यहीं से सृष्टि में क्रियात्मक कर्षण प्रारम्भ होता है।
पाञ्चरात्र वैष्णव देवमण्डल में वासुदेव कृष्ण के साथ संकर्षण (बलराम) भी पूजा के देवता हैं। दे० 'पाञ्चरात्र'।

सङ्कल्प
किसी कर्म के लिए मन में निश्चय करना। भाव अथवा विधि में 'मेरे द्वारा यह कर्त्तव्य हैं' और निषेध में मेरे द्वारा यह अकर्तव्य है, ऐसा ज्ञानविशेष संकल्प कहा जाता है। कोई भी कर्म, विशेष कर धार्मिक कर्म, बिना संकल्प के नहीं करना चाहिए। भविष्य पुराण का कथन है :
संकल्पेन बिना राजन् यत्किञ्चित् कुरुते नरः। पलञ्चाल्पाल्पकं तस्य धर्मस्यार्द्धक्षयो भवेत्।। संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसम्भवाः। व्रता नियमधर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः।।
[हे राजन्! मनुष्य जो कुछ कर्म बिना संकल्प के करता है उसका अल्प से अल्प फल होता है; धर्म का आधा क्षय हो जाता है। काम का मूल संकल्प में है। यज्ञ संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं। व्रत, नियम और धर्म सभी संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं, ऐसा सुना गया है।]
संकल्प की वाक्यरचना विभिन्न कर्मों के लिए शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से बतलायी गयी है। योगिनीतन्त्र (प्रथम खण्ड, द्वितीय पटल) में संकल्प का निम्नांकित विधान है :
ताम्रपात्रं सदूर्वञ्च सतिलं जलपूरितम्। सकुराञ्च फलैर्देवि गृहीत्वाचम्य कल्पतः।। अभ्यर्च्च्य च शिरःपद्मे श्रीगुरुं करुणामयम्। यक्षेशवदनो वापि देवेन्द्रवदनोऽपि वा।। मासं पक्षं तिथिञ्चैव देवपर्वादिकन्तथा। आद्यान्तकालञ्च तथा गोत्रं नाम च कामिनाम्।। क्रियाह्वयं करिष्येऽन्तमेवं समुत्सृजेत् पयः।।

संङ्कल्पनिराकरण
चौदह शैव सिद्धान्तशास्त्रों (ग्रन्थों) में से एक। इसके रचयिता उमापति शिवाचार्य तथा रचनाकाल चौदहवीं शती है। उमापति शिवाचार्य ब्राह्मण थे किन्तु शूद्र आचार्य मरै ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य हो जाने के कारण जाति से बहिष्कृत कर दिये गये। ये अपने सम्प्रदाय के प्रकाण्ड धर्मविज्ञानी थे। इन्होंने आठ प्रामाणिक सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना की जिनमें से संकल्पनिराकरण भी एक है।

सङ्कल्पसूर्योदय
श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य वेदान्तदेशिक द्वारा लिखित एक ग्रन्थ। यह रूपकात्मक नाटक है तथा बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। वेदान्तदेशिक माधवाचार्य के मित्रों में थे। माधव ने 'सर्वदर्शनसंग्रह' में इनका उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल चौदहवीं शती का उत्तरार्ध है।

सङ्किशा
उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद जिले में पखना स्टेशन से प्रायः सात मील काली नदी के तट पर स्थित बौद्धों का धर्मस्थान। इसका प्राचीन नाम संकाश्य है। कहते हैं, बुद्ध भगवान् स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी पर यहीं आये थे। जैन भी इसे अपनी तीर्थ मानते हैं। तेरहवें तीर्थङ्कर विमलनाथजी का यह 'केवलज्ञानस्थान' माना जाता है।
वर्तमान सङ्किशा एक ऊँचे टीले पर बसा हुआ छोटा सा गाँव है। टीला दूर तक फैला हुआ है और किला कहलाता है। किले के भीतर ईंटों के ढेर पर बिसहरी देवी का मन्दिर है। पास ही अशोकस्तम्भ का शीर्ष है जिस पर हाथी की मूर्ति निर्मित है।

सङ्कीर्तन
सम्यक् प्रकार से देवता के नाम का उच्चारण अथवा उसके गुणादि का कथन। कीर्तन नवधा भक्ति का एक प्रकार है :
स्मरणं कीर्तनं विष्णोः वन्दनं पादसेवनम्।'
इसी का विकसित रूप संकीर्तन है। भागवत (11.5) में संकीर्तन का उल्लेख इस प्रकार है :
यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।। पुराणों में संकीर्तन का बड़ा माहात्म्य वर्णित है। बृहन्नारदीय पुराण के अनुसार :
संकीर्तनध्वनिं श्रुत्वा ये च नृत्यन्ति मानवाः। तेषा पादरजस्पर्शात् सद्यः पूता वसुंधरा।।
[संकीर्तन की ध्वनि सुनकर जो मानव नाच उठते हैं, उनके पदरज के स्पर्शमात्र से वसुंधरा तुरन्त पवित्र हो जाती है।]

सङ्क्रान्ति
सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना। द्वादश नक्षत्र राशियों के अनुसार द्वादश ही संक्रान्तियाँ हैं। विभिन्न संक्रान्तियाँ विभिन्न व्यक्तियों के लिए शुभाशुभ फल देनेवाली होती हैं। संक्रान्तियों के अवसर पर विभिन्न धार्मिक कृत्यों का विधान पाया जाता है। स्नान और दान का विशेष महत्त्व बतलाया गया है।


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