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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

जगजीवनदास
सं० 1807 वि० के लगभग जगजीवनदास ने सतनामी (सत्यनामी) पंथ का पुनरुद्धार किया। ये बाराबंकी जिले के कोटवा नामक स्थान के रहने वाले योगाभ्यासी एवं कवि थे। इनकी शिक्षाएँ इनके रचे हिन्दी पद्यों में प्राप्त हैं। इनके एक शिष्य दूलनदासजी भी कवि थे।

जगत्
पुरुषसूक्त के प्रथम मन्त्र के अनुसार पुरुष इस सब जगत् में व्याप्त हो रहा है अर्थात् उसने अपनी व्यापकता से इस जगत् को पूर्ण कर रखा है। पुरुषसूक्त के ही 17वें मन्त्र के अनुसार जब जगत् उत्पन्न नहीं हुआ था तब ईश्वर की सामर्थ्य में यह कारण रूप से वर्तमान था। ईश्वर की इच्छानुसार उससे यह उत्पन्न होकर स्थूल नाम रूपों में दिखाई पड़ता है।
आचार्य शंकर के अनुसार परमार्थतः जगत् मायिक और मिथ्या है। परन्तु इसकी व्यावहारिक सत्ता है। जब तक मनुष्य संसार में लिप्त है तब तक संसार की सत्ता है। जब मोह नष्ट हो जाता है तब संसार भी नष्ट हो जाता है।
आचार्य रामानुज ने ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध बताते हुए कहा है कि जड़ जगत् ब्रह्म का शरीर है। ब्रह्म ही जगत् का उपादान और निमित्त कारण है। ब्रह्म ही जगत् रूप में परिणत हुआ है, फिर भी वह विकाररहित है। जगत् सत् है, मिथ्या नहीं है। आचार्य मध्व के मतानुसार जगत् सत्, जड़ और अस्वतन्त्र है। भगवान् जगत् के नियामक हैं। जगत् काल की दृष्टि से असीम है। इन्होंने भी जगत् की सत्यता को सिद्ध किया है। वल्लभाचार्य के मतानुसार ब्रह्म कारण और जगत् कार्य है। कार्य औऱ कारण अभिन्न हैं। कारण सत् है, कार्य भी सत् है, अतएव जगत् सत् है। हरि की इच्छा से ही जगत् का तिरोधान होता है। लीला के लिए अपनी इच्छा से ब्रह्म जगत् रूप में परिणत हुआ है। जगत् ब्रह्मात्मक है, प्रपञ्च ब्रह्म का ही कार्य है। आचार्य वल्लभ अविकृत परिणामवादी हैं। उनके मत से जगत् मायिक नहीं है और न भगवान् से भिन्न ही है। उसकी न तो उत्पत्ति होती है और न विनाश। जगत् सत्य है, पर उसका आविर्भाव एवं तिरोभाव होता है। जगत् का जब तिरोभाव होता है तब वह कारण रूप से और जब आविर्भाव होता है तब कार्य रूप से स्थित रहता है। भगवान् की इच्छा से ही सब कुछ होता है। क्रीड़ा के लिए ही उन्होंने जगत् की सृष्टि की। अकेले क्रीड़ा सम्भव नहीं, अतएव भगवान् ने जीव और जगत् की सृष्टि की है।
आचार्य बलदेव विद्याभूषण के मतानुसार ब्रह्म जगत् का कर्त्ता एवं निमित्तकारण है। वही उपादान कारण है। ब्रह्म अविचिन्त्य शक्ति वाला है। इसी शक्ति से वह जगत् रूप में परिणत होता है।

जगदीश
जगत् का ईश (स्वामी), ईश्वर। ऐश्वर्य परमात्मा का एक गुण है जिससे सम्पूर्ण विश्व का वह शासन करता है।

जगन्नाथ
उड़ीसा प्रदेश के अन्तर्गत पुरी स्थान में कृष्ण भगवान् का एक मन्दिर है, जिसका नाम है जगन्नाथ-मन्दिर। 'जगन्नाथ' (विश्व के स्वामी) कृष्ण का ही एक नाम है। उपर्युक्त मन्दिर में जगन्नाथ की मूर्ति के साथ बलराम एवं सुभद्रा की भी मूर्तियाँ हैं। आषाढ़ में रथयात्रा के दिन भगवान् जगन्नाथ की सवारी रथ में निकलती है और जनता का अपार मेला लगता है। यह चार धामों में से एक धाम है। प्रत्येक आस्तिक हिन्दू भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करना अपना पवित्र कर्तव्य समझता है। दे० 'पुरी'।

जगन्नाथमाहात्म्य
यह ब्रह्मपुराण का एक अंश है। ब्रह्मपुराण को आरम्भ में ब्रह्माजी का माहात्म्यसूचक बताया गया है। स्कन्दपुराण में इसका प्रमाण भी दिया गया है। परन्तु अन्त में 245वें अध्याय के 20वें श्लोक में इसी पुराण में लिखा है कि यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में वैष्णव अवतारों की कथा की विशेषता और विशेष रूप से उत्कलवर्ती जगन्नाथजी के माहात्म्य का कथन इस बात को परिपुष्ट करता है।

जगन्नाथाश्रम स्वामी
अद्वैत सम्प्रदाय के एक प्रमुख वेदान्ताचार्य। जगन्नाथाश्रम स्वामीजी सुप्रसिद्ध नृसिंहाश्रम स्वामी के गुरु थे।

जगमोहन
उत्तर भारतीय मंदिर निर्माण कला (नागर शैली) के अन्तर्गत एवं विशेष कर उड़ीसा के मन्दिरों में गर्भगृह के सामने एक मण्डप होता है,जिसे जगमोहन कहते हैं। इस मण्डप में कीर्तन-भजन करने वाली मंडली आरती के समय या अन्य अवसरों पर गायन-वादन करती हैं।

जङ्गम
जङ्गम' का व्यवहार दो अर्थों में होता है; प्रथम जङ्गम जाति के सदस्य के रूप में और द्वितीय एक अभ्यासी जङ्गम के अर्थ में। केवल दूसरी कोटि वाले पूजनीय होते हैं। अधिकांश जङ्गम विवाह करते एवं जीविका उपार्जित करते हैं। किन्तु जिन्हें अभ्यासी या आचार्य का कार्य करना होता है, वे आजन्म ब्रह्मचारी रहते हैं। उन्हें किसी मठ में रहकर शिक्षा तथा दीक्षा लेनी पड़ती है। सम्पूर्ण लिंगायत सम्प्रदाय इन जङ्गमों के अधीन होता है। जङ्गमों की दो श्रेणियाँ भी होती हैं--गुरुस्थल एवं विरक्त। गुरुस्थल का वर्णन पहले हो गया है, विरक्तों का वर्णन आगे किया जायगा। दे० 'लिङ्गायत' और 'वीरशैव'।

जङ्गमवाड़ी
काशी में भगवान् विश्वाराध्य का स्थान 'जङ्गमबाड़ी' (बाटिका) मठ के नाम से प्रसिद्ध है। यह मठ बहुत प्राचीन है। सर्वप्रथम मल्लिकार्जुन जङ्गम नामक शिवयोगी को काशिराज जयनन्ददेव ने विक्रम सं० 631 में प्रबोधिनी एकादशी के दिन इस मठ के लिए भूमिदान किया था। इस तरह यह ताम्रशासन लगभग पौने चौदह सौ बरसों का हुआ। इस मठ के पास 12 गाँव हैं। इनके सिवा गोदौलिया से लेकर दक्षिण में बंगाली टोला के डाकघर तक एवं पूर्व में अगस्त्यकुण्ड से पश्चिम में रामापुरा तक सारा स्थान 'जङ्गमबाड़ी' मुहल्ला कहलाता है, जो अधिकांश मठ की ही जागीर है। इसके सिवा मानसरोवर, धनकामेश्वर, मनःकामेश्वर एवं साक्षीविनायक के सामने का स्थान इसी मठ के अधीन है। यह मठ शिवलिङ्गमय है। इसके अधीन हरिश्चन्द्रपुत्र रोहिताश्व को जहाँ साँप ने काटा था वह बगीचा भी है। यह मठ काशी में सबसे पुराना, ऐतिहासिक और दर्शनीय है।

जटायु
रामचन्द्रजी के वनवास का सहायक एक गरुडवंशज पक्षी, जो गृध्रराज कहलाता था। सीताहरण का विरोध करने पर रावण ने इसके पंख काट दिये थे। रामचन्द्रजी ने अपने हाथों इस पक्षी का अन्तिम संस्कार किया था।


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