स्वरवर्ण का सप्तम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य अधोलिखित है :
ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम्। अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने।। सदा शिवयुतं वर्णं सदा ईश्वर संयुतम्। पञ्च वर्णमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं तथा।। रक्तविद्युल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम्।।
[हे देवी! ऋ अक्षर स्वयं मूर्तिमान् कुण्डली है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सदा वास करते हैं। यह सदा शिवयुत और ईश्वर से संयुक्त रहता है। यह पञ्चवर्णमय तथा चतुर्ज्ञानमय है, रक्त विद्युत् की लता के समान है। इसको प्रणाम करता हूँ।]
वर्णोद्धार तन्त्र में इसके निम्नांकित नाम बतलाये गये हैं :
प्राचीन वैदिक काल में देवताओं के सम्मानार्थ उनकी जो स्तुतियाँ की जाती थीं, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते थे। ऋग्वेद ऐसी ही ऋचाओं का संग्रह है। इसीलिए इसका यह नाम पड़ा। दे० 'ऋग्वेद'।
अथर्वसंहिता के मत से यज्ञ के उच्छिष्ट (शेष) में से यजुर्वेद के साथ-साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न हुए। बृहदारण्यक उ० और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है 'गीली लकड़ी में से निकलती हुई अग्नि से जैसे अलग-अलग धुआँ निकलता है, उसी तरह उस महाभूत के निःश्वास से ऋग्वेद यजुर्वेद अथर्वाङ्गिरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान निकलते हैं : ये सभी इसकी निःश्वास हैं।'
ऋक् ज्यौतिष
ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन ग्रन्थ बहुत प्राचीन काल के मिलते हैं। पहला ऋक् ज्यौतिष, दूसरा यजु:--ज्यौतिष और तीसरा अथर्व ज्यौतिष। ऋक् ज्यौतिष के लेखक लघध हैं। इसको 'वेदाङ्गज्योतिष' भी कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि कुटुम्ब उन सदस्यों से बना जिनका ऋक्थ पाने का अधिकार है। उन्हीं को इसका अधिकार होता है जो कौटुम्बिक धार्मिक क्रियाओं को करने के अधिकारी हैं। इसीलिए धर्मपरिवर्तन करने वालों को ऋक्थ पाने का अधिकार नहीं था। अब धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में धर्मपरिवर्तन ऋक्थ प्राप्ति में बाधक नहीं है।
ऋक्प्रातिशाख्य
वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों, उच्चारण, पदों के कम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन विशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं। वेदाध्ययन के लिए अत्यन्त पूर्वकाल में ऋषियों ने पढ़ने की ध्वनि, अक्षर, स्वरादि विशेषता का निश्चय करके अपनी-अपनी शाखा की परम्परा निश्चित कर दी थी। इस विभेद को स्मरण रखने और अपनी परम्परा की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बने। इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा तथा व्याकरण दोनों पाये जाते हैं।
एक समय था जब वेद की सभी शाखाओं के प्रातिशाख्यों का प्रचलन था और सभी उपलब्ध भी थे। परन्तु अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक्प्रातिशाख्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का तैत्तिरीय प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायनरचित वाजसनेय प्रातिशाख्य, सामवेद का पुण्यमुनि रचित सामप्रातिशाख्य और अथर्वप्रातिशाख्य व शौकनीय चतुरध्यायी उपलब्ध हैं। शौन के ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, छः पटल और 103 कण्डिकाएँ हैं। इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेख सूत्र' नामक एक ग्रन्थ मिलता है। पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था। इसको देखकर उब्बटाचार्य ने इसका विस्तृत भाष्य लिखा है।
ऋक्ष
रीछ या भालू। ऋग्वेद में ऋक्ष शब्द एक बार तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित ही प्रयुक्त हुआ है। स्पष्टतः यह जन्तु वैदिक भारत में बहुत कम पाया जाता था। इस शब्द का बहुवचन में प्रयोग 'सप्त ऋषियों' के अर्थ में भी कम ही हुआ है। ऋग्वेद में दानस्तुति के एक मन्त्र में 'ऋक्ष' एक संरक्षक का नाम है, जिसके पुत्र आर्क्ष का उल्लेख दूसरे मन्त्र में आया है।
परवर्ती काल में नक्षत्रों के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है। रामायण तथा पुराणों की कई गाथाओं में ऋक्ष एक जाति विशेष का नाम है। ऋक्षों ने रावण से युद्ध करने में राम की सहायता की थी।
ऋग्विधान
इस ग्रन्थ की गणना ऋग्वेद के पूरक साहित्य में की जाती है। इसके रचयिता शौनक थे।
ऋग्भाष्य
ऋग्वेद के ऊपर लिखे गये भाष्यसाहित्य का सामूहिक नाम ऋग्भाष्य है। ऋग्वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन समझे जाते हैं। एक निघण्टु है और दूसरा यास्क का निरुक्त। देवराज यज्वा निघण्टु के टीकाकार हैं। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर अपनी सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निघण्टु की टीका वेदभाष्य करने वाले एक स्कन्दस्वामी के नाम से भी पायी जाती है। सायणाचार्य वेद के परवर्ती भाष्यकार हैं। यास्क के समय से लेकर सायण के समय तक विशेष रूप से कोई भाष्यकार प्रसिद्ध नहीं हुआ।
वेदान्तमार्गी लोग संहिता की व्याख्या की ओर विशेष रुचि नहीं रखते, फिर भी वैष्णव संप्रदाय के एक आचार्य आनन्द तीर्थ (मध्वाचार्य स्वामी) ने ऋग्वेदसंहिता के कुछ अंशों का श्लोकमय भाष्य किया था। फिर रामचन्द्र तीर्थ ने उस भाष्य की टीका रची थी। सायण ने अपने विस्तृत 'ऋगभाष्य' में भट्टभास्कर मिश्र और भरतस्वामी- वेद के दो भाष्यकारों का उल्लेख किया है। कतिपय अंश चण्डू पण्डित्, चतुर्वेद स्वामी, युवराज रावण और वरदराज के भाष्यों के भी पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त मुद्गल, कपर्दी, आत्मानन्द और कौशिक आदि कुछ भाष्यकारों के नाम भी सुनने में आते हैं।
ऋग्वेद
वेद चार हैं, उनमें से ऋग्वेद सबसे प्रमुख और मौलिक है। क्योंकि सम्पूर्ण सामवेद और यजुर्वेद का पद्यात्मक अंश तथा अथर्ववेद के कतिपय अंश ऋग्वेद से ही लिये गये हैं। पातञ्जल महाभाष्य (पस्पशाह्निक) के अनुसार ऋग्वेद की इक्कीस संहिताएँ थीं। किन्तु आजकल केवल एक ही शाकल संहिता उपलब्ध है जिसमें 1028 सूक्त (11 वालखिल्यों को लेकर) हैं। शाकल संहिता का दो प्रकार से विभाजन किया गया है। प्रथमतः यह मण्डल, अनुवाक और वर्ग में विभाजित है, जिसके अनुसार इसमें 10 मण्डल, 85 अनुवाक और 2008 वर्ग हैं। दूसरे विभाजन के अनुसार इसमें 8 अष्टक, 64 अध्याय और 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त के ऋषि, देवता और छन्द विभिन्न हैं। ऋषि वह है जिसको मन्त्र का प्रथम साक्षात्कार हुआ था। (आधुनिक भाषा में ऋषि वह था जिसने उस सूक्त की रचना की अथवा परम्परा से उसे ग्रहण किया था। सूक्त का वर्णनीय विषय देवता होता है। छन्द विशेष प्रकार का पद्य होता है जिसमें सूक्त की रचना हुई है।
व्याख्यान और अध्यापन के क्रम से ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ बतलायी गयी हैं-- (1) शाकल, (2) वाष्कल, (3) आश्वलायन, (4) शाङ्कखायन और (5) माण्डुकेय। कुछ विद्वानों के अनुसार इसकी सत्ताईस शाखाएँ थीं, जिनके नाम निम्नाङ्कित हैं
ऋग्वेद में देवतात्त्व के अन्तर्गत अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन हुआ है। सम्पूर्ण विश्व का किसी न किसी 'दैवत' के रूप में ग्रहण है। मुख्य देवताओं को स्थानक्रम से तीन वर्गों-- (1) भूमिस्थानीय, (2) अन्तरिक्षस्थानीय तथा (3) व्योमस्थानीय में बाँटा गया है। इसी प्रकार परिवारक्रम से देवताओं के तीन वर्ग हैं-- (1) आदित्यवर्ग (सूर्य परिवार), (2) वसुवर्ग तथा (3) रुद्रवर्ग। इनके अतिरिक्त कुछ भावात्मक देवता भी हैं, जैसे श्रद्दा, मन्यु, वाक् आदि। बहुत से ऋषिपरिवारों का भी देवीकरण हुआ है, जैसे ऋभु आदि। नदी, पर्वत, यज्ञपात्र, यज्ञ के अन्य उपकरणों का भी देवीकरण किया गया है।
ऋग्वेद के देवमण्डल को देखकर अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि इसमें बहुदेववाद का ही प्रतिपादन किया गया है। परन्तु यह मत गलत है। वास्तव में देवमण्डल के सभी देवता एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं; अपितु वे एक ही मूल सत्ता के दृश्य जगत् में व्यक्त विविध रूप हैं। सत्ता एक ही है। स्वयं ऋग्वेद में कहा गया है:
[मूल सत्ता एक ही है। उसी को विप्र (विद्वान्) अनेक प्रकार से (अनेक रूपों में) कहते हैं। उसी को अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि कहा गया है।] वरुण, इन्द्र, सोम, सविता, प्रजापति, त्वष्टा आदि भी उसी के नाम हैं।
एक ही सत्ता से सम्पूर्ण विश्व का उद्भव कैसे हुआ है, इसका वर्णन ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (10.90) में विराट् पुरुष के रूपक से बहुत सुन्दर रूप में हुआ है। इसके कुछ मन्त्र नीचे दिये जाते हैं :
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्।।1।।
[पुरुष (विश्व में पूर्ण होने वाली अथवा व्याप्त सत्ता) सहस्र (असंख्यात अथवा अनन्त) सिर वाला, सहस्र आँख वाला तथा सहस्र पाँव वाला है। वह भूमि (जगत्) को सभी ओर से घेरकर भी इसका अतिक्रमण दस अंगुल से किये हुए है। अर्थात् पुरुष इस जगत् में समाप्त न होकर इसके भीतर और परे दोनों ओर है।]
[जितना भी विश्व का विस्तार है वह सब इसी विराट्-पुरुष की महिमा है। यह पुरुष अनन्त महिमा वाला है। इसके एक पाद (चतुर्थांश= कियदंश) में ही सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इसके अमृतमय तीन पाद (अधिकांश) प्रकाशमय लोक को आलोकित कर रहे हैं।]
[ब्राह्मण इसका मुख था, राजन्य (क्षत्रिय) इसकी भुजाएँ थीं, जो वैश्य (सामान्य जनता) है वह इसकी जंघा थी; इसके पाँवों से शूद्र उत्पन्न हुआ। अर्थात् सम्पूर्ण समाज विराट पुरुष से ही उत्पन्न हुआ और उसी का अङ्गभूत है।]
[देवों (दिव्य शक्तिवाले पुरुषों) ने यज्ञ से ही यज्ञ का अनुष्ठान किया, अर्थात् विश्वकल्याणी मूल सत्ता का ही विश्वहित में विस्तार किया। यज्ञ के जो नियम बने वे ही प्रथम धर्म हुए। जो इस विराट् पुरुष की उपासना करने वाले लोग हैं वे ही आदरणीय देवता हैं।]
ऋग्वेद के 'नासदीय सूक्त' (अष्टक 8, अध्याय 7, वर्ग 17) में गूढ़ दार्शनिक प्रश्न उठाये गये हैं :
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं, नासीद्रजो नो व्योमाऽपरो यत्। किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्।।1।।, न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद् धान्यन्न परः किञ्चनास।।2।। तम आसीत् तमसा गूढ़मग्रे ऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। तच्छ्येनाभ्यपिहितं यदासीत्, तपसस्तन्महिना जायतैकम्।।3।। कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीप्या कवयो मनीषा।।4।। तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम् अधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत्। रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्, स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात्।।5।। को अद्धा वेद क इह प्रावोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः। अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा, को वेद यत आबभूव।।6।। इयं विसृष्टिर्यत आबभूव, यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद।।7।।
[उस समय न तो असत् (शून्य रूप आकाश] था और न सत् (सत्त्व, रज तथा तम मिलाकर प्रधान) था। उस समय रज (परमाणु) भी नहीं थे और न विराट व्योम (सबको धारण कने वाला स्थान) था। यह जो वर्तमान जगत् है वह अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता और न उससे अधिक अथाह हो सकता है, जैसे कुहरे का जल न तो पृथ्वी को ढँक सकता है और न नदी में उससे प्रवाह चल सकता है। जब यह जगत् नहीं था तो मृत्यु भी न थी और न अमृत था। न रात थी और न दिन था। एक ही सत्ता थी, जहाँ वायु की गति नहीं है। वह सत्ता स्वयं अपने प्राण से प्राणित थी। उस सत्ता के अतिरिक्त कुछ नहीं था। तम था। इसी तम से ढँका हुआ वह सब कुछ था-- चिह्न और विभाग रहित। वह अदेश और अकाल में सर्वत्र सम और विषय भाव से नितान्त एक में मिला और फैला हुआ था। जो कुछ सत्ता थी वह शून्यता से ढँकी था-- आकारहीन। तब तपस् की महान् शक्ति से सर्व प्रथम एक की उत्पत्ति हुई। सबसे पहले (विश्व के विस्तार की, कामना उठ खड़ी हुई। जब ऋषियों ने विचार और जिज्ञासा की तो उनको पता लगा कि यही कामना सत् और असत् को बाँधने का कारण हुई। सत् और असत् की विभाजक रेखा तिर्यक् रूप से फैल गयी। इसके नीचे और ऊपर क्या था? अत्यन्त शक्तिशाली बीज था। इधर जहाँ स्वतन्त्र क्रिया थी उधर परा शक्ति थी। वास्तव में कौन जानता है और कह सकता है कि यह सृष्टि कहाँ से हुई? देवताओं की उत्पत्ति इस सृष्टि से पीछे की है। फिर कौन कह सकता है कि यह सृष्टि कब हुई। वेद ने जो सृष्टिक्रम का वर्णन किया है वह उसको कैसे ज्ञात हुआ? जिससे यह सृष्टि प्रकट हुई उसी ने इसको रचा अथवा नहीं रचा है (और यह स्वतः आविर्भूत हो गयी है?। परम आकाश में इस सृष्टि का जो अध्यक्ष (निरीक्षण करनेवाला) है, वही इसको जानता है, अथवा शायद वह भी नहीं जानता।]
ऋग्वेद में जिस पूजापद्धति का विधान है उसमें देवस्तुति प्रथम है। मन्त्रोच्चारण द्वारा साधक अपने साध्य से सान्निध्य स्थापित करना चाहता है। इसके साथ ही यज्ञ का विधान है, जिसका उद्देश्य है अपनी सम्पत्ति औऱ जीवन को देवार्थ (लोकहिताय) समर्पित करना। देव और मनुष्य का साक्षात्कार सीधा-सुगम है। अतः प्रतिमा की आवश्यकता है। जिनका देव और यज्ञ में विश्वास नहीं वे शिश्नदेव (शिश्नोदरपरायण) हैं। इस प्रकार इसमें देवपूजन और अतिथिपूजन पर बल दिया गया है। पितरों के प्रति आदर-श्रद्धा का आदेश है।
ऋग्वेद में ऋत की महती कल्पना है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्यवस्था बनाये रखने में समर्थ है। यही कल्पना नीति का आधार है। वरुणसूक्त (ऋ० वे० 5.85.7) में सुन्दर नैतिक उपदेश पाये जाते हैं। ऋत के साथ सत्य, व्रत और धर्म की महत्त्वपूर्ण कल्पनाएँ तथा मान्यताएँ हैं।
हिन्दू धर्म के सभी तत्त्व मूलरूप से ऋग्वेद में वर्तमान हैं। वास्तव में ऋग्वेद हिन्दू धर्म और दर्शन की आधारशिला है। भारतीय कला और विज्ञान दोनों का उदय यहीं पर होता है। विश्व के मूल में रहनेवाली सत्ता के अव्यक्त और व्यक्त रूप में विश्वास, मन्त्र, यज्ञ, अभिचार आदि से उसके पूजन और यजन आदि मौलिक तत्त्व ऋग्वेद में पाए जाते हैं। इसी प्रकार तत्त्वों को जानने की जिज्ञासा, जानने के प्रकार, तत्त्वों के रूपकात्मक वर्णन, मानवजीवन की आंकाक्षाओं, आदर्शों तथा मन्तव्य आदि प्रश्नों पर ऋग्वेद से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। दर्शन की मूल समस्याओं; ब्रह्म, आत्मा, माया, कर्म, पुनर्जन्म आदि का स्रोत भी ऋग्वेद में पाया जाता है। देववाद, एकेश्वरवाद, सर्वेश्वरवाद, अद्वैतवाद, सन्देहवाद आदि दार्शनिक वादों का भी प्रारम्भ ऋग्वेद में ही दिखाई पड़ता है।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों का स्वतन्त्र भाष्य किया है। उनका 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' अति प्रभावशाली ग्रन्थ है, जो वेदभाष्य की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें निम्नांकित विषयों पर विचार हुआ है :
1. वेदों का उद्गम, 2. वेदों का अपौरुषेयत्व और सनातनत्व, 3. वेदों का विषय, 4. वेदों का वेदत्व, 5. ब्रह्मविद्या,. 6. वेदों का धर्म, 7. सृष्टिविज्ञान, 8. सृष्टिचक्र, 9. गुरुत्व और आकर्षण शक्ति, 10. प्रकाशक औऱ प्रकाशित, 11. गणितशास्त्र, 12. मोक्षशास्त्र, 13. नौ-निर्माण तथा वायुयान निर्माण कला, 14. बिजली और ताप, 15. आयुर्वेद विज्ञान, 16. पुनर्जन्म, 17. विवाह, 18. नियोग, 19. शासक तथा शासित के धर्म, 20. वर्ण और आश्रम, 21. विद्यार्थी के कर्तव्य, 22. गृहस्थ के कर्तव्य, 23. वानप्रस्थ के कर्तव्य, 24. संन्यासी के कर्तव्य, 25. पञ्च महायज्ञ, 26. ग्रन्थों का प्रामाण्य, 27. योग्यता और अयोग्यता, 28. शिक्षण और अध्ययनपद्धति, 29. प्रश्नों और सन्देहों का समाधान 30. प्रतिज्ञा, 31. वेद सम्बन्धी प्रश्नोत्तर, 32. वैदिक शब्दों के विशेष नियम--निरुक्त, 33. वेद और व्याकरण के नियम, 34. अलंकार और रूपक
पाश्चात्य विद्वानों के मन्तव्यों के परिष्कारार्थ इस प्रकार का वेदार्थविचार अत्युपयोगी है।