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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

यह व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का प्रथम अक्षर है। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है :
अतः परं प्रवक्ष्यामि पकाराक्षरमव्ययम्। चतुर्वर्गप्रदं वर्णं शरच्चन्द्रसमप्रभम्।। पञ्चदेवमयं वर्णं स्वयं परम कुण्डली। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा।। त्रिगुणावाहितं सदा।। त्रिगुणावाहितं वर्णमात्मादि तत्वसंयुतम्। महामोक्षप्रदं वर्णं हृदि भावय पार्वति।।
तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते हैं पः परप्रियता तीक्ष्णा लोहितः पञ्चमी रमा। गुह्यकर्ता निधिः शेषः कालरात्रिःसुवाहिता।। तपनः पालनः पाता पद्मरेणुर्निरञ्जनः। सावित्री पातिनी पानं वीरतत्त्वो धनुर्धरः।। दक्षपार्श्वश्च सेनानी मरीचिः पवनः शनिः। उड्डीशं जयिनी कुम्भोऽलसं रेखा च मोहकः।। मूलाद्वितीयमिन्द्राणी लोकाक्षी मन आत्मनः।।

पक्षवर्धिनी एकादशी
जब पूर्णिमा अथवा अमावस्या अग्रिम प्रतिपदा को आक्रान्त करती है (अर्थात् तिथिवृद्धि हो जाती है) तो यह पक्षवर्धिनी कहलाती है। इसी प्रकार यदि एकादशी द्वादशी को आक्रान्त करती है (अर्थात् द्वादशी के दिन भी रहती है) तो वह भी पक्षवर्धिनी है। विष्णु भगवान् की सोने की प्रतिमा का उस दिन पूजन करना चाहिए। रात्रि में नृत्य, गान आदि करते हुए जागरण का विधान है। वैष्णव लोग ऐसे पक्ष की एकादशी का व्रत अगले दिन द्वादशी को करते हैं। दे० पद्म०, 6.38।

पंक्तिदूषण ब्राह्मण
जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको पंक्तिदूषण कहा जाता है। ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है। हव्य-कव्य के ब्रह्मभोज की पंक्ति में यद्यपि नास्तिक और अनीश्वरवादियों को सम्मिलित करने का नियम न था तथापि उन्हें पंक्ति से उठाने की शायद ही कभी नौबत आयी हो, क्योंकि जो हव्य-कव्य को मानता ही नहीं, यदि उसमें तनिक भी स्वाभिमान होगा तो वह ऐसे भोजों में सम्मिलित होना पसन्द न करेगा। पंक्तिदूषकों की इतनी लम्बी सूची देखकर यह समझा जा सकता है कि पक्तिपावन ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी नहीं हो सकती। ब्राह्मणसमुदाय के अतिरिक्त अन्य वर्णों में पंक्ति के नियमों के पालन में ढीलाई होना स्वाभाविक है।

पंक्तिपावन ब्राह्मण
जिन ब्राह्मणों के भोजपंक्ति में बैठने से पंक्ति पवित्र मानी जाती है, उनको पंक्तिपावन कहते हैं। इनमें प्रायः श्रोत्रिय ब्राह्मण (वेदों का स्वाध्याय और पारायण करनेवाले) होते हैं। संस्कार सम्बन्धी भोजों में पंक्तिपावनता ब्राह्मणों की विशेषता मानी जाती थी, परन्तु वह भी सामूहिक न थी। पंक्तिपावन ब्राह्मण पंक्तिदूषण की अपेक्षा बहुत कम होते थे।

पञ्चककार
कच्छ, केश, कंधा, कड़ा और कृपाण धारण करना प्रत्येक सिक्ख के लिए आवश्यक है। 'क' अक्षर से प्रारम्भ होनेवाले ये ही पाँच शब्द (पदार्थ) पञ्चककार कहलाते हैं।

पञ्चकृष्ण
मानभाउ सम्प्रदाय वाले जहाँ दत्तात्रेय को अपने सम्प्रदाय का संस्थापक मानते हैं वहीं वे चार युगों के एक-एक नये प्रवर्त्तक भी मानते हैं। इस प्रकार वे कुल पाँच प्रवर्तकों की पूजा करते हैं। इन पाँच प्रवर्तकों को 'पञ्चकृष्ण' कहते हैं।

पञ्चगव्य
गाय से उत्पन्न पाँच पदार्थों (दूध, दही, घृत, गोबर, गोमूत्र) के मिलाने से पञ्चगव्य तैयार होता है, जो हिन्दू शास्त्रों में बहुत ही पवित्र माना गया है। अनेक अवसरों पर इसका गृह तथा शरीर की शुद्धि के लिए प्रयोग करते हैं। प्रायश्चितों में इसका प्रायः पान किया जाता है।

पञ्चग्रन्थी
सिक्खों की प्रार्थनापुस्तक का नाम पञ्चग्रन्थी है। इसमें (1) जपजी (2) रहिरास (3) कीर्तन-सोहिला (4) सुखमणि और (5) आसा दी वार नामक पाँच पुस्तिकाओं का संग्रह है। पाँचों में से प्रथम तीन का खालसा सिक्खों द्वारा नित्य पाठ किया जाता है। ये सभी पारायण के ग्रन्थ हैं।

पञ्चघटपूर्णिमा
इस व्रत में पूर्णिमा देवी की मूर्ति की पूजा का विधान है। एकभक्त पद्धति से आहार करते हुए पाँच पूर्णिमाओं को यह व्रत करना चाहिए। व्रत के अन्त में पाँच कलशों में क्रमशः दुग्ध, दधि, धृत, मधु तथा श्वेत शर्करा भरकर दान देना चाहिए। इससे समस्त मनोरथों की पूर्ति होती है।

पञ्चतप (पञ्चाग्नितप)
हिन्दू तपस्या की एक पद्धति। इसमें तपस्वी चार अग्नियों का ताप तो सहन करता ही है जो वह अपने चारों ओर जलाता है, पाँचवाँ सूर्य भी सिर पर तपता है। इसी को पञ्चाग्नि तपस्या कहते हैं।
पञ्च तप अथवा पञ्चाग्नि तपस्या पाँच वैदिक अग्नियों की उपासना या होमक्रिया का परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। वैदिक पञ्चाग्नियों के नाम हैं : दक्षिणाग्नि (अन्वाहार्यपचन), गार्हपत्य, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्‍य।


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