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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अन्तःस्थ वर्णों का चौथा अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्ण निम्नांकित है :
वकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षमव्ययम्। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा।। त्रिबिन्दुसहितं वर्णमात्मादि तत्त्वसंयुतम्। पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्युल्लतामयम्।। चतुर्वर्गप्रदं वर्णं सर्वसिद्धिप्रदायकम्। त्रिशक्तिसहितं देवि त्रिबिन्दुसहितं सदा।।
वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है :
कुन्दपुष्प्रभां देवीं द्विभुजां पङ्कजेक्षणाम्। शुक्लमाल्याम्बरधरां रत्नहारोज्जवलां पराम्।। साधकाभीष्टदां सिद्धां सिद्धिदां सिद्धसेविताम्। एवं ध्यात्वा वकारंतु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्।।

वंशब्राह्मण
एक ब्राह्मण ग्रन्थ। परिचय सहित यह ग्रन्थ बर्नेल साहब ने मंगलौर से (सन् 1873--1876,1877 में) प्रकाशित किया था।

वगलामुखी
शाक्त मतानुसार दस महाविद्याओं (मुख्य देवियों) में एक महाविद्या। 'शाक्तप्रमोद' के अन्तर्गत दसों महाविद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, ध्यान और उपासना विधि दी हुई है।

वचन
प्रचलित लिङ्गायत मत के अन्तर्गत संगृहीत प्रारम्भिक कन्नड़ उपदेश बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें वचन कहते हैं। इनमें से कुछ स्वयं आचार्य वसव द्वारा रचित हैं तथा अन्य परवर्ती महात्माओं के हैं।

वज्र
(1) इन्द्र देवता का मुख्य अस्त्र, जो ऋषि दधीचि की अस्थियों से निर्मित कहा जाता है। यह अस्त्र चक्राकार और तीक्षण कोणों से युक्त होता है। इसके अनेक नाम हैं, यथा-अशनि, अभ्रोत्थ, बहुदार, भिदिर या छिदक, दम्भोक्ति, जसुरि, ह्रादिनी, कुलिश, पवि, षट्कोण, शम्भ एवं स्वरु।
(2) अनिरुद्ध का पुत्र उसकी माता अनिरुद्ध की पत्नी सुभद्रा अथवा दैत्यकुमारी उषा कही जाती है। यादवों के विनाश के पश्चात् और द्वारका के जलमग्न हो जाने पर वही अन्त में मथुरामण्डल का राजा बनाया गया था।

वज्रसूती उपनिषद्
यह एक परवर्ती उपनिषद् है। कहा जाता है, यह किसी बौद्ध तार्किक (अश्वघोष) की रची हुई है।

वञ्जुली (द्वादशी)
कई प्रकार की द्वादशियों में से एक द्वादशी। वञ्जुली उस द्वादशी को कहते हैं जो सूर्योदय से आरम्भ होकर अगले सूर्योदय तक विद्यमान रहे तथा उस दिन भी थोड़ी देर रहे। अतएव यह सम्भव है कि द्वादशी को उपवास करके द्वादशी में ही दूसरे दिन व्रत की पारणा कर ली जाय। दूसरी तिथि में पारणा करने की आवश्यकता नहीं है। उस दिन भगवान् नारायण की सुवर्णप्रतिमा का पूजन किया जाय। इसका माहात्म्य तथा पुण्य सहस्र राजसूय यज्ञों से भी अधिक माना जाता है।

वटसावित्रीव्रत
ज्येष्ठ मास की अमावस्या को सधवा महिलाएँ सौभाग्य रक्षार्थ यह व्रत करती हैं। इसमें विविध प्रकार से वटवृक्ष का पूजन किया जाता है और पति के स्वास्थ्य तथा दीर्घायुष्य की कामना की जाती है।

वत्स
कण्व के वंशज अथवा पुत्र वत्स का ऑगद में गायक के रूप में उल्लेख हुआ है। पञ्चविंशब्राह्मण के अनुसार उन्हें अपनी वंशशुद्धता मेधातिथि के सम्मुख प्रदर्शित करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी तथा उसमें वे सफल निकले। शाङ्खानश्रौतसूत्र में उन्हें तिरिन्दर पारशव्य से प्रभूत दान पानेवाला कहा गया है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में भी उनका उल्लेख है। वत्स एक उपगोत्र (वत्स गोत्र) के प्रवर्त्तक भी माने जाते हैं।

वत्सद्वादशी
कार्तिक कृष्ण द्वादशी। इस दिन बछड़े वाली गौ का चन्दन के लेप, माला, अर्घ्‍य से उरद की दाल के बड़ों का नैवेद्य बनाकर सम्मान करना चाहिए। उस दिन व्रती तेल का पका हुआ अथवा कड़ाही में तला हुआ भोजन एवं गौ के दूध, घी, दही तथा मक्खन का परित्याग करे और बछड़ों को छुट्टा दूध पीने दिया जाय।


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