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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अन्तःस्थ वर्णों का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रका बतलाया गया है :
यकारं श्रृणु चार्वाङ्गि चतुष्कोणमयं सदा। पलालधूमसंकाशं स्वयं परमकुण्डली।। पञ्चप्राणमर्य वर्णं पञ्चदेवमयं सदा। त्रिशक्तिसहिंत् वर्णं त्रिबिन्दुसहितं तथा।। प्रणमामि सदां वर्णं मूर्तिमन्मोक्षमव्यमम्।।
तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :
यो वाणी वसुधा वायुर्विकृतिः पुरुषोत्तमः। युगान्तः श्वसनः शीघ्रों घूमार्चिः प्राणिसेवकः।। शङ्काभ्रमो जटी लीला वायुवेगी यशस्करी।, सङ्कर्षणः क्षमा बाणो हृदयं कपिला प्रभा।। आग्नेय आपकस्त्यागो होमो यानं प्रभा मखम्। चण्डः सर्वेश्वरी धूमश्चामुण्डा सुमुखेश्वरी।। त्वगात्मा मलयो माता हंसिनी भृङ्गिनायकः। तेनमः शोधको मीनो धनिष्ठानङ्गवेदिनी।। मेष्टः सोमः पक्तिनामा पापहा प्राणसंज्ञकः।।

यक्ष
एक अर्ध देवयोनि। यक्ष (नपुंसकलिङ्ग) का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उसका अर्थ है 'जादू की शक्ति'। अतएव सम्भवतः यक्ष का अर्थ जादू की शक्तिवाला होगा और निस्सन्देह इसका अर्थ यक्षिणी है। यक्षों की प्रारम्भिक धारणा ठीक वही थी जो पीछे विद्याधरों की हुई। यक्षों को राक्षसों के निकट माना जाता है, यद्यपि वे मनुष्यों के विरोधी नहीं होते, जैसे राक्षस होते हैं। (अनुदार यक्ष एवं उदार राक्षस के उदाहरण भी पाये जाते हैं, किन्तु यह उनका साधारण धर्म नहीं है।) यक्ष तथा राक्षस दोनों ही 'पुण्यजन' (अथर्ववेद में कुबेर की प्रजा का नाम) कहलाते हैं। माना गया है कि प्रारम्भ में दो प्रकार के राक्षस होते थे; एक जो रक्षा करते थे वे यक्ष कहलाये तथा दूसरे यज्ञों में बाधा उपस्थित करने वाले राक्षस कहलाये। यक्षों के राजा कुबेर उत्तर के दिक्पाल तथा स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कहलाते हैं।

यक्षकदर्म
एक प्रकार का अङ्गराग, जो यक्षों को अत्यन्त प्रिय था। इसका निर्माण पाँच सुगन्धित द्रव्यों के सम्मिश्रण से होता है। धार्मिक उत्सवों और देवकार्यों में इसका विशेष उपयोग होता है। इसके घटक द्रव्य केसर, कस्तूरी, कपूर, कक्कोल और अगरु चन्दन के साथ घिसकर मिलाये जाते हैं :
कुंकुमागुरु कस्तूरी कर्पूरं चन्दनं तथा। महासुगन्धमित्युक्तं नामतो यक्षकर्दमः।।

यच
एक कल्पित भूतयोनि। संभवतः 'यक्ष' का ही यह एक प्राकृत रूप है। दरद प्राचीन आर्य जाति है जो गिलगित के इर्द-गिर्द कश्मीर एवं हिन्दूकुश के मध्य निवास करती है। यह दानवों में विश्वास करती है तथा उन्हें यच' कहती है। यच बड़े आकार के होते हैं, प्रत्येक के एक ही आँख ललाट के मध्य होती है। जब वे मानववेश धारण करते हैं तो उन्हें उनके उलटे पैरों से पहचाना जा सकता है। वे केवल रात को ही चलते हैं तथा पहाड़ों पर राज्य करते हुए मनुष्यों की खेती को हानि पहुँचाते हैं। वे प्रायः मनुष्यों को अपनी दरारों में खींच ले जाते हैं। किन्तु लोगों के इस्लाम धर्म ग्रहण करने से उन्होंने उन पर से अपना स्वामित्व भाव त्याग दिया है तथा अब कभी-कभी ही मनुष्यों को परेशान करते हैं। वे सभी क्रूर नहीं होते। विवाह के अवसर पर वे मनुष्यों से धन उधार लेते हैं तथा उसे धीरे-धीरे ऋण देनेवाले की अज्ञात अवस्था में ही पूरा चुका देते हैं। ऐसे अवसर पर वे मनुष्यों पर दयाभाव रखते हैं। इनकी परछाई यदि मनुष्य पर पड़े तो वह पागल हो जाता है।

यजमान
यज्ञ करनेवाला। कोई भी व्यक्ति, जो स्वयं यज्ञ करता है, यज्ञ का व्ययभार वहन करता है अथवा ऋत्विक् या पुरोहित की दक्षिणा चुकाता है, यजमान कहलाता है। सामान्य अर्थ में प्रश्रयदाता, आतिथेय, कुलपति अथवा किसी भी सम्पन्न व्यक्ति को यजमान कहते हैं।

यजुर्ज्योतिष
संस्कारों एवं यज्ञों की क्रियाएँ निश्चित मुहूर्तों पर निश्चित समयों और निश्चित अवधियों के अन्दर होनी चाहिए। महूर्त समय एवं अवधि का निर्णय करने के लिए एक मात्र ज्योतिष शास्त्र का अवलम्भ है। ज्योतिर्वेदांग पर अति प्राचीन तीन पुस्तकें मिलती हैं-- ऋग्ज्योतिष, यजुर्ज्योतिष और अथर्वज्योतिष। 'यजुर्ज्योतिष' इनमें पश्चात्कालिक रचना कही जाती है।

यजुर्वेद
यह द्वितीय वेद है। इसकी रचना ऋग्वेदीय ऋचाओं को मिश्रण से हुई है, किन्तु इसमें मुख्यतः नये गद्य भाग भी हैं। इसके अनेक मन्त्रों में ऋग्वेद से अन्तर पाया जाता है, जो परम्परागत ग्रन्थ के प्रारम्भिक अन्तर अथवा यजुः के यजनप्रयोगों के कारण हो गया है। यह पद्धतिग्रन्थ है जो पौरोहित्य प्रणाली में यज्ञक्रिया को सम्पन्न करने के लिए संगृहीत हुआ था। पद्धतिग्रन्थ होने के कारण यह अध्ययन का सुप्रचलित विषय वन गया। इसकी अनेक शाखाओं में से आजकल दो संहिताएँ मिलती हैं; प्रथम तैत्तिरीय तथा द्वितीय वाजसनेयी। इन्हें कृष्ण एवं शुक्ल यजुर्वेदीय संहिता भी कहते हैं। तैत्तिरीय संहिता अधिक प्राचीन है। दोनों में सामग्री प्रायः एक है, किन्तु क्रम में अन्तर है। शुक्ल यजुर्वेदसंहिता अधिक क्रमबद्ध है तथा इसमें ऐसे अंश हैं जो कृष्ण यजुर्वेद में नहीं हैं।
तैत्तिरीय संहिता अथवा कृष्ण यजुर्वेद 7 काण्डों, 44 प्रश्नों या अध्यायों, 651 अनुवाकों अथवा प्रकरणों तथा 2198 कण्डिकाओं (मन्त्रों) में विभक्त है। एक कण्डिका में नियमतः 55 शब्द होते हैं। वाजसनेयी संहिता 40 अध्यायों, 303 अनुवाकों एवं 1975 कण्डिकाओं में विभक्त हैं।
इस वेद का विभाजन दो संहिताओं में क्योंकर हुआ, इसका ठीक उत्तर ज्ञात नहीं है। परवर्ती काल में इस नाम की व्याख्या करने के लिए एक कथा का आविष्कार हुआ, जो विष्णु तथा वायु पुराणों में इस प्रकार कही गयी है:
वेदव्यास के, शिष्य वैशम्पायन ने अपने 27 शिष्यों को यजुर्वेद पढ़ाया। शिष्यों में सबसे मेधावी याज्ञवल्क्य थे। इधर वैशम्पायन के साथ एक दुःखपूर्ण घटना घटी कि उनकी भगिनी की सन्तान उनकी घातक चोट से मर गयी। पश्चात् उन्होंने अपने शिष्यों को इसके प्रायश्चित के लिए यज्ञ करने को बुलाया। याज्ञवल्क्य ने उन अकुशल ब्राह्मणों का साथ देने से इनकार कर दिया तथा परस्पर झगड़ा आरम्भ हो गया। गुरु ने याज्ञवल्क्य को जो विद्या सिखायी थी, उसे लौटाने को कहा। शिष्य ने उतनी ही शीघ्रता से यजुः ग्रन्थ को वमन कर दिया जिसे उसने पढ़ा था। विद्या के कण भूमि पर कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए गिर पड़े। दूसरे शिष्यों ने तित्तिर बनकर उस उगले हुए ग्रन्थ को चुग लिया। इस प्रकार वेद का वह भाग जो इस प्रकार ग्रहण किया गया, नाम से तैत्तिरीय तथा रंग से कृष्ण हो गया। याज्ञवल्क्य खिन्न होकर लौट गये और सूर्य की घोर तपस्या आरम्भ की और उनसे वह यजुः ग्रन्थ प्राप्त किया जो उनके गुरु को भी अज्ञात था। सूर्य ने वाजी (अश्व) का वेश धारण कर याज्ञवल्क्य को उक्त ग्रन्थ दिया था। अतएव वेद के इस भाग के पुरोहित 'वाजिन्' कहलाते हैं, जबकि संहिता वाजसनेयी तथा शुक्ल (श्वेत) कहलाती है, क्योंकि यह सूर्य ने दी थी। याज्ञवल्क्य ने यह वेद सूर्य से प्राप्त किया, इसका उल्लेख कात्यायन ने भी किया है।
इस समस्या का अन्य अधिक बोधगम्य उत्तर यह है कि वाजसनेय याज्ञवल्क्य का पितृ(गुरु) बोधक नाम है, क्योंकि वे 'वाजसन' ऋषि के वंशज थे तथा तैत्तिरीय तित्तिर से बना है, जो यास्क के एक शिष्य का नाम है। वेबर इस वेद के सबसे बड़े आधुनिक विद्वान् माने जाते हैं। उनका मत है कि कितनी भी यह कथा अतर्कपूर्ण हो किन्तु इसके भीतर एक सत्य छिपा हुआ है; कृष्ण यजुर्वेद विभिन्न गद्य-पद्य शैलियों का अपरिपक्व एवं क्रमहीन ग्रन्थ है। गोल्डस्टूकर का मत है कि इसका ऐसा अनगढ़ रूप इस कारण है कि इसमें मन्त्र एवं ब्राह्मण भाग स्पष्टता से अलग नहीं है, जैसा कि अन्य वेदों में है। ब्राह्मणों से सम्बन्धित स्तुतियाँ तथा सामग्री यहाँ मन्त्रों से मिल-जुल गयी है। यह दोष शुक्ल यजुर्वेद में दूर हो गया है।

यजुष् (स्)
पद्यात्मक ऋचाओं से भिन्न गद्यात्मक वेदमन्त्र। इसका शाब्दिक अर्थ है यज्ञ, पूजा, श्रद्धा, आदर आदि। वेद का वह भाग, जिसका सम्बन्ध यज्ञ, पूजा आदि से है यजुष् (स्) कहलाता है। यजुर्वेद का यह नाम इसलिए है कि इसके मन्त्र यज्ञक्रियाओं के अवसर पर उच्चरित होते हैं।

यज्ञ
यजन, पूजन, संमिलित विचार, वस्तुओं का वितरण। बदले के कार्य, आहुति, बलि, चढ़ावा, अर्प आदि के अर्थ में भी यह शब्द व्यवहृत होता है। यजुर्वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों और श्रौतसूत्रों में यज्ञविधि का बहुत विस्तार हुआ है। यज्ञ वैदिक विधानों में प्रधान धार्मिक कार्य है। यह इस संसार तथा स्वर्ग दोनों में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का साधन है। जो इसका ठीक प्रयोग जानते हैं तथा विधिवत् इसका सम्पादन करते हैं, वास्तव में वे इस संसार के स्वामी हैं। यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यन्त्र समझना चाहिए जिसके सभी पुर्जे ठीक-ठीक स्थान पर बैठे हों; या यह ऐसी जंजीर है जिसकी एक भी कड़ी कम न हो; या यह ऐसी सीढ़ी है जिससे स्वर्गरोहण किया जा सकता है; या वह एक व्यक्तित्व है जिसमें सारे मानवीय गुण हैं।
यज्ञ सृष्टि के आदि से चला आ रहा है। सृष्टि की उत्पत्ति यज्ञ का फल कही जाती है जिसे ब्रह्मा ने किया था। होमात्मक यज्ञ का विस्तार आहवनीय अग्नि से होता है, जिसमें यज्ञ की सभी सामग्री छोड़कर स्वर्ग भेजी जाती है--मानों यज्ञ एक निसेनी का निर्माण करता है, जिसके द्वारा यज्ञ करने वाला देवों तक यज्ञ की सामग्री पहूँचा सकता है तथा स्वयं भी उनके निवासों तक पहुँच सकता है।

यज्ञमूर्ति
एक अद्वैतवादी प्रौढ़ विद्वान्, जो रामानुज के समकालीन हुए हैं। कहा जाता है कि रामानुज स्वामी की बढ़ती हुई ख्याति को सुनकर यज्ञमूर्ति श्रीरङ्गम में आये। उनके साथ रामानुज का 16 दिनों तक शास्त्रार्थ होता रहा, परन्तु कोई एक दूसरे को हराता हुआ नहीं दीख पड़ा। अन्त में रामानुज ने 'मायावादखण्डन' का अध्ययन किया और उसकी सहायता से यज्ञमूर्ति को परास्त किया। यज्ञमूर्ति ने वैष्णव मत स्वीकार कर लिया। तबसे उनका देवराज नाम पड़ा। उनके रचित 'ज्ञानसार' तथा 'प्रमेयसागर' नामक दो ग्रन्थ तमिल भाषा में मिलते हैं।


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