व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का द्वितीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तत्व निम्नांकित है :
फकारं श्रृणु चार्वङ्ग रक्तिविद्युल्लतोपमम्। चतुर्वर्गप्रदं वर्ण पञ्चदेवमयं।। पञ्चप्राणमयं वर्णं सदा त्रिगुण संयुतम्। आत्मादित्त्व संयुक्तं त्रिबिन्दु सहितं सदा।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं :
तान्त्रिक मन्त्रों का एक सहायक शब्द। इसका स्वयं कुछ अर्थ नहीं होता, यह अव्यय है और मन्त्रों के अन्त में आघात या घात क्रिया के बोधनार्थ जोड़ा जाता है। यह अस्त्रबीज है। 'बीजवर्णाभिधान' में कहा गया है : 'फडत्वं शस्त्रमायुधम्।' अर्थात् फट् शास्त्र अथवा आयुध के अर्थात् फट् शस्त्र अथवा आयुध के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अभिचार कर्म में 'स्वाहा' के स्थान में इसका प्रयोग होता है। वाजसनेयी संहिता (7.3) में इसका उल्लेख हुआ है :
देवांशो यस्मै त्वेडे तत्सत्यमुपरि प्रुता भङ्गेन हतोऽसौफट्।' 'वेददीप' में महीधर ने इसका भाष्य इस प्रकार किया है :
शुक्ल पक्ष की तृतीया को इस व्रत का आरम्भ होता है। एक वर्ष पर्यन्त यह चलता है। देवी दुर्गा इसकी देवता हैं। यह व्रत अधिकांशतः महिलाओं के लिए विहित है। इसमें फलों के दान का विधान है परन्तु व्रती स्वयं फलों का परित्याग कर नक्त पद्धति से आहार करता है तथा प्रायः गेहूँ के बने खाद्य तथा चने, मूँग आदि की दालें ग्रहण करता है। परिणामस्वरूप उसे कभी भी सम्पत्ति अथवा धान्यादि का अभाव तथा दुर्भाग्य नहीं देखना पड़ता।
फलत्यागव्रत
यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, अष्टमी, द्वादशी अथवा चतुर्दशी को आरम्भ होता है, एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसके शिव देवता हैं। एक वर्ष तक व्रती को समस्त फलों के सेवन का निषेध है। वह केवल 18 धान्य ग्रहण कर सकता है। उसे भगवान् शंकर, नन्दीगण तथा धर्मराज की सुवर्ण प्रतिमाएँ बनवाकर 16 प्रकार के फलों की आकृति के साथ स्थापित करना चाहिए। फलों में कूष्माण्ड, आम्र, बदर, कदली, उनसे कुछ छोटे आमलक, उदुम्बर, बदरी तथा अन्य फलों (जैसे इमली) की त्रिधातु की आकृतियाँ बनवाकर धान्य के ढेर पर रखनी चाहिए। दो कलशों को जल से परिपूर्ण करके वस्त्र से आच्छादित किया जाय। वर्ष के अन्त में पूजा तथा व्रत के उपरान्त उपर्युक्त समस्त वस्तुएँ तथा एक गौ किसी सपत्नीक ब्राह्मण को दान में दे दी जायँ। यदि उपर्युक्त वस्तुओं को देने में व्रती असमर्थ हो तो केवल धातु के फलों, कलश तथा शिव एवं धर्मराज की प्रतिमाएँ ही दान में दे दे। इस आयोजन से व्रती रुद्रलोक में सहस्रों युगों तक निवास करता है।
फलव्रत
(1) आषाढ़ से चार मास तक विशाल फलों के उपभोग का त्याग (जैसे कटहल, कूष्माण्ड) तथा कार्तिक मास में उन्हीं फलों को सोने के बनवाकर एक जोड़ा गौ के साथ दान करना, इसको फलव्रत कहते हैं। इसके सूर्य देवता हैं। इसके आचरण से सूर्यलोक में सम्मान मिलता है। (2) कालनिर्णय, 140 तथा ब्रह्मपुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा को व्रती को मौन व्रत धारण करते हुए तीन प्रकार के (प्रत्येक प्रकार के फलों में 16, 16) पके हुए फल लेकर उन्हें देवार्पण करके किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए।
फलषष्ठीव्रत
मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन, षष्ठी को एक सुवर्णकमल तथा एक सुवर्णफल बनवाना चाहिए। मध्याह्न काल में दोनों को किसी मृत्पात्र या ताम्रपात्र में रखना चाहिए। उस दिन उपवास रखते हुए फूल, फल, गन्ध, अक्षत आदि से उनका पूजन करना चाहिए। सप्तमी को पूर्व वस्तुएँ निम्नोक्त शब्द बोलते हुए दान कर देनी चाहिए 'सूर्यः मां प्रसीदतु'। व्रती को अगले कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक एक फल त्याग देना चाहिए। यह आचरण एक वर्ष तक हो, प्रत्येक मास में सप्तमी के दिन सूर्य के बारह नामों में से किसी एक नाम का जप किया जाय। इन आचारणों से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में सम्मानित होता है।
फलसङ्क्रान्तिव्रत
सङ्क्रान्ति के दिन स्नानोपरान्त पुष्पादि से सूर्य का पूजन करना चाहिए। बाद में शर्करा से परिपूर्ण पात्र आठ फलों के सहित किसी को दान करना चाहिए। तदुपरान्त किसी कलश पर सूर्य की प्रतिमा रखकर पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए।
फलसप्तमी
(1) भाद्र शुक्ल सप्तमी को उपवास रखते हुए सूर्य का पूजन, अष्टमी को प्रातः सूर्यपूजन तथा ब्राह्मणों को खजूर, नारिकेल तथा मातुलुङ्ग फलों का दान किया जाय तथा ये शब्द बोले जायँ : 'सूर्यः प्रसीदतु'। व्रती अष्टमी को एक फल खाये तथा इन शब्दों का उच्चारण करे : 'सर्वाः कामनाः परिपूर्णा भवन्तु'। मन के सन्तोषार्थ वह और फल खा सकता है। एक वर्ष इस कृत्य का आचरण करना चाहिए। व्रती इससे पुत्र-पौत्र प्राप्त करता है।
(2) भाद्र शुक्ल चतुर्थी, पञ्चमी तथा षष्ठी को क्रमशः अयाचित, एकभक्त तथा उपवास पद्धति से आहार करे। गन्धाक्षत, पुष्पादि से सूर्य का पूजन तथा सूर्यप्रतिमा जिस वेदी पर रखी जाय उसके सम्मुख रात्रि को शयन करे। सप्तमी के दिन पूजनोपरान्त फलों का नैवेद्य अर्पण किया जाय, ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय, तदनन्तर स्वयं भोजन करना चाहिए। यदि फलों का नैवेद्य अर्पण करने की क्षमता न हो तो गेहुँ या चावल के आटे में घी, गुड़, जायफल का छिलका तथा नागकेसर मिलाकर, नैवेद्य बनाकर अर्पित किया जाय। यह क्रम एक वर्ष तक चलना चाहिए। व्रत के अन्त में सामर्थ्य हो तो सोने के फल, गौ, वस्त्र, ताम्रपात्र का दान किया जाय। व्रती निर्धन हो तो ब्राह्मणों को फल तथा तिल के चूर्ण भोजन करा दे। इससे व्रती समस्त पापों, कठिनाइयों तथा दारिद्र्य से दूर होकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है।
(3) मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन किया जाय, षष्ठी को उपवास, एक सुवर्णकमल, एक फल तथा शर्करा दान में दी जाय। दान के समय 'सूर्यः मां प्रसीदतु' मंत्रोच्चारण किया जाय। सप्तमी के दिन ब्राह्मणों को दुग्ध सहित भोजन कराया जाय। उस दिन से आने वाली कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक व्रती को कोई एक फल छोड़ देना चाहिए। सूर्य नारायण के भिन्न-भिन्न नाम लेकर उनका पूजन साल भर चलाना चाहिए। वर्ष के अन्त में सपत्नीक ब्राह्मण को वस्त्र, कलश, शर्करा, सुवर्ण का कमल तथा फलादि देकर सम्मान करना चाहिए। इससे व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक जाता है।
फलाहारहरिप्रिय व्रत
विष्णुधर्मोत्तर (3.149.1-10) के अनुसार यह चतुर्मूर्तिव्रत है। वसन्त में विषुव दिवस से तीन दिन के लिए उपवास प्रारम्भ कर वासुदेव भगवान की पूजा करनी चाहिए। तीन मास तक यह पूजा प्रतिदिन चलती है। तदनन्तर तीन मास तक केवल फलाहार करना चाहिए। इसके पश्चात् शरद् में विषुव के तीन मास तक उपवास करना चाहि। इसमें प्रद्युम्न के पूजन का विधान है। इस समय यावक का आहार करना चाहिए। वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों को दान देना चाहिए। इससे मनुष्य विष्णुलोक प्राप्त करता है।
फल्गुतीर्थ (सोमतीर्थ)
कुरुक्षेत्रमण्डल का पवित्र तीर्थ। यहाँ फलों का प्राचीन वन था, जो कुरुक्षेत्र के सात पवित्र वनों में गिना जाता था। यहाँ पर पितृपक्ष में तथा सोमवती अमावस्या के दिन बहुत बड़ा मेला लगता है। कहा जाता है कि यहाँ श्राद्ध, तर्पण तथा पिण्डदान करने से गया के समान ही फल होता है।