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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अन्तःस्थ वर्णों का दूसरा अक्षर। कामधेनुतन्त्र (पटल 6 में इसका स्वरूप निम्नांकित बतलाया गया है : रेफञ्च चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वय संयुतम्। रक्तविद्युल्लताकारं पञ्चदेवात्मकं सदा।। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा।। तन्त्रशास्त्र में इसके अधोलिखित नाम कहे गये हैं : रो रक्तः क्रोधिनी रेफः पावकस्त्वोजसो मतः। प्रकाशादर्शनो दीपो रक्तकृष्णापरं बली।। भुजङ्गेशो मतिः सूर्यो धूतुरक्तः प्रकाशकः। अप्यको रेवती दासः कुक्ष्यंशो विह्नमण्डलम्।। उग्रेरखा स्थूलदण्डो वेदकण्टपला पुरा। प्रकृतिः सुगलो ब्रह्मशब्दश्च गायको धनम्।। श्रीकण्ठ ऊष्मा हृदयं मुण्डीं त्रिपुरसुन्दरी। सबिन्दुयोनिजो ज्वाला श्रीशैलो विश्वतोमुखी।।

रक्तसप्तमी
मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी का रक्तसप्तमी नाम है। इस तिथिव्रत में रक्त कमलों से सूर्य की अथवा श्वेत पुष्पों से सूर्यप्रतिमा की पूजा विहित है। सूर्य की प्रतिमा पर रक्त चन्दन से प्रलेप लगाना चाहिए। इस पूजन में सूर्य को दाल के बड़े और कृशरा (चावल, दाल तथा मसालों से बनी खिचड़ी) अर्पित करने का विधान है। पूजन के उपरान्त रक्तिम वस्त्रों के एक जोड़े का दान करना चाहिए।

रक्षापञ्चमी
भाद्र कृष्ण पञ्चमी को रक्षापञ्चमी कहते हैं। इसदिन काले रंग से सर्पों की आकृतियाँ खींचकर उनका पूजन करना चाहिए। इससे व्रती तथा उसकी सन्तानों को सर्पों का भय नहीं रहता।

रक्षाबन्धन
श्रावण पूर्णिमा के दिन पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वादात्मक कर्म। रक्षा वास्तव में रक्षासूत्र है जो ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा जाता है। यह धर्मबन्धन में बाँधने का प्रतीक है, इसलिए रक्षाबन्धन के अवसर पर निम्नांकित मन्त्र पढ़ा जाता है :
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वां प्रतिबन्धनामि रक्षे मा चल मा चल।।
[ जिस (रक्षा के द्वारा) महाबली दानवों के राजा बलि (धर्मबन्धन में) बाँधे गये थे, उसी से तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षे, चलायमान न हो, चलायमान न हो।] युग में ऐतिहासिक कारणों से रक्षाबन्धन का महत्त्व बढ़ गया। देश पर विदेशी आक्रमण होने के कारण स्त्रियों का मान और शील संकट में पड़ गया था, इसलिए बहिनें भाइयों के हाथ में 'रक्षा' या 'राखी' बाँधने लगीं, जिससे वे अपने बहिनों की सम्मानरक्षा के लिए धर्मबद्ध हो जायँ।

रघुनन्दन भट्टाचार्य
बंगाल के विख्यात धर्मशास्त्री रघुनन्दन भट्टाचार्य (1500 ई०) ने अष्टाविंशतितत्त्व नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें स्मार्त हिन्दू के कर्त्तव्यों की विशद व्याख्या है। यह ग्रन्थ सनातनी हिन्दुओं द्वारा अत्यन्त सम्मानित है।

रघुनाथदास
महाप्रभु चैतन्य के छः प्रमुख अनुयायी भक्तों में रघुनाथदास भी एक थे। ये वृन्दावन में रहते थे और अपने शेष पाँच सहयोगी गोस्वामियों के साथ चैतन्य मत के ग्रन्थ लेखन तथा साम्प्रदायिक क्रियाओं का रूप तैयार करने में लगे रहते थे। ये गोस्वामी गण भक्ति, दर्शन, क्रिया (आचार) पर लिखते थे, भाष्य रचते थे, सम्प्रदाय सम्बन्धी काव्य तथा प्रार्थना लिखते थे। ये ग्रन्थ सम्प्रदाय की पूजा पद्धति एवं दैनन्दिन जीवन पर प्रकाश डालने के लिए लिखे जाते थे। इन लोगों ने मथुरा एवं वृन्दावन के आस-पास के पवित्र स्थानों को ढूँढ़ा तथा उनका 'मथुरामाहात्मय' में वर्णन किया और एक यात्रापथ (वनयात्रा) की स्थापना की, जिस पर चलकर सभी पवित्र स्थलों की परिक्रमा यात्री कर सकें। इन लोगों ने वार्षिक 'रासलीला' का अभिन्य भी आरम्भ किया।

रघुनाथ भट्ट
महाप्रभु चैतन्य के छः शिष्यों एवं वृन्दावन में बस जाने वाले गोस्वामियों में से एक। ये रघुनानदास गोस्वामी के भाई थे। दे० 'रघुनाथदास'।

रघुवीरगद्य
आचार्य वेङ्कटनाथ (1325-1426 वि०) ने अपने तिरुपाहिन्द्रपुर के निवासकाल में रघुवीरगद्य नामक स्तोत्र ग्रन्थ लिखा। यह तमिल भाषा में है। भगवद्भक्ति इसमें कूट-कूटकर भरी गयी है।

रङ्गपञ्चमी
फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी को रङ्गपञ्चमी कहा जाता है। इसी दिन शिव को रङ्ग अर्पित किया जाता है और रङ्गोत्सव प्रारम्भ हो जाता है।

रङ्गनाथ
(1) श्रीरङ्गम में भगवान् रङ्गनाथ का मन्दिर है। तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने जब श्रीरङ्गम पर अधिकार कर लिया तब यहाँ का मन्दिर भी उन्होंने अपवित्र कर डाला। इस काल में रङ्गनाथ की मूर्ति मुस्लिम शासन से निकलकर दक्षिण भारत के कई स्थानों में घूमती रही। जब पुनः यहाँ हिन्दू राज्य स्थापित हो गया, श्रीरङ्गम् में इसकी पुनः स्थापना वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ की उपस्थिति में हुई। आज भी उनके रचित मन्त्र मन्दिर की दीवारों पर लिखे हुए पाये जाते हैं।
(2) रङ्गनाथ ब्रह्मसूत्रों की शाङ्कर भाष्यानुसारिणी वृत्ति के रचयिता हैं। इनका स्थितिकाल सत्रहवीं शताब्दी था।


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