व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन निम्नाङ्कित है :
टकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली। कोटि विद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा।। पञ्चप्राणयुतं वर्णं गुणत्रयसमन्वितम्। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा।। तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :
टङ्कारश्च कपाली च सोमधा खेचरी ध्वनिः। मुकुन्दों विनदा पृथ्वी वैष्णवी वारुणी नयः।। दक्षाङ्गकार्द्धचन्द्रश्च जरा भूति पुनर्भवः। बृहस्पतिर्धनुश्चित्रा प्रमोदा विमला कटिः।। राजा गिरिर्महाधनुर्प्राणात्मा सुमुखो मरुत्।।
टिप्पणी
किसी ग्रन्थ के ऊपर यत्र-तत्र विशेष सूचनिका जैसे उल्लेख को 'टिप्पणी' कहते हैं। उदाहरण के लिए 'महाभाष्य' की टीका उपटीकाएँ कैयट और नागेश ने लिखी हैं, उन पर आवश्यकतानुसार यत्र-तत्र वैद्यनाथ पायगुण्डे ने 'छाया' नामक टिप्पणी लिखी है। बहुत से ऐसे धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थ हैं जिन पर भाष्य, टीका, टिप्पणी आदि क्रमशः पाये जाते हैं।
टीका
ग्रन्थों के भाष्य अथवा विवरण लेखों को टीका कहते हैं (टीक्यते गम्यते प्रविश्यते ज्ञायते अनया इति)। वास्तव में 'टीका' ललाट में लगायी जानेवाली कुंकुम आदि की रेखा को कहते हैं। इसी तरह प्राचीन हस्तलेखपत्र के केन्द्र या मध्यस्थल में मूल रचना लिखी जाती थी और ऊर्ध्व भाग में ललाट के तिलक की तरह मूल की व्याख्या लिखी जाती थी। मस्तकस्थ टीका के सादृश्य से ही ग्रन्थव्याख्या को भी टीका कहा जाने लगा। ग्रन्थ के ऊर्ध्व भाग में टीका के न अमाने पर उसे पत्र के निचले भाग में भी लिख लिया जाता था।
टुप्टीका
पूर्वमीमांसा विषयक 'शबरभाष्य' पर अष्टम शती वि० के उत्तरार्द्ध में कुमारिल भट्ट ने एक अनुभाष्य लिखा, जिसके तीन भाग हैं-- (1) श्लोकवार्त्तिक (पद्यमय, अध्याय एक के प्रथम पाद पर) (2) तन्त्रवार्तिक (गद्य, अध्याय एक के अवशेष तथा अध्याय दो व तीन पर) और (3) टुप्टीका (गद्य)। टुप्टीका अध्याय चार से बारह तक के ऊपर संक्षिप्त टिप्पणी है। (पूर्वमीमांसा दर्शन कुल बारह अध्यायों में है।)