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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

ऊष्मवर्णों का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है :
शकारं परमेशानि श्रृणु वर्णं शुचिस्मिते। रक्तवर्णप्रभाकारं स्वयं परमकुण्डली।। चतुर्वर्गप्रदं देवी शकारं ब्रह्मविग्रहम्। पञ्चेदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं प्रिये।। रजःसत्वतमो युक्तं त्रिबिन्दुसहितं सदा। त्रिशक्तिसहितं वर्णमात्मादित्त्वसंयुतम्।।
योगिनीतन्त्र (तृतीय भाग, सप्तम पटल) में इसके निम्नलिखित वाचक बतलाये गये हैं :
शः सव्यश्च कामरूपी कामरूपो महामतिः। सौख्यनामा कुमारोऽस्थि श्रीकण्ठो वृषकेतनः।। विषध्नं शयनं शान्ता सुभगा विस्फुलिङ्गिनी। मृत्युर्देवो महालक्ष्मीर्महेन्द्रः कुलकौलिनी।। बागुर्हंसो वियद् वक्रं हृदनङ्गाकुशः खलः। वामोरुः पुण्डरीकात्मा कान्तिः कल्याणवाचकः।।

शकुन्तला
शतपथ ब्राह्मण (13.5.4.13) के अनुसार एक अप्सरा का नाम, जिसने भरत को नाडपित नामक स्थान पर जन्म दिया था। ब्राह्मणों, माहाभारत, पुराणों और परवर्ती साहित्य में शकुन्तला मेनका नामक अप्सरा से उत्पन्न विश्वामित्र की पुत्री कही गयी है। मेनका स्वर्ग लौटने के पूर्व पुत्री को पृथ्वी पर छोड़ गयी, जिसका पालन शकुन्त पक्षियों ने किया। इसके पश्चात् वह कण्व ऋषि की धर्मपुत्री हुई और उनके आश्रम में ही पालित और शिक्षित हुई। उसका गान्धर्वविवाह पौरववंशी राजा दुष्यन्त से हुआ, जिससे भरत की उत्पत्ति हुई। भरत चक्रवर्ती राजा था, जिसके नाम पर एक परम्परा के अनुसार इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

शक्ति
शक्ति की कल्पना तथा आराधना भारतीय धर्म की अत्यन्त पुरानी औऱ स्थायी परम्परा है। अनेक रूपों में शक्ति की कल्पना हुई है, प्रधानतः मातृरूप में। इसका विशेष पल्लवन पुराणों और तन्त्रों में हुआ। हरिवंश औऱ मार्कण्डेय पुराण के देवीमाहात्म्य में देवी अथवा शक्ति का विशेष वर्णन और विवेचन किया गया है। देवी को उपनिषदों का ब्रह्म तथा एकमात्र सत्ता बतलाया गया है। दूसरे देव इसी की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। दैवी शक्ति का यह सिद्धान्त यहाँ सर्वप्रथम व्यक्त हुआ है। इस प्रकार वह (शक्ति) विशेष पूजा तथा आराधना के योग्य है। मनुष्य जब कुछ अपनी मनोरथ पूर्ति कराना चाहेगा तो उसी से अनुनय-विनय करेगा, शिव से नहीं।
शाक्त साहित्य में शक्तिरहित शिव को शवतुल्य बताया गया है। शक्ति ही शिव या ब्रह्म की विशुद्ध कार्यक्षमता है। अर्थात् वही सृष्टि एवं प्रलयकर्त्री है तथा सब दैवी कृपा तथा मोक्ष प्रदान उसी के कार्य हैं। इस प्रकार शक्ति शिव से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। शक्ति से ही विशेषण 'शाक्त' बनता है जो शक्ति-उपासक सम्प्रदाय का नाम है। शक्ति ब्रह्मतुल्य है। शक्ति और ब्रह् का एक मात्र अन्तर यह है कि शक्ति क्रियाशील भाग है तथा ब्रह्म को सभी उत्पन्न वस्तुओं तथा जीवों के रूप में वह व्यक्त वा द्योतित करती है। जबकि ब्रह्म अव्यक्त एवं निष्क्रिय है। धार्मिक दृष्टि से वह ब्रह्म से श्रेष्ठ है। शक्ति मूल प्रकृति है तथा सारा विश्व उसी (शक्ति) का प्रकट रूप है। दे० 'योग', 'क्रिया', 'भूति'।

शक्ति उपासना
पुराणों के परिशीलन से पता चलता है कि प्रत्येक सम्प्रदाय के उपास्य देव की एक शक्ति है। गीता में भगवान् कृष्ण अपनी द्विधा प्रकृति, माया की बारम्बार चर्चा करते हैं। पुराणों में तो नारायण औऱ विष्णु के साथ लक्ष्मी के, शिव के साथ शिवा के, सूर्य के साथ सावित्री के, गणेश के साथ अम्बिका के चरित और माहात्म्य वर्णित हैं। इनके पीछे जब स्प्रदायों का अलग-अलग विकास होता है तो प्रत्येक सम्प्रदाय अपने उपास्य की शक्ति की उपासना करता है। इस तरह शक्ति उपासना की एक समय ऐसी प्रबल धारा बही कि सभी सम्प्रदायों के अनुयायी मुख्य रूप से नहीं तो गौण रूप से शाक्त बन गये। अपने उपास्य के नाम पहले शक्ति के स्मरण करने की प्रथा चल पड़ी। सीताराम, राधाकृष्ण लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर, गौरीगणेश, इत्यादि नाम इसी प्रभाव के सूचक हैं। सचमुच सारी आर्य जनता किसी समय शाक्त थी और इसके दो दल थे; एक दल में शैव, वैष्णव, सौर, गाणपत्य, आदि वैदिक सम्प्रदायों के दक्षिणाचारी थे और दूसरी ओर बौद्ध, जैन और अवैदिक तान्त्रिक सम्प्रदायों के शाक्त वामाचारी थे। इतना व्यापक प्रचार होने के कारण ही शायद शाक्तों का कोई मठ या गद्दी नहीं बनी। इनके पाँच महापीठ या 51 पीठ ही इनके मठ समझे जाने चाहिए। दे० 'वैदिक शाक्तमत'।

शक्तितन्त्र
आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों की सूची में शक्तितन्त्र भी उल्लिखित है।

शक्तिविशिष्टाद्वैत
श्रीकण्ठ शिवाचार्य ने वायवीय संहिता के आधार पर सिद्ध किया है कि भगवान् महेश्वर अपने को उमा शक्ति से विशिष्ट किये रहते हैं। इस शक्ति में जीव और जगत्, चित् औऱ अचित्, दोनों का बीज उपस्थित रहता है। उसी शक्ति से महेश्वर चराचर सृष्टि करते हैं। इस सिद्धान्त को शक्तिविशिष्टाद्वैत कहते हैं। वीर शैव अथवा लिङ्गायत इस शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को अपनाते हैं। शाक्तों के अनुसार शक्ति परिणामी हैं, विवर्त नहीं है। शाक्तों का वेदान्तमत शक्तिविशिष्टाद्वैत है।

शक्तिसंगमतन्त्र
नेपाल प्रदेश में एक लाख श्लोकों वाला शक्तिसङ्गमतन्त्र प्रचलित है। इस महातन्त्र में शाक्त सम्प्रदाय का वर्णन विस्तार से मिलता है। इसके उत्तर भाग, पहले खण्ड, आठवें पटल के तीसरे लेकर पचीसवें श्लोकों का सार यहाँ दिया जाता है :
सृष्टि की सुविधा के लिए यह प्रपञ्च रचा गया है। शाक्त, सौर, शैव, गाणपत्य, वैष्णव, बौद्ध आदि यद्यपि भिन्न नाम हैं, भिन्न सम्प्रदाय हैं, परन्तु वास्तव में ये एक ही वस्तु हैं। विधि के भेद से भिन्न दीखते हैं। इनमें परस्पर निन्दा, द्वेष इस प्रपञ्च के लिए ही हैं। निन्दक की सिद्धि नहीं होती। जो ऐक्य मानते हैं उन्हीं को उनके सम्प्रदाय से सिद्धि मिलती है। काली औऱ तारा की उपासना इसी ऐक्य की सिद्धि के सिद्ध के लिए की जाती है। यह महाशक्ति भले, बुरे; सुन्दर औऱ क्रूर; दोनों को धारण करती है। यही मत प्रकट करने के लिए शास्त्र का कीर्तन किया गया है। इस एकत्व प्रतिपादन के लिए ही चारों वेद प्रकट किये गये हैं। जगत्तारिणी देवी चतुर्वेदमयी और कालिका देवी अथर्ववेदाधिष्ठात्री है, काली और तारा के बिना अथर्ववेदविहित कोई क्रिया नहीं हो सकती। केरल देश में कालिका देवी, कश्मीर में त्रिपुरा और गौड़ देश में तारा ही पश्चात् काली रूप में उपास्य होती हैं।
इस कथन से पता चलता है कि इनसे पहले के साम्प्रदायिकों में, जिनमे शाक्त भी शामिल हैं; और ये अवश्य ही वैदिक शाक्त हैं--यह तान्त्रिक शाक्तधर्म अथवा वामाचार बाद में प्रचलित हुआ।

शङ्करजय
माधवाचार्य विरचित इस ग्रन्थ में आचार्य शङ्कर की जीवन सम्बन्धी घटनाओं का सङ्कलन संक्षिप्त रूप में हुआ है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी कोई प्रामाणिकता नहीं है। यह उत्तम काव्य ग्रन्थ है।

शङ्करदिग्विजय
स्वामी आनन्द गिरि कृत शङ्करदिग्विजय शङ्कराचार्य की जीवन घटनाओं का काव्यात्मक संकलन है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक नहीं है। 'शङ्करदिग्विजय' और भी कई विद्वानों ने लिखे हैं। इनमें माधवाचार्य एवं सदानन्द के नाम मुख्य हैं।

शङ्कर मिश्र
शङ्कर मिश्र का नाम भी उन चार पण्डितों में है, जिन्होंने न्याय-वैशेषिक दर्शनों को एक में युक्त करने के लिए तदनुरूप ग्रन्थों का प्रणयन किया। शङ्कर मिश्र ने इस कार्य को वैशेषिकसूत्रोपस्कार की रचना द्वारा पूरा किया। यह ग्रन्थ 15वीं शती में रचा गया था।


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