logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

स्वरवर्ण का षष्ठ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तन्त्रात्मक महत्त्व निम्नांकित है :
शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डली। पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा।। पञ्चप्राणयुतं वर्णं पीतविद्युल्लता तथा। धर्मार्थकाममोक्षञ्च सदा सुखप्रदायकम्।।
[ऊ अक्षर शङ्क्ख तथा कुन्द के समान श्वेतवर्ण का है। परम कुण्डलिनी (शक्ति का अधिष्ठान) है। यह पञ्च प्राणमय तथा पञ्च देवमय है। पाँच प्राणों से संयुक्त यह वर्ण पीत विद्युत की लता के समान है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और सुख को सदा देनेवाला है।] वर्णोद्धारतन्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं :
ऊः कण्टकी रति शान्तः क्रोधनो मधुसूदनः। कामराजः कुजेशश्च महेशो वामकर्णकः।।, अर्धीशो भैरवः सूक्ष्मो दीर्घघोषा सरस्वती। विलासिनी विघ्‍नकर्ता लक्ष्मणो रूपकर्षिणी।। महाविद्येश्वरी षष्ठा षण्ढो भूः कान्यकुब्जकः।।

ऊर्णा
ऊन; भेड़ आदि के रोम। भौंहों का मध्यभाग भी ऊर्णा कहलाता है। दोनों भौंहों के मध्य में मृणालतन्तुओं के समान सूक्ष्म सुन्दर आकार की उठी हुई रेखा महापुरुषों का लक्षण है। यह चक्रवर्ती राजा तथा महान् योगियों के ललाट में भी होती है। योगमूर्तियों के ललाट में ऊर्ण अङ्कित की जाती है। वह ध्यान का प्रतीक है।

ऊर्णनाभ
एक प्राचीन निरुक्तकार, जिनका उल्लेख यास्क ने निघण्टु की व्याख्या में किया है।

ऊर्ध्वपुण्ड्र
चन्दन आदि के द्वारा ललाट पर ऊपर की ओर खींची गयी पत्राकार रेखा। यथा :
ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्याद्वारिमृद्भस्मचन्दनैः।
[ब्राह्मण जल, मिट्टी, भस्म और चन्दन से ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक करे।]
ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुयार्त् क्षत्रियस्तु त्रिपुण्ड्रकम्। अर्द्धचन्द्रन्तु वैश्यश्च वर्तुलं शूद्रयोनिजः।।
[ब्राह्मण ऊर्ध्वपुण्ड्र, क्षत्रिय त्रिपुण्ड्र, वैश्य अर्धचन्द्र, शूद्र वर्तुलाकार चन्दन लगाये।]
विविध आकारों में सभी सनातनधर्मी व्यक्तियों द्वारा तिलक लगाया जाता है। किन्तु ऊर्ध्वपुण्ड्र वैष्णव सम्प्रदाय का विशेष चिह्न है। वासुदेव तथा गोपीचन्दन उपनिषदों (भागवत ग्रन्थों) में इसका प्रशंसात्मक वर्णन पाया जाता है। यह गोपीचन्दन से ललाट पर एक, दो या तीन खड़ी लम्ब रेखाओं के रूप में बनाया जाता है।
देवप्रसादी चन्दन, रोली, गंगा की या तुलसीमूल की रज या आरती की भस्म से भी ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक किया जाता है। प्रसादी कुंकुम या रोली से मस्तक के मध्य एक रेखा बनाना लक्ष्मी या श्री का रूप कहा जाता है। पत्राकार दो रेखाएँ बनाना भगवान का चरणचिह्न माना जाता है। ऊँकार की चौथी मात्रा अर्धचन्द्र और बिन्दु के लम्ब रूप में भी वह होता है।

ऊर्ध्वरेता
अखण्ड ब्रह्मचारी; जिसका वीर्य नीचे पतित न होकर देह के ऊपरी भाग में स्थिर हो जाय। सनकादि, शुकदेव, नारद, भीष्म आदि। भीष्म ने पिता के अभीष्ट विवाह के लिए अपना विवाह त्याग दिया। अतः वे आजीवन ब्रह्मचारी रहने के कारण ऊर्ध्वरेता नाम से ख्यात हो गये।
यह शंकर का भी एक नाम है :
ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभःस्थलः।
[ऊर्ध्वरेता, ऊर्ध्वलिङ्ग, ऊर्ध्वशायी, नभस्थल।]

ऊषीमठ
हिमालय प्रदेश का एक तीर्थ स्थल। जाड़ों में केदारक्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है। उस समय केदारनाथजी की चल मूर्ति यहाँ आ जाती है। यहीं शीतकाल भर उनकी पूजा होती है। यहाँ मन्दिर के भीतर बदरीनाथ, तुङ्गनाथ, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, ऊषा, अनिरुद्ध, मान्धाता तथा सत्ययुग-त्रेता-द्वापर की मूर्तियाँ एवं अन्य कई मूर्तियाँ हैं।


logo