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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

नकुल
(1) नकुल (नेवला) का उल्लेख अथर्ववेद (6.13.9,5) में साँप को दो टुकड़ों में काटने और फिर जोड़ देने में समर्थ जन्तु के रूप में किया गया है। इसके सर्पविष निवारण के ज्ञान का भी उल्लेख है (ऋग्वेद, 8.7,23)। यजुर्वेसंहिता में इस प्राणी का नाम अश्वमेधीय बलिपशुओं की तालिका में है।
(2) पाण्डवों में से चौथे भाई का नाम नकुल है।

नकुलीश पाशुपत
(नकुलीश शब्द में 'ल' को 'न' वर्णादेश) माधवाचार्य (चौदहवीं शती वि० का पूर्वार्द्ध) अपने 'सर्वदर्शनसंग्रह' में तीन शैव सम्प्रदायों का वर्णन करते हैं-- 'नकुलीश पाशुपत, शैवसिद्धान्त एवं प्रत्यभिज्ञा। उनके अनुसार आचार्य नकुलीश शङ्कर द्वारा वर्णित पाँच तत्वों की शिक्षा देते हैं--कार्य, कारण, भोग, विधि तथा दुःखान्त, जैसा कि 'पञ्चार्थविद्या' नाक ग्रन्थ में बतलाया गया है। 'लकुलिन्' का अर्थ है जो लकुल (गदा) धारण करता हो। पुराणाख्यानों के अनुसार शिव योगशक्ति से एक मृतक में प्रवेश कर गये तथा यह उनका लकुलीश अवतार कहलाया। यह घटनास्थल कायावरोहण या कारोहण (कायारोहण) कहलाता है जो गुजरात के लाट प्रदेश में है। लकुली द्वारा (जो सम्भवतः प्रथम शताब्दी ई० में पञ्चाध्यायी के रचयिता थे) स्थापित सिद्धान्तों से ही परवर्त्ती 'शैवसिद्धान्त' का जन्म हुआ।
इस प्रधान शाखा में माधवाचार्य के मतानुसार शिव के साथ जीवात्मा के एकत्व प्राप्त करने की साधना की जाती है। पवित्र मन्त्रोच्चारण, ध्यान तथा सभी कर्मों से मुक्ति द्वारा पहले 'संविद्' (वेदना) प्राप्त की जाती है। साधक योगाभ्यास से फिर अनेक रूप धारण करने तथा शव से सन्देश प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करता है। गीत, नृत्य, हास्य, प्रेम सम्बन्धी संकेतों को जगाने, विमोहितावस्था में बोलने, राख लपेटने तथा मन्दिरों के फूलों को धारण करने एवं पवित्र मन्त्र 'हुम्' के दीर्घ उच्चारण से धार्मिक भक्ति भावना जगायी जाती है। कालामुखों की विधि (आचार) नकुलीश पाशुपत विधि से मिलती जुलती है।

नक्कीरदेव
इनका जीवनकाल पाँचवी या छठी शताब्दी है। इस काल के तमिल शैवों के बारे में बहुत ही कम ज्ञात हुआ है। उनका कोई साहित्य प्राप्त नहीं है। नक्कीरदेव तमिल लेखक थे, जिन्होंने केवल एक प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तिरुमुरुत्तुप्पदइ' लिखा है। यह पद्य में है तथा 'मुरुइ' अथवा 'सुब्रह्मण्य' नामक देवता के सम्मान में रचा गया है।

नक्तचतुर्थी
मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का प्रारम्भ होता हैं, इसके देवता विनायक हैं। व्रती को नक्त भोजन पर आश्रित रहना चाहिए, तदनन्तर तिलमिश्रित खाद्य पदार्थों से व्रत की पारणा एक वर्ष पर्यन्त करनी चाहिए।

नक्तव्रत
एक दिवारात्रि का व्रत। उस तिथि को इसका आचरण करना चाहिए जिस दिन वह तिथि सम्पूर्ण दिन तथा रात्रि में व्याप्त रहे (निर्णयामृत्, 16-17)। नक्त का तात्पर्य है 'दिन में पूर्ण उपवास किन्तु रात्रि में भोजन।' नक्तव्रत एक मास, चार मास अथवा एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। श्रावण से माघ तक नक्त व्रत के लिए दे० लिङ्गपुराण (1.83.3-54); एक वर्ष तक नक्त वर्त के लिए दे० नारदपुराण (2.2.43)।

नक्षत्र
नक्षत्रों का वैदिक यज्ञों और अन्य धार्मिक कृत्यों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए ज्योतिष शास्त्र को वेदाङ्ग माना जाता है। नक्षत्र शब्द की उत्पत्ति अस्पष्ट है। इसके प्राथमिक अर्थ के बारे में भारतीय विद्वानों के विभिन्न मत हैं। शतपथ ब्राह्मण (2.1, 2,18-19) इसका विच्छेद 'न+क्षत्र' (शक्तिहीन) कर उसकी व्याख्या एक कथा के आधार पर करता है। निरुक्त इसकी उत्पत्ति नक्ष् (प्राप्ति करना) धातु से मानता है और इस प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मण का अनुकरण करता है। ऑफ्रेख्ट तथा वेबर इसे 'नक्त+त्र' (रात्रि के संरक्षक) से बना मानते हैं तथा आधुनिक लोग 'नक्+क्षत्र' (रात्रि के ऊपर अधिकार) इसका अर्थ करते हैं, जो अधिक मान्य लगता है और इस प्रकार इसका वास्तविक अर्थ 'तारा' ज्ञात होता है।
ऋग्वेद के सूक्तों में इसका प्रयोग 'तारा' के रूप में हुआ है। परवर्त्ती संहिताओं में भी इसका यही अर्थ है, जहाँ सूर्य और नक्षत्र एक साथ प्रयुक्त हैं, अथवा सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्र या चन्द्र तथा नक्षत्र अथवा नक्षत्र अकेले प्रयुक्त है। किन्तु इसका अर्थ कहीं भी आवश्यक रूप से 'चन्द्रस्थान' नहीं है। किन्तु ऋग्वेद में कम-से-कम तीन नक्षत्र 'चन्द्रस्थान' के अर्थ में प्रयुक्त हैं। तिष्य का प्रयोग चन्द्रस्थान के रूप में नहीं ज्ञात होता, किन्तु अघाओं (बहुबचन) तथा अर्जुनियों (द्विवजन) के साथ इसका दूसरा ही अर्थ होता है। हो सकता है कि यहाँ वे परवर्त्ती 'चन्द्रस्थान' हों जिन्हें मघा (बहुवचन) तथा फल्गुनी (द्विवचन) कहा जाता है। नामों का परिवर्तन ऋग्वेद में स्वतंत्रता से हुआ है। लुड्विग तथा जिमर ने ऋग्वेद में नक्षत्र के 27 सन्दर्भ देखे हैं, किन्तु यह असंभव जान पड़ता है और न तो रेवती (सम्पन्न) तथा पुनर्वसु (पुनः सम्पत्ति लाने वाला) नाम ही, जो अन्य ऋचा में प्रयुक्त हैं, नक्षत्रबोधक हैं।

नक्षत्र--चन्द्रस्थान के रूप में
परवर्ती संहिताओं में अनेक परिच्छेदों में चन्द्रमा तथा नक्षत्र वैवाहिक सूत्र में बाँधे गये हैं। काठक तथा तैत्तिरीय संहिता में नक्षत्रस्थानों के साथ सोम के विवाह की चर्चा है, किन्तु उसका (सोम का) केवल रोहिणी के साथ ही रहना माना गया है। चन्द्रस्थानों की संख्या दोनों संहिताओं में 27 नहीं कहीं गयी है। तैत्तिरीय में 33 तथा काठक में कोई निश्चित संख्या उद्धृत नहीं है। किन्तु तालिका में इनकी संख्या 27 ही जान पड़ती है, जैसा कि तैत्तिरीय संहिता या अन्य स्थानों पर कहा गया है। 28 की संख्या अच्छी तरह प्रमाणित नहीं है। तैत्तिरीय ब्राह्मणों में 'अभिजित्' नवागन्तुक है, किन्तु मैत्रायणी संहिता तथा अथर्ववेद की तालिका में इसे मान्यता प्राप्त है। सम्भवतः 28 ही प्राचीन संख्या और अभिजित् को पीछे तालिका से अलग कर दिया गया है, क्योंकि वह अधिक उत्तर में तथा अतिमन्द ज्योति का तारा है। साथ ही 27 अधिक महत्त्वपूर्ण संख्या (3x3x3) भी है। ध्यान देने योग्य है कि चीनी 'सीऊ' तथा अरबी 'मानासिक' (स्थान) संख्या में 28 हैं। वेबर के मत से 27 भारत की अति प्राचीन नक्षत्र-संख्या है।
संख्या का यह मान तब सहज ही समझ में आ जाता है जब हम यह देखते हैं कि महीने (चान्द्र) में 27 य़ा 28 दिन (अधिकतर 27) होते थे। लाट्यायन तथा निदानसूत्र में मास में 27 दिन, 12 मास का वर्ष तथा वर्ष 324 दिन माने गये हैं। नाक्षत्र वर्ष में एक महीना और जुड़ जाने से 354 दिन होते हैं। निदानसूत्र में नक्षत्र का परिचय देते हुए सूर्य (सावन) वर्ष में 360 दिनों का होना बताया गया है, जिसका कारण सूर्य का प्रत्येक नक्षत्र के लिए 13 1/3 दिन व्‍यय करना है (13 1/3 x 27x 360)।

नक्षत्रों के नाम
कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्ष या मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, तिष्य या पुष्य, आश्लेषा, मघा, फाल्गुनी, फल्गू या फल्गुन्य अथवा फल्गुन्यौ (दो नक्षत्र, पूर्व एवं उत्तर), हस्त, चित्रा, स्वाती या निष्टया, विशाखा, अनुराधा, रोहिणी, ज्येष्ठाग्नि या ज्येष्ठा, विकृतौ या मूल, आषाढा (पूर्व एवं उत्तर), अभिजित्, श्रोणी या श्रवण, श्रविष्ठा या धनिष्ठा, शतभिषक् या शतभिषा, प्रोष्ठपदा या भाद्रपदा (पूर्व एवं उत्तर), रेवती, अश्वयुजौ तथा अप (अव) भरणी, भरणी या भरण्या।

नक्षत्रों का स्थान
वैदिक साहित्य में यह कुछ निश्चित नहीं है, किन्तु परवर्त्ती ज्योतिष शास्त्र उनका निश्चित स्थान बतलाता है।

नक्षत्र तथा मास
ब्राह्मणों में नक्षत्रों से मास की तिथियों का बोध होता है। महीनों के नाम भी नक्षत्रों के नाम पर बने हैं : फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, प्रौष्ठपद, आश्वयुज, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष (तैष्य), माघ। वास्तव में ये चान्द्र मास ही हैं। किन्तु चान्द्र वर्ष का विशेष प्रचलन नहीं था। तैत्तिरीय ब्राह्मण के समय से इन चान्द्र मासों को सूर्यवर्ष के 12 महीनों के (जो 30 दिन के होते थे) समान माना जाने लगा था।


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