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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आधिवास
अन्यत्र जाकर रहना। धूपदानादि संस्कार द्वारा भावित करना भी अधिवास कहलाता है। उसके द्रव्य हैं : (1) मिट्टी, (2) चन्दन, (3) शिला, (4) धान्य (5) दूर्वा, (6) पुष्प, (7) फल, (8) दही (9) घी, (10) स्वस्तिक, (11) सिन्दूर, (12) शङ्ख, (13) कज्जल, (14) रोचना, (15) श्वेत सर्षप, (16) स्वर्ण, (17) चाँदी, (18) ताँबा, (19) चमर, (20) दर्पण, (21) दीप और (22) प्रशस्त पादप। किन्हीं ग्रन्थों में श्वेत सर्षप के स्थान पर तथा कहीं चमर के स्थान पर पका हुआ अन्न कहा गया है।

स्वर वर्णों का द्वितीय अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित बतलाया गया है :
आकारं परमाश्चर्यं शङ्खज्योतिर्मयं प्रिये। ब्रह्म (विष्णु) मयं वर्ण तथा रुद्रमयं प्रिये।। पञ्चप्राणमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली।।
[हे प्रिये! आ अक्षर परम आश्चर्यमय है। यह शङ्ख के समान ज्योतिर्मय तथा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रमय है। यह पाँच प्राणों से संयुक्त तथा स्वयं परम कुण्डलिनी शक्ति है।] वर्णाभिधान तन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं---
आकारो विजयानन्तो दीर्घच्छायो विनायकः। क्षीरोर्दाधः पयोदश्च पाशो दीर्घास्यवृत्तकौ।। प्रचण्ड एकजो रुद्रो नारायण इनेश्वरः। प्रतिष्ठा मानदा कान्तो विश्वान्तकगजान्तकः।। पितामहो दिगन्तो भूः क्रिया कान्तिश्च सम्भवः। द्वितीया मानदा काशी विघ्नराजः कुजो वियत्।।

आकाश
वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य--पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन माने गये हैं। इनमें पाँचवाँ द्रव्य आकाश है, यह विभु अर्थात् सर्वव्यापी द्रव्य है और सब कालों में स्थित रहता है। इसका गुण शब्द है तथा यह उसका समवायी कारण है।

आकाशदीप
कार्तिक मास में घी अथवा तेल से भरा हुआ दीपक देवता को उद्देश्य करते हुए किसी मन्दिर अथवा चौरस्ते पर खम्भे के सहारे आकाश में जलाया जाता है। दे० अपरार्क, 370, 372; भोज का राजमार्त्तण्ड, पृष्ठ 330; निर्णयसिन्धु, 195।

आकाशमुखी
एक प्रकार के शैव साधु, जो गरदन को पीछे झुकाकर आकाश में दृष्टि तब तक केन्द्रित रखते हैं, जब तक मांसपेशियाँ सूख न जायँ। आकाश की ओर मुख करने की साधना के कारण ये साधु 'आकाशमुखी' कहलाते हैं।

आगम
परम्परानुसार शिवप्रणीत तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है-- आगम, यामल और मुख्य तन्त्र। वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं। महानिर्वाणतन्त्र में महादेव ने कहा है :
कलिकल्मषदीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरि। मेध्यामेध्यविचाराणां न शुद्धिः श्रौतकर्मणा।। न संहिताभिः स्मृतिभिरिष्टसिद्धिर्नृणां भवेत्। सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यं सत्यं ह्यथोच्यते।। विना ह्यागममार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये। श्रुतिस्मृतिपुराणादौ मयैवोक्तं पुरा शिवे। आगमोक्तविधानेन कलौ देवान् यजेत् सुधीः।।
[कलि के दोष से दीन ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य को पवित्र-अपवित्र का विचार न रहेगा। इसलिए वेदविहित कर्म द्वारा वे किस तरह सिद्धि लाभ करेंगे? ऐसी अवस्था में स्मृति-संहितादि के द्वारा भी मानवों की इष्टसिद्धि नहीं होगी। मैं सत्य कहता हूँ, कलियुग में आगम मार्ग के अतिरिक्त कोई गति नहीं है। मैंने वेद-स्मृति-पुराणादि में कहा है कि कलियुग में साधक तन्त्रोक्त विधान द्वारा ही देवों की पूजा करेंगे।]
आगमों की रचना कब हुई, यह निर्णय करना कठिन है। अनुमान किया जाता है कि वेदों की दुरूहता और मंत्रों के कीलित होने से महाभारत काल से लेकर कलि के आरम्भ तक अनेक आगमों का निर्माण हुआ होगा। आगम अति प्राचीन एवं अति नवीन दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
आगमों से ही शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के आचार, विचार, शील, विशेषता और विस्तार का पता लगता है। पुराणों में इन सम्प्रदायों का सूत्र रूप से कहीं-कहीं वर्णन हुआ है, परन्तु आगमों में इनका विस्तार से वर्णन है। आजकल जितनें सम्प्रदाय हैं प्रायः सभी आगम ग्रन्थों पर अवलम्बित हैं।
मध्यकालीन शैवों को दो मोटे विभागों में बाँटा जा सकता है-- पाशुपत एवं आगमिक। आगमिक शैवों की चार शाखाएँ हैं, जो बहुत कुछ मिलती-जुलती और आगमों को स्वीकार करती हैं। वे हैं-- (1) शैव सिद्धान्त की संस्कृत शाखा, (2) तमिल शैव, (3) कश्मीर शैव और (4) वीर शैव। तमिल एवं वीर शैव अपने को माहेश्वर कहते हैं, पाशुपत नहीं, यद्यपि उनका सिद्धान्त महाभारत में वर्णित पाशुपत सिद्धान्तानुकूल है।
आगमों की रचना शैवमत के इतिहास की बहुत ही महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है। आगम अट्ठाईस हैं जो दो भागों में विभक्त हैं। इनका क्रम निम्नांकित है :
(1) शैविक--कामिक, योगज, चिन्त्य, करण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान् और सप्रभ (सुप्रभेद)।
(2) रौद्रिक-- विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, आग्नेयक, भद्र, रौरव, मकुट, विमल, चन्द्रहास (चन्द्रज्ञान), मुख्य युगबिन्दु (मुखबिम्ब), उद्गीता (प्रोद्गीता), ललित, सिद्ध, सन्तान, नारसिंह (सवोक्त या सवोत्तर), परमेश्वर, किरण और पर (वातुल)।
प्रत्येक आगम के अनेक उपागम हैं, जिनकी संख्या 198 तक पहुँचती है।
प्राचीनतम आगमों की तिथि का ठीक पता नहीं चलता, किन्तु मध्यकालीन कुछ आगमों की तिथियों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। तमिल कवि तिरमूलर (800 ई०), सुन्दर्र (लगभग 800 ई०) तथा माणिक्क वाचकर (900 ई० के लगभग) ने आगमों को उद्धृत किया है। श्री जगदीशचन्द्र चटर्जी का कथन है कि शिवसूत्रों की रचना कश्मीर में वसुगुप्त द्वारा 850 ई० के लगभग हुई, जिनका उद्देश्य अद्वैत दर्शन के स्थान पर आगमों की द्वैतशिक्षा की स्थापना करना था। इस कथन की पुष्टि मतङ्ग (परमेश्वर-आगम का एक उपागम) एवं स्वायम्भुव द्वारा होती है। नवीं शताब्दी के अन्त के कश्मीरी लेखक सोमानन्द एवं क्षेमराज के अनेक उद्धरणों से उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। किरण आगम की प्राचीनतम पाण्डुलिपि 924 ई० की है।
आगमों के प्रचलन से शैवों में शाक्त विचारों का उद्भव हुआ है एवं उन्हीं के प्रभाव से उनकी मन्दिर-निर्माण, मूर्तिनिर्माण तथा धार्मिक क्रिया सम्बन्धी नियमावली भी तैयार हुई। मृगेन्द्र आगम (जो कामिक आगम का प्रथम अध्याय है) के प्रथम श्लोक में ही सबका निचोड़ रख दिया गया है : `शिव अनादि हैं, अवगुणों से मुक्त हैं, सर्वज्ञ हैं; वे अनन्त आत्माओं के बन्धनजाल काटने वाले हैं। वे क्रमशः एवं एकाएक दोनों प्रकार से सृष्टि कर सकते है; उनके पास इस कार्य के लिए एक अमोघ साधन है `शक्ति`, जो चेतन है एवं स्वयं शिव का शरीर है; उनका शरीर सम्पूर्ण `शक्ति` है।` .....इत्यादि।
सनातनी हिन्दुओं के तन्त्र जिस प्रकार शिवोक्त हैं उसी प्रकार बौद्धों के तन्त्र या आगम बुद्ध द्वारा वर्णित हैं। बौद्धों के तन्त्र भी संस्कृत भाषा में रचे गये हैं। क्या सनातनी और क्या बौद्ध दोनों ही सम्प्रदायों में तन्त्र अतिगुह्य तत्त्व समझा जाता है। माना जाता है कि यथार्थतः दीक्षित एवं अभिषिक्त के अतिरिक्त अन्य किसी के सामने यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए। कुलार्णवतन्त्र में लिखा है कि धन देना, स्त्री देना, अपने प्राण तक देना पर यह गुह्य शास्त्र अन्य किसी अदीक्षित के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए।
शैव आगमों के समान वैष्णव आगम भी अनेक हैं, जिनको 'संहिता' भी कहते हैं। इनमें नारदपंचरात्र अधिक प्रसिद्ध है।

आगमप्रकाश
गुजराती भाषा में विरचित 'आगमप्रकाश' तान्त्रिक ग्रन्थ है। इसमें लिखा है कि हिन्दुओं के राज्य काल में वङ्ग के तान्त्रिकों ने गुजरात के डभोई, पावागढ़, अहमदाबाद, पाटन आदि स्थानों में आकर कालिकामूर्ति की स्थापना की। बहुत से हिन्दु राजाओं ने उनसे दीक्षा ग्रहण की थी, (आ० प्र० 12)। आधुनिक युग में प्रचलित मन्त्रगुरु की प्रथा वास्तव में तान्त्रिकों के प्राधान्य काल से ही आरम्भ हुई।

आगमप्रामाण्य
श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के यामुनाचार्य द्वारा विरचित यह ग्रन्थ वैष्णव आगम अथवा संहिताओं के अधिकारों पर प्रकाश डालता है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। इसका रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दी है।

आगस्त्य
ऐतरेय (3.1.1) एवं शाङ्खायन आरण्यक (7.2) में उल्लिखित यह एक आचार्य का नाम है।

आग्नेयक
शैव-आगमों में एक रौद्रिक आगम है।


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